चन्द्रवंश की प्राचीनता नामक इस अध्याय में चंद्रवंशी राजाओं की कथाएँ शीर्षक से लिखी गई पुस्तक की प्रस्तावना लिखी गई है।
चन्द्रवंश की प्राचीनता इस बात से ही प्रकट हो जाती है कि भारत के प्राचीन क्षत्रियों एवं पश्चवर्ती राजपूत कुलों ने अपनी पहचान सूर्यवंशी एवं चंद्रवंशी राजाओं के रूप में स्थापित की। भारत के समस्त आर्य-राजकुल इन्हीं दो राजवंशों में से निकले थे। इनमें से सूर्यवंशी राजा अपनी उत्पत्ति महर्षि कश्यप के पुत्र सूर्य से मानते हैं। सूर्य के पुत्र वैवस्वत-मनु हुए एवं वैवस्वत-मनु के पुत्र इक्ष्वाकु हुए जो परम प्रतापी सूर्यवंश के प्रवर्तक थे।
चंद्रवंशी राजा अपनी उत्पत्ति महर्षि अत्रि के पुत्र ‘सोम‘ से मानते हैं जिनका दूसरा नाम ‘चंद्र’ है। चंद्र के पुत्र बुध हुए जिन्होंने इला नामक स्त्री से विवाह किया। इसी बुध और इला के पुत्र पुरूरवा हुए जिन्हें चंद्रवंश का प्रवर्तक माना जाता है।
मत्स्य पुराण के अनुसार वैवस्वत मनु के दस महाबली पुत्र उत्पन्न हुए जिनमें ‘इल’ ज्येष्ठ थे तथा ‘इक्ष्वाकु’ दूसरे नम्बर के थे। मत्स्य पुराण, महाभारत तथा वाल्मीकि रामायण के अनुसार राजा इल को भगवान शिव के श्राप के कारण अपने जीवन का कुछ हिस्सा स्त्री बनकर तथा कुछ हिस्सा पुरुष बनकर निकालना पड़ा था। इल ने स्त्री रूप पाकर राजा बुध से विवाह किया जिससे पुरूरवा नामक पुत्र उत्पन्न हुआ। यही पुरूरवा चंद्रवंश का प्रवर्तक हुआ।
श्री हरिवंश पुराण के अनुसार वैवस्वत-मनु की दस संतानों में से पहली संतान ‘इला’ नामक कन्या थी और उसके बाद ‘इक्ष्वाकु’ आदि नौ पुत्र उत्पन्न हुए। इला का विवाह चंद्रमा के पुत्र बुध से हुआ तथा इस दाम्पत्य से पुरूरवा का जन्म हुआ। पुरूरवा से चंद्रवंश चला। मित्रावरुण के वरदान से इला कुछ समय बाद ‘सुद्युम्न’ नामक पुरुष में बदल गई। राजा सुद्युम्नु के तीन पुत्र उत्कल, गय और विनताश्व हुए जिनसे अलग-अलग राजवंश चले।
वाल्मीकि रामायण के उत्तरकाण्ड में आई एक कथा के अनुसार ‘इल’ प्रजापति कर्दम के पुत्र थे तथा बाल्हीक देश के राजा थे। उन्हें भगवान शिव के श्राप के कारण स्त्री बनना पड़ा एवं माता पार्वती द्वारा कृपा किए जाने पर आधा जीवन पुरुष के रूप में तथा आधा जीवन स्त्री के रूप में जीने का अवसर मिला। उन्होंने स्त्री रूप में बुध से विवाह करके पुरूरवा को जन्म दिया जिससे चंद्रवंश चला।
इस प्रकार सार रूप में कहा जा सकता है कि विभिन्न पुराणों, रामायण एवं महाभारत की कथाओं के अनुसार चंद्रवंश का पूर्वपुरुष चंद्रमा के पुत्र बुध तथा मनु की पुत्री इला से उत्पन्न पुरूरवा नामक राजा था। पुरूरवा को ऐल भी कहा जाता है। राजा इल की राजधानी प्रयाग थी जबकि पुरूरवा की राजधानी प्रतिष्ठान थी, जहाँ आज प्रयाग के निकट झूँसी बसी हुई है। राजा पुरूरवा के कई पुत्र हुए। पुरूरवा के वंश को पुरुवंश भी कहा जाता है। पुरूरवा का पुत्र आयु प्रतिष्ठान का शासक हुआ और अमावसु ने कान्यकुब्ज में एक नए राजवंश की स्थापना की।
कान्यकुब्ज के राजाओं में जह्नु प्रसिद्ध हुए जिनके नाम पर गंगाजी का नाम जाह्नवी पड़ा। इस वंश के राजा धीरे-धीरे सम्पूर्ण भारत में फैल गए। इस कारण पुरूवंश में से आगे चलकर कई राजवंश निकले। पुरुरवा के पुत्र राजा अमावसु के वंश में महर्षि विश्वामित्र उत्पन्न हुए। वे कान्यकुब्ज के राजा गाधि के पुत्र थे। पौरववंश, कुरुवंश, यदुवंश तथा हैहयवंश भी इसी चंद्रवंश में से निकले थे। इस प्रकार युधिष्ठिर आदि पाण्डव, दुर्योधन आदि कौरव एवं भगवान श्रीकृष्ण आदि यादव भी मूलतः चंद्रवंशी क्षत्रिय थे।
यदुवंश आगे चलकर अंधक, वृष्णि, कुकुर और भोज नामक अलग-अलग राजवंशों में बंट गया। चंद्रवंशी राजाओं में नहुष, ययाति, उशीनर, शिवि आदि अनेक राजाओं को इतनी प्रसिद्धि मिली कि वे पौराणिक मिथकों एवं जनश्रुतियों के नायक बन गए।
