Thursday, November 21, 2024
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अध्याय – 6 : अँग्रेजों के आगमन के समय भारत की आर्थिक स्थिति

जहाँ एक ओर यूरोपीय इतिहासकारों ने यह सिद्ध करने का प्रयास किया है कि यूरोपीय जातियों ने भारतीयों को सभ्य बनाने के लिये भारत में प्रवेश किया वहीं दूसरी ओर आधुनिक भारतीय इतिहासकारों ने यह सिद्ध करने का प्रयास किया है कि अँग्रेजों के भारत आगमन के समय भारत की आर्थिक स्थिति बहुत अच्छी थी और अँग्रेजों की शोषणकारी नीतियों ने भारत की आर्थिक स्थिति को पतन के गर्त में पहुँचा दिया। ये दोनों ही बातें सही नहीं हैं। अँग्रेजों के आगमन के समय अर्थात् सत्रहवीं और अठारहवीं शताब्दी में भारत की आर्थिक स्थिति की चर्चा करते समय निम्नलिखित तथ्य ध्यान में रखे जाने चाहिये-

(1.) विगत 9 शताब्दियों से मुस्लिम आक्रांताओं द्वारा लगातार किये जा रहे आक्रमणों के कारण भारत की आर्थिक स्थिति अत्यंत खराब हो चुकी थी। मुहम्मद बिन कासिम से लेकर महमूद गजनवी, मुहम्मद गौरी, चंगेजखाँ, तैमूरलंग, नादिरशाह, अहमदशाह अब्दाली आदि आक्रांताओं द्वारा उत्तरी एवं पश्चिमी भारत में भयानक लूटमार मचाने, कत्ले आम मचाने तथा कामगारों को पकड़कर अपने देशों में ले जाने के कारण भारत के उद्योग-धंधों को गहरे घाव पहुँचे थे।

(2.) दिल्ली सल्तनत तथा मुगलिया सल्तनत के अधिकांश मुंिस्लम शासकों द्वारा हिन्दू किसानों, हिन्दू व्यापारियों एवं हिन्दू तीर्थ-यात्रियों पर अधिक से अधिक कर लगाये जाने तथा मुस्लिम व्यापारियों एवं किसानों को विभिन्न प्रकार के करों में छूट दिये जाने के कारण बहुसंख्य हिन्दुओं की आर्थिक स्थिति बहुत खराब थी।

(3.) बाबर से लेकर अकबर तक के लगभग 80 साल के शासनकाल में तथा औरंगजेब के 50 साल के शासन काल में अनवरत युद्ध चलते रहे। इन युद्धों के चलते, देश में समृद्धि कैसे बची रह सकती थी! जहाँ-जहाँ मुगल सेनाओं का पड़ाव रहा अथवा जिन राज्यों पर उनके आक्रमण हुए, वहाँ-वहाँ की खेतियां उजड़ गईं, उद्योग धंधे ठप्प हो गये तथा लोग अपने घरों को छोड़कर दर-दर भटकने पर विवश हो गये। इन कारणों से भारतीय अर्थव्यवस्था बुरी तरह चरमरा गई थी।

(4.) किसानों तथा उनके परिवारों के द्वारा हाड़-तोड़ मेहनत करके जो अनाज उगाया जाता था, उसे बादशाहों, नवाबों, राजाओं तथा जागीरदारों के आदमियों द्वारा कर के रूप में लूट लिया जाता था। भू-राजस्व एवं कर चुकाने के बाद किसानों तथा उनके परिवारों के पास पेट भरने के लिये पर्याप्त अनाज नहीं बचता था।

(5.) केन्द्रीय मुगल शासन की अराजकता, प्रांतीय मुस्लिम शासकों की कट्टरता, लगातार हो रहे अफगानी आक्रमण, मराठों की लूट-खसोट, व्यापारिक चुंगी, स्थानीय करों की अधिकता तथा हिन्दुओं के साथ धार्मिक भेदभाव के उपरांत भी खेती तथा कुटीर धंधे केवल इसलिये चल रहे थे और लोग इसलिये जीवित थे कि जन साधारण में पूरा परिवार, साल प्रत्येक दिन और दिन के अधिकांश समय में किसी न किसी काम में लगा रहता था।

(4.) चारों ओर मची हुई लूट-मार के कारण बादशाहों, सूबेदारों, राजाओं एवं जागीरदारों के पास धन की आवक लगी रहती थी तथा जन साधारण दिन पर दिन निर्धन होता जा रहा था।

