ई.1025 में महमूद ने सौराष्ट्र के विश्व प्रसिद्ध सोमनाथ मंदिर पर आक्रमण करने का निश्चय किया जो भारत के प्रमुख तीर्थों में से एक था। सोमनाथ शिवालय को सौराष्ट्र के चौलुक्य शासकों ने सैंकड़ों गांव अर्पित कर रखे थे जिनसे प्राप्त राजस्व सोमनाथ शिवालय को मिलता था।
सोमनाथ मंदिर के बारे में मध्यएशिया, ईरान एवं अफगानिस्तान में सदियों पहले से ही कहानियाँ प्रसिद्ध थीं। यह मंदिर ईसा के जन्म से भी कई सौ साल पहले अस्तित्व में था। आठवीं शताब्दी ईस्वी में सिन्ध के अरबी गवर्नर जुनायद ने सोमनाथ के मंदिर को नष्ट करने के लिए अपनी सेना भेजी थी। यह सेना अपने उद्देश्य में सफल हुई तथा मंदिर को तोड़ दिया गया। गुर्जरप्रतिहार राजा नागभट्ट ने ई.815 में सोमनाथ मंदिर का फिर से निर्माण करवाया।
कहा जाता है कि जब मध्यएशिया के ख्वारिज्म शहर में रहने वाले अलबरूनी नामक एक अरबी लेखक को ज्ञात हुआ कि गजनी के सुल्तान महमूद गजनवी ने हर साल भारत पर आक्रमण करने की घोषणा की है तो वह ख्वारिज्म से चलकर गजनी आ गया ताकि जब महमूद भारत पर आक्रमण करे तो अलबरूनी भारत के भूगोल, इतिहास, ज्योतिष, खगोलशास्त्र एवं सामाजिक जन-जीवन का अध्ययन करके पुस्तकें लिख सके तथा भारत से इन विषयों की दुर्लभ पुस्तकें प्राप्त कर सके। संभवतः जब महमूद गजनवी मथुरा, ग्वालियर, कन्नौज अथवा कालिंजर के किसी अभियान पर भारत आया तो अलबरूनी उसके साथ भारत आया और उसने इस दौरान हिन्दुओं के प्रसिद्ध तीर्थ सोमनाथ की भी यात्रा की।
भारत से प्राप्त पुस्तकों को आधारित करके अलबरूनी ने अपने जीवन में 146 पुस्तकें लिखीं। यद्यपि इनमें से कई पुस्तकें बहुत छोटी हैं तथापि उस काल के भारत की राजनीतिक, धार्मिक एवं सामाजिक जनजीवन के बारे में महत्त्वपूर्ण जानकारियां देती हैं। अलबरूनी ने सोमनाथ मंदिर के वैभव, स्थापत्य, देव-प्रतिमाओं तथा धर्मिक रीतियों आदि का इतना भव्य एवं रोचक वर्णन किया कि उसे पढ़कर महमूद गजनवी दंग रह गया। महमूद को ज्ञात हुआ कि सोमनाथ महालय में भारत भर के संभ्रांत परिवारों की सुंदर लड़कियां देवदासियों के रूप में अर्पित की जाती हैं तथा वे हजारों लड़कियां रेशम की साड़ियां और सोने के आभूषण पहनकर एक साथ मंदिर में नृत्य करती हैं। महमूद उन देवदासियों और उनके वस्त्राभूषणों को लूटने के लिए बेताब हो गया।
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आगे बढ़ने से पहले हमें उस काल के दक्षिण भारत एवं गुजरात के मंदिरों में प्रचलित देवदासी प्रथा के बारे में चर्चा करनी चाहिए। भारत के मंदिरों में देवदासी प्रथा कब आरम्भ हुई, इसके बारे में निश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता किंतु इतना अवश्य कहा जा सकता है कि यह काफी प्राचीन प्रथा थी। मत्स्य पुराण, विष्णु पुराण तथा कौटिल्य के अर्थशास्त्र में भी देवदासी प्रथा का उल्लेख मिलता है। कालिदास की साहित्यिक रचना ‘मेघदूतम्’ में भी मंदिरों में नृत्य करने वाली तथा आजीवन अविवाहित रहने वाली कन्याओं का उल्लेख किया गया है।