पौरवों ने पांचाल में अपना राज्य स्थापित किया। पांचाल में पौरवों का राजा सुदास अत्यंत प्रसिद्ध हुआ। उसकी बढ़ती हुई शक्ति से आशंकित होकर पश्चिमोत्तर भारत के दस राजाओं ने एक संघ बनाया और परुष्णी (रावी) नदी के किनारे राजा सुदास से उनका युद्ध हुआ, जिसे ‘दाशराज्ञ’ युद्ध कहते हैं और जो ऋग्वेद की प्रमुख कथाओं में से एक है।
इस युद्ध में राजा सुदास की विजय हुई। पौरव वंश के राजा संवरण का पुत्र कुरु हुआ। उसके नाम से कुरुवंश प्रसिद्ध हुआ, उसके वंशज कौरव कहलाए। दिल्ली के पास इंद्रप्रस्थ और मेरठ के पास हस्तिनापुर उनके दो प्रसिद्ध नगर हुए। दुष्यंत एवं शकुंतला के पुत्र ‘भरत’ भी इसी राजवंश में हुए।
माना जाता है कि इन्हीं भरत के नाम से हमारा देश भारत कहलाया। हालांकि इस सम्बन्ध में अधिक महत्वपूर्ण मान्यता यह है कि ऋग्वैदिक आर्यों के विभिन्न जनों में से एक जन का नाम भरत था, उनके वंशज भारत कहलाए तथा उन भारतों द्वारा शासित होने के कारण हमारे देश का नाम भारत हुआ।
महाभारत का विख्यात युद्ध चंद्रवंशी राजकुमारों के बीच में लड़ा गया था जिनमें से एक पक्ष को कौरव और दूसरे पक्ष को पांडव कहा जाता है। मान्यता है कि यह युद्ध आज से लगभग 5300 वर्ष पहले लड़ा गया तथा इस युद्ध में सम्पूर्ण भारतवर्ष के राजाओं ने भाग लिया। इस युद्ध में भगवान श्रीकृष्ण के सहयोग से पांडवों को विजय श्री प्राप्त हुई।
मगध का राजा जरासंध भी चंद्रवंशी ही था। वह असत्य का पक्षधर, क्रूर एवं अत्याचारी राजा था। उसने भारत के कई राजाओं को पकड़कर जेल में डाल दिया तथा उनकी रानियों को अपने महल में रख लिया। इस कारण भगवान श्रीकृष्ण ने जरासंध को पाण्डवों की सहायता से मरवाकर राजाओं एवं उनकी रानियों को मुक्त करवाया। मान्यता है कि चंदेल राजपूत, इसी जरासंध के वंशज थे।
इस पुस्तक में भगवान अत्रि द्वारा तीन हजार वर्ष तक घनघोर तपस्या करके सोम नामक पुत्र को प्राप्त करने से लेकर महाराज परीक्षित तक के काल में हुए कुछ प्रसिद्ध चंद्रवंशी राजाओं की कथाएं लिखी गई हैं। चंद्रवंशी राजाओं की यह शृंखला सत्युग से लेकर त्रेता, द्वापर एवं कलियुग तक चलती है। जो चन्द्रवंश की प्राचीनता सिद्ध करते हैं।
ये समस्त राजा प्राकृतिक शक्तियों के स्वामी, विभिन्न देवताओं के अवतार, अप्सराओं के पुत्र एवं धरती के मनुष्यों का मिला-जुला रूप प्रतीत होते हैं। इस कारण इनके साथ चमत्कारी कथाएं जुड़ी हुई हैं।
इनमें से कुछ राजाओं की कथाएं तो विभिन्न प्राकृतिक घटनाओं एवं खगोलीय पिण्डों की उत्पत्ति से सम्बन्धित प्रतीत होती हैं जिनका मानवीकरण करके उन्हें चंद्रवंशी राजाओं के साथ जोड़ दिया गया है। यही कारण है कि इन कथाओं के माध्यम से भारत के प्राचीन इतिहास के साथ-साथ प्राकृतिक एवं खगोलीय घटनाओं को भी समझा जा सकता है।
इस ग्रंथ में आई कुछ कहानियों में अनेक राजाओं एवं ऋषि-मुनियों की आयु कई हजार वर्ष बताई गई है, इस कारण कुछ पाठकों के मन में संदेह उत्पन्न हो सकता है किंतु पाठकों को यह ध्यान में रखना होगा कि पुराणों में मान्यता है कि मनुष्य की आयु सतयुग में 1 लाख वर्ष, त्रेतायुग में 10 हजार वर्ष, द्वापर में 1 हजार वर्ष तथा कलियुग में 100 वर्ष बताई गई है।
इतनी लम्बी कालगणना के बारे में कोई वैज्ञानिक दृष्टिकोण तो ज्ञात नहीं है किंतु इतना अवश्य है कि इन कालगणनाओं से चन्द्रवंश की प्राचीनता प्रकट होती है।
इस ग्रंथ में दी गई कहानियों को यूट्यूब चैनल StoriesFromHinduDharma पर वीडियो-ब्लॉग के रूप में भी उपलब्ध कराया गया है। इच्छुक पाठक इन्हें यूट्यूब पर भी देख सकते हैं तथा विदेशों में रहने वाले अपने मित्रों एवं सम्बन्धियों को उनके बारे में बता सकते हैं। आशा है भारत की युवा पीढ़ी इन कथाओं के माध्यम से भारत के प्राचीन गौरव से परिचित होगी।
– डॉ. मोहनलाल गुप्ता