भू-स्वामित्व

अँग्रेजों के आगमन के समय भारत में सिद्धान्ततः शासक समस्त भूमि का स्वामी था परन्तु व्यावहारिक रूप में भूमि पर काश्त करने वाले जब तक भूमि कर (लगान) देते रहते थे, तब तक वे भूमि के मालिक बने रहते थे। सामान्य रूप से किसान न तो भूमि को बेच सकते थे और न उससे अलग हो सकते थे। डॉ. नोमान अहमद सिद्दीकी का मत है कि किसानों को जमीन बेचने और बन्धक रखने जैसे अधिकार नहीं थे। फिर भी किसानों का एक वर्ग जिसे मौरूसी कहा जाता था, इस प्रकार के अधिकारों का दावा करता था, जिन्हें दखलदारी का अधिकार (ओक्यूपेंसी राइट्स) कहा जा सकता है। सामान्यतः किसानों को बेदखल नहीं किया जाता था और उनके वंशजों का उनके खेतों पर उत्तराधिकार होता था। कुछ ऐसे किसान भी थे जो जमींदारों की अनुमति से खेत जोतते थे। उन्हें जमींदार अपनी इच्छा से कभी भी बेदखल कर सकता था। वस्तुतः कृषकों का वर्गीकरण कई स्तरों एवं श्रेणियों में हो सकता था।

भूमि की श्रेणियाँ और किस्म

कृषि भूमि को दो श्रेणियों में विभाजित किया गया था- (1.) खालसा भूमि और (2.) गैर-खालसा भूमि (जागीर, सासण आदि)। मुगलों के शासनकाल में जागीरदार अर्द्ध-स्वतंत्र शासक थे। बादशाह उनके आन्तरिक शासन में सामान्यतः हस्तक्षेप नहीं करता था। खालसा भूमि बादशाह के नियंत्रण में होती थी। मालगुजारी निश्चित करने के लिये भूमि को पोलज, परती, चाचर एवं बंजर में बाँटा गया था। यह वर्गीकरण भूमि को जोतने पर आधारित था। पोलज वह भूमि थी जिसे प्रत्येक वर्ष जोता जाता था। परती भूमि को कुछ समय के लिये बिना जोते ही छोड़ दिया जाता था। चाचर भूमि तीन-चार साल के लिए बिना जोते हुए छोड़ दी जाती थी। बंजर भूमि वह थी जिस पर पाँच साल से भी अधिक समय तक कोई उपज नहीं होती थी। प्रथम दो प्रकार की भूमियों (पोलज तथा परती) को तीन श्रेणियों में विभाजित किया गया- अच्छी, मध्यम और खराब। इन तीनों श्रेणियों की प्रति बीघा औसत उपज को पोलज तथा परती के प्रति बीघा की सामान्य उपज मान लिया गया था। इन दोनों श्रेणियों की भूमि में विशेष अन्तर नहीं था; क्योंकि जिस वर्ष भी परती भूमि पर खेती की जाती थी, उसकी उपज पोलज के समान ही हुआ करती थी। चाचर भूमि में जब पहले साल खेती होती थी तो निश्चित दर का 2/5 भाग लिया जाता था और पाँच साल खेती होने के पश्चात् उस पर सामान्य दर से मालगुजारी ली जाती थी। बंजर भूमि पर भी पाँच साल के बाद पूरी दर से मालगुजारी ली जाती थी।

कृषि का तरीका और फसलें

अँग्रेजों के भारत में आने के समय पुराने ढंग से खेती की जाती थी। कृषि कार्यों में हल, खुरपी, पटेला, हंसिया तथा बैलों की जोड़ी काम में लाये जाते थे। अधिकांशतः खेती वर्षा पर निर्भर थी। सिंचाई के लिये बहुत कम नहरें उपलब्ध थीं। वर्षा के अभाव में प्रजा संतप्त हो जाती थी। किसानों का जीवन कष्टमय तथा मंथर गति से चलने वाला था। ग्रामवासियों की आवश्यकताएँ गाँव में ही पूर्ण होती थीं। प्रत्येक व्यक्ति अपना नियत कार्य करता था। किसान खेत जोतता, बोता तथा काटता था। उस समय की मुख्य फसलों में गेहूं, बाजरा, मक्का, चावल, कपास, मटर, तिलहन, गन्ना आदि थे। फलों में आम, अँगूर, अनार, केले, खरबूजा, अंजीर, नींबू, खिरनी, जामुन आदि होते थे। औषधीय फसलों में जड़ी-बूटियाँ, मसाले और सुगन्धित काष्ठ उत्पन्न होते थे। अनाज-भण्डारण का सामान्य तरीका गड्ढों या खत्तियों में रखने का था जिससे अनाज लम्बे समय तक सुरक्षित रखा जा सकता था।

किसानों की स्थिति

अँग्रेजों के आगमन के समय भारत में किसानों की स्थिति अच्छी नहीं थी। राजनीतिक अस्थिरता, मराठों द्वारा की जाने वाली लूटपाट तथा केन्द्रीय नेतृत्व की कमजोरी के कारण स्थानीय शासक किसानों से बलपूर्वक कर वसूल करते थे। जिन क्षेत्रों पर मराठों के आक्रमण अधिक होते थे, वहाँ किसानों की स्थिति अधिक खराब थी। जब किसान स्थानीय शासक को कर चुका देते थे तो मराठे चौथ वसूली के लिये आ धमकते थे और यदि मराठे पहले लूट लेते थे तो बाद में स्थानीय शासक कर मांगता था। इस कारण बहुत से स्थानों पर खेती उजड़ गई थी। अठारहवीं शताब्दी में किसान का जीवन दरिद्र, घिनौना, दयनीय तथा अनिश्चित था। बहुत से किसान बर्बाद होकर डाकू बन जाते थे जो बड़े-बड़े दल बनाकर, प्रजा को लूटते फिरते थे।