प्राचीन काल के भारत में विशेषकर दक्षिण भारत में विशाल मंदिर समूहों का निर्माण होता था जिनमें हजारों लोगों का प्रतिदिन आना जाना लगा रहता था। इसलिए इन मंदिरों की सफाई, साज-सज्जा, वस्तुओं के भण्डारण, देव-प्रतिमाओं के संरक्षण, कीर्तन-पूजन, दीप-प्रज्वलन, नृत्य एवं गायन आदि के लिए बड़ी संख्या में सेवकों अथवा अनुचरों की आवश्यकता होती थी। प्रायः युवा लड़कियों को इस काम पर रखा जाता था जो इस कार्य को आसानी से सीख जाती थीं और जीवन भर इसी कार्य में लगी रहती थीं। ये लड़कियां जीवन भर इन्हीं मंदिरों में रह सकें, इसके लिए इन लड़कियों का विवाह देव-प्रतिमाओं के साथ कर दिया जाता था।
बहुत से निर्धन लोग धन प्राप्ति के लिए तथा बहुत से श्रद्धालु लोग पुण्य-अर्जन के लिए अपनी पुत्रियां इन मंदिरों में समर्पित कर देते थे। दक्षिण भारत के बहुत से परिवारों में यह प्रथा भी थी कि जब उनकी कोई मनौती पूर्ण होती थी तो वे अपने किसी बच्चे को देवमंदिर में देवता की सेवार्थ समर्पित कर देते थे जिनमें लड़कियां भी होती थीं। देवदासियों को सामान्यतः देवी मानकर उनका सम्मान किया जाता था किंतु कुछ मंदिरों में पुजारियों ने इन्हें अपने भोग-विलास का साधन बना लिया था। कुछ प्राचीन ग्रंथों में देवदासियों द्वारा किए जाने वाले कार्यों के आधार पर देवदासियों की अलग-अलग श्रेणियां बताई गई हैं जिनमें दत्ता, विक्रिता, भृत्या, भक्ता, हृता, अलंकारा तथा नागरी प्रमुख थीं।
जो लड़कियां मंदिर में भक्तिभाव से अर्पित की जाती थीं उन्हें दत्ता कहा जाता था। उन्हें देवी का दर्जा मिलता था। वे मंदिर के सभी प्रमुख कार्य करती थीं। जो लड़कियां स्वयं अपने भक्तिभाव से मंदिर में सेवा करती थीं उन्हें भक्ता कहा जाता था। इन्हें भी देवी के समान आदर मिलता था। जो लड़कियां मंदिर द्वारा क्रय की जाती थीं उन्हें विक्रिता कहा जाता था। वे मुख्यतः मंदिरों की साफ-सफाई का काम करती थीं। उन्हें मंदिर की परिचारिका माना जाता था। भृत्या उन देवदासियों को कहते थे जो अपने तथा अपने परिवार के भरण-पोषण के लिए मंदिर में नृत्य आदि कार्य करती थीं।
जिन लड़कियों अथवा स्त्रियों को दूसरे राज्यों से हरण करके किसी मंदिर को दान कर दिया जाता था, उन्हें हृता कहा जाता था। मंदिर के पुजारी इन औरतों का उपयोग अपनी इच्छानुसार करते थे। राजा, श्रेष्ठि एवं सामंतगण कुछ कन्याओं को मंदिर में उपहार के रूप में भेंट करते थे, उन्हें अलंकारा श्रेणी की देवदासी कहा जाता था। ये भी मंदिर की सम्पत्ति की तरह प्रयुक्त होती थीं। कुछ महिलाएं विधवा अथवा परित्यक्ता होने पर मंदिर में आश्रय प्राप्त करती थीं, उन्हें नागरी कहा जाता था। ये भोजन एवं आश्रय के बदले में मंदिर में सेवा करती थीं।
अलबरूनी ने अपने वर्णन में सोमनाथ मंदिर की देवदासियों तथा उनके द्वारा किए जाने वाले नृत्यों का विस्तार से उल्लेख किया। इनमें से बहुत सी देवदासियां नृत्य एवं गायन में निष्णात थीं तथा अत्यंत रूपवती थीं। यद्यपि महमूद गजनवी अपने पिछले कई अभियानों में संकटों से घिरकर मृत्यु के मुख में जा पहुंचा था तथापि इसमें कोई संदेह नहीं कि महमूद की शैतानी ताकत उसे गजनी में चैन से नहीं बैठने देती थी। महमूद ने इन देवदासियों को उनके वस्त्रों एवं आभूषणों सहित गजनी में लाने का निर्णय लिया।
महमूद अब तक काश्मीर में किए गए दो अभियानों में पराजय का मुख देख चुका था। उसने अजमेर के दो अभियानों में भी पराजय का मुख देखा था एवं कालिंजर के दो अभियानों में भी उसे सफलता नहीं मिली थी फिर भी महमूद ने सोमनाथ अभियान का निर्णय लिया तो निश्चित रूप से यह निर्णय किसी दुस्साहस से कम नहीं था।
-डॉ. मोहनलाल गुप्ता