शिल्प तथा उद्योग

भारत के गाँवों, कस्बों तथा शहरों में काम करने वाले शिल्पी तथा उद्यमी अपने पुराने जातिगत एवं परम्परागत कार्य करते थे। उनके औजार भी बहुत पुराने ढंग के थे। देश में बड़े पैमाने पर किसी उद्योग का विकास नहीं हुआ था। अधिकांश उद्योग स्थानीय रूप में थे जो पिता से पुत्र को पीढ़ी दर पीढ़ी हस्तांतरित किये जाते थे। देश के कई शहर और क्षेत्र अपने विशिष्ट और श्रेष्ठ उत्पादों के लिये प्रसिद्ध हो गये थे। कई शाही कारखाने भी थे जो फारस देश के ढंग के अनुसार मुस्लिम शासकों द्वारा स्थापित किये गये थे। इन कारखानों में शाही तथा दरबारी लोगों की आवश्यकता की चीजें बनाई जाती थी। इनमें सुनार, किमखाब या रेशम तैयार करने वाले, कसीदाकारी करने वाले, चित्रकार, दर्जी, मलमल तथा पगड़ी बनाने वाले इत्यादि अनेक प्रकार के कारीगर होते थे, जो साथ मिलकर तथा अलग-अलग काम करते थे। प्रान्तों में भी स्थानीय माँग के अनुसार विभिन्ना प्रकार की वस्तुएं बनाने के कारखाने थे। इनमें बनने वाली वस्तुएं उच्च अधिकारियों को भेंट की जाती थीं।

व्यापार एवं वाणिज्य

भारत में अँग्रेजों के आगमन के समय व्यापार एवं वाणिज्य के विषय में बहुत ही कम जानकारी मिलती है। उपलब्ध स्रोतों के अनुसार अँग्रेजों के आगमन के समय भारत का आन्तरिक एवं बाह्य, दोनों प्रकार का व्यापार उन्नति पर था। देश की आवश्यकताओं को पूरा करने के पश्चात् जो सामग्री शेष बचती, उसका निर्यात किया जाता था। यातायात एवं परिवहन की समस्या व्यापारियों तथा सामान ले जाने वाले साधनों के द्वारा पूर्ण हो जाती थी। देश में व्यापार के लिये अनेक मार्ग थे जो स्थानीय शासक द्वारा कर लेकर सुरक्षित रखे जाते थे।

आन्तरिक व्यापार

अँग्रेजों के आगमन के समय राजनीतिक अस्थिरता होने के उपरांत भी, भारत का आन्तरिक व्यापार काफी विस्तृत था। इस समय भी वैश्य वर्ग प्रमुख व्यापारी था। उत्तर भारत में व्यापार गुजरातियों एवं मारवाड़ियों द्वारा तथा दक्षिण में चेतियों द्वारा होता था। प्रत्येक गाँव में छोटा बाजार होता था, जहाँ छोटी-छोटी वस्तुओं का व्यापार होता था। कुछ दुकानें चलती-फिरती होती थीं, जो घोड़े की पीठ पर लगाई जाती थीं। महत्त्वपूर्ण वस्तुओं का व्यापार शहर की मण्डियों में होता था। विभिन्न स्थानों पर साल भर में कुछ निश्चित मेले लगते थे जिनमें दूर-दूर से व्यापारी आते थे और खूब व्यापार होता था। फेरी लगाकर माल बेचने वाले तथा इस प्रकार के अन्य व्यापारी भी उपभोक्ताओं की आवश्यकताओं को पूरा करते थे। बन्जारों के काफिले बैलों पर अनाज, चीनी, नमक आदि लादकर एक स्थान से दूसरे स्थान को जाते थे। कई बार ये काफिले 20 से 30 हजार बैलों के होते थे। व्यापारी भी काफिलों में इधर-उधर जाते थे। भारत के महत्त्वपूर्ण व्यापारी गुजराती, मारवाड़ी और मुल्तानी थे। विदेशी मुसलमान व्यापारियों को खुरासानी कहा जाता था। वे मुल्तान, लाहौर तथा दिल्ली जैसे बड़े नगरों के बाजारों में माल की आपूर्ति करते थे।

माल परिवहन के साधन

उस काल में परिवहन के साधन बहुत कम थे। व्यापारिक माल प्रायः कच्ची एवं धूलभरी सड़कों से ले जाया जाता था। शासकों द्वारा मार्ग के दोनों ओर छायादार वृक्ष लगवाये जाते थे। यात्रियों एवं व्यापारियों की सुविधा के लिये स्थान-स्थान पर सरायें बनाई जाती थीं। इन स्थानों पर पशुओं के लिये चारा एवं पेयजल भी उपलब्ध रहता था। यात्रियों एवं व्यापारियों को मार्ग दिखाने के लिये छोटी-छोटी अटारी अथवा मीनार बने हुए थे। राजपूताने के भाट एवं चारण, खतरनाक सड़कों पर काफिलों का मार्ग-दर्शन तथा सुरक्षा करते थे। नदियां भी माल के परिवहन के लिये सस्ता साधन थीं। काश्मीर, बंगाल, सिन्ध तथा पंजाब में अधिकांश सामान नदी मार्ग से परिवहन किया जाता था। बंगाल में गंगा तथा ब्रह्मपुत्र एवं उनकी सहायक नदियां, नेपाल की तराई में गण्डक, बिहार में कोसी, पंजाब में रावी, चिनाव, झेलम, सतलुज एवं व्यास, मध्य भारत में नर्मदा तथा चम्बल, दक्षिण में गोदावरी, कृष्णा, कावेरी आदि विभिन्न नदियों के माध्यम से बड़ी मात्रा में व्यापारिक माल का परिवहन होता था। बंगाल में नावों के बड़े बेड़े होते थे। यमुना में चौरस पेंदी की कुछ नावें 100 टन तक भारी होती थीं। गंगा में 400-500 टन भारी नावें चलती थीं। थट्टा से लाहौर तक जाने में 6-7 सप्ताह का समय लगता था, जबकि वापसी यात्रा में केवल 18 दिन लगते थे।

सड़कों पर सुरक्षा

केन्द्रीय, प्रान्तीय एवं स्थानीय शासक अपने-अपने क्षेत्र में व्यापार बढ़ाने में रुचि लेते थे ताकि उनके क्षेत्र में आर्थिक समृद्धि आ सके तथा सरकार को अधिक आय हो सके। इस कारण सड़कों को सुरक्षित बनाने के प्रयत्न किये जाते थे परन्तु फिर भी लुटेरों का भय बना रहता था। इसलिये व्यापारी अपने काफिलों के साथ सशस्त्र सुरक्षा प्रहरी रखते थे तथा स्थानीय शासकों को शुल्क देकर उनसे सुरक्षा प्राप्त करते थे।

चुंगी

आंतरिक एवं बाह्य व्यापार हेतु एक स्थान से दूसरे स्थान पर माल ले जाने एवं बाजार में विक्रय करने पर स्थान-स्थान पर चुंगी ली जाती थी। चुंगी के अतिरिक्त समस्त बड़े बाजारों तथा बन्दरगाहों पर अन्य शुल्क भी देने पड़ते थे। औरंगजेब ने इसकी मात्रा हिन्दू व्यापारियों के लिये पहले की अपेक्षा दो गुनी कर दी तथा मुसलमान व्यापारियों के लिये बिल्कुल हटा दी। इस कारण हिन्दुओं को व्यापार में कम लाभ होता था।

व्यापार का स्वरूप

अँग्रेजों के आगमन के समय देश के विभिन्न भागों के बीच व्यापार की स्थिति अच्छी थी। एक स्थान पर उत्पन्न होने वाली सामग्री को देश के विभिन्न भागों एवं देश से बाहर भेजा जाता था। बंगाल, से खाद्य वस्तुएँ, चावल, चीनी तथा मक्खन का समुद्री व्यापार होता था। ये वस्तुएँ कोरोमंडल, केपकामरिन के क्षेत्र से होती हुई कराची तक जाती थीं। बंगाल से चीनी गुजरात को तथा गेहूं दक्षिण भारत को जाते थे। पटना को चावल और सिल्क के बदले में गेहूं, चीनी तथा अफीम प्राप्त होती थी। केरल अफीम का आयात करता था। सत्रहवीं सदी में विभिन्न प्रकार की वस्तुओं के आयात और निर्यात के लिये आगरा अत्यंत प्रसिद्ध केन्द्र था। यह बंगाल और बिहार से कच्ची सिल्क, चीनी, चावल, गेहूं तथा मक्खन आदि वस्तुओं का व्यापार करता था। आगरा, देश तथा विदेशों में उत्तम प्रकार के नीले रंग के लिये बहुत प्रसिद्ध था। इसके समीपवर्ती क्षेत्रों जैसे- हिन्दुआन, बयाना, पंचूना, बिसौर तथा खनवा में गेहॅूँ पैदा होता था। यहाँ से गेहूं भारत के विभिन्न बन्दरगाहों तथा विदशों को भेजा जाता था।

व्यापार के अन्य महत्त्वपूर्ण केन्द्र लाहौर तथा मुल्तान थे। वास्तव में काबुल, कन्धार तथा फारस से होने वाला समस्त स्थल व्यापार इन नगरों से होकर होता था। लाहौर अपनी दरियों के लिये प्रसिद्ध था जबकि मुल्तान चीनी, अफीम, सूती माल तथा गन्धक के लिये प्रसिद्ध था। मुल्तान में सर्वोत्तम ऊँट उपलब्ध होते थे। गुजरात प्राचीनकाल से वाणिज्य का बड़ा और महत्त्वपूर्ण केन्द्र था। इसके प्राकृतिक संसाधनों तथा उद्योगों ने इसे बंगाल की तरह धनी प्रांत बना दिया था। यह कपड़े की बुनाई का केन्द्र था। यहाँ के कपड़े गुजरात के मुख्य बंदरगाह कैम्बे द्वारा दक्षिण-पूर्व एशिया तथा भारत के दूसरे भागों को भेजे जाते थे। नील, शोरा तथा वस्त्रों के बदले विदेशी व्यापारी पश्चिम से विविध प्रकार की प्रसाधन सामग्री लाते थे जिन्हें गुजरात, दिल्ली, आगरा, राजस्थान तथा मालवा के हुजूर में भेजा जाता था। केरल काली मिर्चों का निर्यात तथा अफीम का आयात करता था। केरल में गुजरात, मालवा और अजमेर से गेहूं तथा दक्षिण व मलाबार से चावल मँगाया जाता था।

पुलीकट का छपा हुआ कपड़ा बहुत बढ़िया होता था जो गुजरात तथा मलाबार तट को भेजा जाता था। सिन्ध से भारत के विभिन्न भागों में गेहॅूँ, जौ, सूती कपड़े तथा घोड़े भेजे जाते थे और बदले में चावल, चीनी, इमारती लकड़ी तथा मसाले मँगाये जाते थे। काश्मीर में गुजरात, रावलपिंडी तथा लद्दाख से नमक, बुरहानपुर से अच्छा चावल तथा देश के विभिन्न भागों से चौड़े वस्त्र, गेहूं, दवाएँ, चीनी, तांबा, लोहा, तांबा, पीतल के बर्तन, शीशे का सामान, सोना, चाँदी और विलास की सामग्री मंगाई जाती थी। काश्मीर से आगरा तथा अन्य स्थानों को शॉल, ऊन तथा शोरा निर्यात होता था। इस प्रकार भारत के लगभग समस्त नगरों एवं विभिन्न राज्यों की राजधानियों के बीच उपयोगी वस्तुओं का व्यापार प्रचुर मात्रा में होता था।

विदेशी व्यापार

भारत का विदेशी व्यापार अत्यंत प्राचीन काल से विश्व भर के देशों से होता आया था। अँग्रेजों के भारत आगमन के समय भी लंका, बर्मा, चीन, जापान, पूर्वी द्वीप समूह, नेपाल, फारस, मध्य एशिया, अरब और लालसागर के बन्दरगाहों तथा पूर्वी अफ्रीका से बड़े पैमाने पर व्यापार होता था। कैम्बे, सूरत, भड़ौंच, गोआ, कालीकट, कोचीन, मछलीपट्टम, सतगाँव, सोनारगाँव तथा चटगाँव उस युग के प्रसिद्ध बन्दरगाह थे। लाहौर, मुल्तान, लाहरी बन्दर (सिन्ध), कैम्बे, पटना, अहमदाबाद तथा आगरा में बड़े-बड़े बाजार थे जहाँ विदेशों से वस्तुएँ आती थीं और फिर देश के विभिन्न भागों को भेजी जाती थीं। भारतीय वाणिज्य पूरी दुनिया की आंखों में चौंध पैदा करता था।

इसी से प्रेरित होकर रूस के शासक पीटर महान (1682-1725 ई.) ने एक बार कहा था- ‘याद रखो कि भारत का वाणिज्य विश्व का वाणिज्य है और …….. जो उस पर पूरा अधिकार कर सकेगा, वही यूरोप का अधिनायक होगा।’

समुद्री मार्ग द्वारा व्यापार

भारत को पश्चिमी देशों से मिलाने वाले दो मुख्य समुद्री मार्ग थे- (1.) फारस की खाड़ी से होकर तथा (2.) लालसागर से होकर। लालसागर वाला मार्ग थोड़ा दुष्कर था, अतः नाविक तथा सौदागर फारस की खाड़ी वाले मार्ग को पसन्द करते थे। यह मार्ग ईराक में बगदाद से आरम्भ होकर चीन में केन्टन तक जाता था।

मनूची (1653-1708 ई.) ने लिखा है- ‘अरब तथा फारस के जहाज खजूर, फल, घोड़े, समुद्री मोती तथा रत्न भारत में लाते थे, बदले में गुड़, चीनी, मक्खन, जैतून के फल तथा नारियल ले जाते थे।’

 भारत से कपड़ों का निर्यात प्रमुख रूप से होता था जबकि बहुमूल्य धातुएं, विभिन्न प्रकार के बर्तन एवं विविध उपयोगी सामग्री में प्रयुक्त होने वाली धातुएं, सौन्दर्य एवं प्रसाधन सामग्री बड़े स्तर पर आयात की जाती थी। भारतीय माल कोरोमण्डल समुद्री तट के रास्ते से फारस ले जाया जाता था।

भारत में अँग्रेजों के आगमन के समय भारतीय निर्यात की मुख्य वस्तुएँ कपास से निर्मित कपड़ा एवं अन्य वस्तुएँ, अनाज, तेल के बीज, ज्वार, चीनी, चावल, नील, सुगंधित पदार्थ, सुगन्धित लकड़ी तथा पौधे, कर्पूर, लंवग, नारियल, विभिन्न जानवरों की खालें विशेषकर गेंडे तथा चीते की खाल, चन्दन की लकड़ी, अफीम, काली मिर्च तथा लहसुन थी। विदेशों में भारतीय कपड़ों की अच्छी माँग थी। फारस तथा मिस्र आदि अरब देशों को उत्तम प्रकार की मलमल निर्यात होती थी।

मोरलैण्ड के अनुसार 17वीं शताब्दी में रुई के सामान का वार्षिक निर्यात लगभग 8000 गाँठें था जिनमें से 4,700 गाँठें यूरोपीय देशों को जाती थीं। इसी शताब्दी के अन्त में भारतीय ताफता (सिल्क) तथा बूटेदार कपड़ा इंग्लैण्ड को निर्यात होने लगा था। लाख (गोंद) बंगाल तथा उड़ीसा में कई स्थानों पर बनाई जाती थी जिसका निर्यात डचों द्वारा फारस को किया जाता था। बर्मा, जावा, चीन, मलाया तथा अरब को समुद्री मार्ग से भारतीय अफीम एवं काली मिर्च का निर्यात होता था। फारस एवं उसके आगे के देशों को स्थल मार्ग से अफीम एवं वस्त्र आदि वस्तुओं का निर्यात होता था। भारत से दुनिया भर के देशों को चीनी, शोरा, लोहा, इस्पात, हींग, आँवला, दवाएँ, बहुमूल्य पत्थर तथा संगमरमर भी निर्यात किया जाता था।

भारत में बहुमूल्य धातुओं का आयात किया जाता था। वान् ट्विस्ट (1638 ई.) ने लिखा है कि भारत में सोने तथा चाँदी की खानें नहीं थीं, इसलिये विदेशों से ये दोनों धातुएँ आयात की जाती थीं तथा उनके निर्यात पर रोक थी।

एक अँग्रेज यात्री विलियम हार्किज (1608-13 ई.) ने लिखा है- ‘भारत में चाँदी प्रचुर मात्रा में है क्योंकि यहाँ समस्त देश सिक्के लाते हैं और उनके बदले में वाणिज्यिक वस्तुएँ ले जाते हैं। ये सिक्के भारत में ही रखे जाते हैं, बाहर नहीं जाते हैं।’

चीन, जापान, मलक्का तथा अन्य समीपवर्ती देशों से सोना मंगवाया जाता था। पेगू (बर्मा) से मूँगा तथा मोती एवं फारस तथा अरब देशों से विभिन्न प्रकार के रत्न मंगवाये जाते थे। लिस्बन से पारा आयात किया जाता था।

स्थल मार्ग द्वारा व्यापार

भारत में मध्य एशिया और अफगानिस्तान से सूखे मेवे तथा ताजे फल, अम्बर हींग, खुरखुरे लाल पत्थर आदि का आयात होता था। नेपाल से पशु तथा सींग, कस्तूरी, सोहागा, चिरैता (औषधि की जड़ी-बूटी), मजीह (रंग), इलायची, चौरीस (तिब्बती गाय की पूंछ), महीन रोंये, बाज पक्षी तथा बालचर (एक सुगन्धित घास) मंगवाया जाता था। भूटान से कस्तूरी तथा तिब्बती गाय की पूंछ का आयात होता था। पुर्तगाली डाकुओं की गतिविधियों के कारण बर्मा के साथ व्यापार में कमी आ गई थी। घोड़े आयात की महत्त्वपूर्ण वस्तु थे। तुर्किस्तान में रहने वाले अजाक लोग भारत में बेचने के लिये बड़े स्तर पर घोड़े पालते थे। ये घोड़े 6,000 अथवा इससे बड़े झुण्ड में भारत को भेजे जाते थे।

व्यापार संतुलन

व्यापार का संतुलन भारत के पक्ष में था। समस्त देशों के व्यापारी, भारतीय बन्दरगाहों पर आते थे तथा विभिन्न प्रकार की उपयोगी वस्तुओं- छींट के कपड़े,  मसाले, काली मिर्च, गेहूँ, घी, जड़ी-बूटियाँ और गोंद आदि के बदले में सोना, चांदी तथा रेशम देते थे। इसलिये भारत को बहुमूल्य धातुओं का कुण्ड कहा जाता था। व्यापार संतुलन को भारत की बजाय, यूरोप के पक्ष में करने के लिये ईस्ट इंडिया कम्पनी ने अपनी निर्यात सूची को बढ़ाने का आदेश दिया। इंग्लैण्ड में भारतीय मलमल, छींटदार कपड़े एवं रंगदार लट्ठे की इतनी अधिक माँग थी कि उससे इंग्लैण्ड की अर्थव्यवस्था लड़खड़ाने लगी थी। इसलिये ब्रिटिश संसद ने विशेष कानून बनाकर 29 सितम्बर 1701 से फारस, चीन तथा पूर्वी हिन्द द्वीप समूह के चित्रित, छपे हुए एवं रंगे हुए लट्ठे को ब्रिटेन में पहनने एवं प्रयोग में लाने पर रोक लगा दी।

वास्कोडिगामा के भारत आगमन के बाद लगभग एक शताब्दी (1500-1600 ई.) तक भारतीय विदेशी व्यापार पर पुर्तगालियों का वर्चस्व रहा। पुलीकट, कासिम बाजार, पटना, बालोसर, नागपट्टम तथा कोचीन में पुर्तगालियों की मुख्य फैक्ट्रियाँ थीं। अरब देशों के व्यापारी जो भारत में आने वाले प्रमुख विदेशी व्यापारी थे, लगभग पूरी तरह हटा दिये गये। हॉलैण्ड वाले भी 1603 ई. में भाग लेने लगे थे। इससे यूरोपीय देशों के साथ भारतीय व्यापार में वृद्धि हुई। अंग्रजों ने 1608 ई. में पहली बार भारत के लिये व्यापारिक यात्रा की। वे अपने साथ पांच जहाजों में कपड़े, टीन, शीशे, चामू-कैंची की वस्तुएँ, पारा, शीशा तथा चमड़ा लेकर आये। उन्होंने भारत में अलग-अलग स्थानों पर गोदाम स्थापित किये जिन्हें अँग्रेज व्यापारी फैक्ट्रियाँ कहते थे तथा भारतीय व्यापारी कारखाना कहकर पुकारते थे। फ्रांस ने भी भारत में अपनी फैक्ट्रियाँ स्थापित कीं। इन फैक्ट्रियों से मांग के अनुसार माल की आपूर्ति नहीं हो सकी इसलिये यूरोपीय व्यापारियों द्वारा भारत के मुख्य वाणिज्यिक केन्द्रों पर एजेन्ट नियुक्त किये गये। उनके माध्यम से देश के विभिन्न भागोंसे व्यापार किया जाने लगा।

उद्योगों की स्थिति

भारत में अँग्रेजी शासन की स्थापना के पहले भारतीय कुटीर एवं लघु उद्योग उन्नत अवस्था में थे। सत्रहवीं और अठारवीं सदी के पूर्वार्द्ध में देश स्वदेशी उद्योगों के लिये बाहर के देशों में भी विख्यात था। भारतीय माल की विदेशों में बड़ी माँग थी। देश में दो तरह के उद्योग विकसित थे- ग्रामीण उद्योग तथा शहरी उद्योग। ग्रामीण उद्योग आम आदमी की प्राथमिक आवश्यकताओं की पूर्ति करते थे। शहरी उद्योगों द्वारा कला-कौशलपूर्ण वस्तुओं का निर्माण होता था। ये उद्योग विलासिता का सामान बनाने में अग्रणी थे। देश के कपास उत्पादक क्षेत्रों, दूरस्थ गाँवों और शहरों में कपड़ा तैयार किया जाता था। गांव-गांव और शहर-शहर में हाथकरघा पर मोटा कपड़ा यथा गाढ़ा एवं रेजी तैयार किये जाते थे। विभिन्न शिल्पों में लगे कारीगरों में से लगभग दो-तिहाई बुनकर थे। ग्रामीण उद्योगों की तुलना में नगरीय उद्योग अधिक संगठित थे और गुणवत्ता की दृष्टि से अधिक अच्छा माल तैयार करते थे।

कपड़ा उद्योग

भारतीय बुनकर नरम से नरम, महीन से महीन और मोटे से मोटा कपड़ा तैयार करने के लिये प्रसिद्ध थे। महीन कपड़े में मलमल सबसे विख्यात थी। इसके उत्पादन का मुख्य केन्द्र ढाका था। ढाका की मलमल विश्व भर में प्रसिद्ध थी। बीस गज लम्बे और एक गज चौड़े मलमल को एक अँगूठी में से निकाला जा सकता था। इस प्रकार की मलमल का थान तैयार करने में 6 माह लगते थे। आम उपयोग का कपड़ा गाँव-गाँव और शहर-शहर में बनाया जाता था परन्तु विशेष प्रकार का कपड़ा कुछ स्थानों पर ही तैयार होता था। इस प्रकार के केन्द्रों में ढाका, जहानाबाद (पटना के पास), बुलन्दशहर, सिकन्दराबाद, लखनऊ, बनारस, रायबरेली में जायस, फैजाबाद में पांडा, रामपुर, मुरादाबाद, कानपुर, प्रतापगढ़, शाहपुर, अलीपुर, मेरठ, आगरा, दिल्ली, रोहतक, ग्वालियर, चंदेरी, इन्दौर और दक्षिण भारत में आर्नी, हैदराबाद, रायचूर, सेलभ, तंजौर तथा मदुरा विशेष रूप से प्रसिद्ध थे। इन केन्द्रों पर विभिन्न डिजाइनों और किस्मों का अच्छा कपड़ा तैयार होता था। देश में कताई-बुनाई रंगाई, छपाई, सोना एवं चाँदी के धागों का निर्माण भी बड़े स्तर पर होता था।

रेशम वस्त्र उद्योग

भारत में बहुत कम रेशम पैदा होता था इसलिये रेशम का बाहर से आयात किया जाता था किंतु भारत में बना रेशम का कपड़ा पुनः बड़ी मात्रा में निर्यात किया जाता था। बनारस, आगरा, लाहौर, पाटियाला, अमृतसर, राजशाही, मुर्शीदाबाद, वीरभूमि, बर्दवान, बांकुड़ा और मिदनापुर रेशमी वस्त्र निर्माण के प्रसिद्ध केन्द्र थे। बनारस और आगरा वस्त्रों पर कढ़ाई के लिये तथा सबसे बढ़िया रेशमी वस्त्र के उत्पादन के लिये प्रसिद्ध थे। ऊनी वस्त्र उद्योग भी उन्नत अवस्था में था। पंजाब और राजस्थान में मोटे ऊनी कम्बल, गलीचे, रस्से आदि बनते थे। लाहौर, लुधियाना और अमृतसर में अनेक प्रकार की ऊनी वस्तुएँ- कम्बल, शॉल, कोट, मोजे, दस्ताने और सर्दियों में काम आने वाले अन्य कपड़े बनते थे। जयपुर, बीकानेर और जोधपुर के ऊनी कपड़े प्रसिद्ध थे।

लौह उद्योग

भारत का लौह उद्योग काफी उन्नत था। भारत के लुहार लोहे की गलाई और ढलाई के कार्य में निपुण थे। स्थान-स्थान पर शस्त्र निर्माण, तोप निर्माण, जहाज निर्माण एवं कृषि उपकरण निर्माण के उद्योग थे। भारत में लोहे से बनी सामग्री लंदन तक जाती थी। महाराष्ट्र, आंध्र और बंगाल में जहाज निर्माण उद्योग विकसित हुआ। यूरोपीय कम्पनियाँ अपने उपयोग के लिये भारत में बने जहाज खरीदती थी।

एक अंग्रेजी पर्यवेक्षक ने लिखा है- ‘जहाज निर्माण में भारतीयों ने अँग्रेजों से जितना सीखा, उससे अधिक उन्हें पढ़ाया।’

मिट्टी के बर्तन एवं मूर्तियाँ

भारत में मिट्टी के बर्तन, मूर्तियाँ और खिलौने बनाने का उद्योग भी विकसित था। बंगाल में खुलना, दिनाजपुर, रानीगंज; उत्तर प्रदेश में लखनऊ, रामपुर और अलीगढ़, दक्षिण में मद्रास, मदुरा और सेलम के कुम्हार विशेष किस्म के कलात्मक और मिट्टी के पक्के बर्तन बनाने में दक्ष थे।

विविध उद्योग

लगभग पूरे देश में भवन-निर्माण, पत्थर और लकड़ी की नक्काशी, ईंट और चूना बनाने, कागज बनाने, सोना-चाँदी तथा जवाहरात के आभूषण बनाने, चीनी, नमक एवं नील बनाने, तांबा, पीतल, काँसा आदि की वस्तुएँ एवं बर्तन बनाने के उद्योग विकसित अवस्था में थे। विभिन्न प्रकार के बीजों से तेल निकालने का काम बड़े स्तर पर होता था। बाँस और चमड़ा उद्योग भी लोकप्रिय था। बाँस से विभिन्न वस्तुएँ बनाने का काम कुछ जातियों का वंशानुगत व्यवसाय था।

निष्कर्ष

उपरोक्त तथ्यों के आधार पर कहा जा सकता है कि अँग्रेजों के भारत आगमन के समय, नौ सौ साल से चल ही विदेशी आक्रांताओं की लूट के उपरांत भी, बादशाहों, अमीरों, राजाओं तथा जागीरदारों की आर्थिक स्थिति बहुत अच्छी थी तथा उनके महलों में विलासिता के समस्त साधन उपलब्ध थे। देश में नहरों, कुओं तथा तालाबों की कमी के बावजूद वर्षा की मात्रा अच्छी होने से देश के अधिकांश भागों में खेती की जाती थी। घर-घर में कुटीर उद्योग विकसित थे जिनमें विपुल मात्रा में विविध प्रकार की सामग्री तैयार की जाती थी। विदेशी व्यापार उन्नत होने से शासकों को कर के रूप में अच्छी आय होती थी। आंतरिक एवं विदेशी व्यापार बहुत होता था। विदेशी व्यापार भारत के पक्ष में था। भारत के कुटीर उद्योग देश-वासियों की आवश्यकताओं को पूरी करने के साथ-साथ विदेशों को निर्यात किये जाने के लिये भी माल तैयार करते थे। सूती, ऊनी, रेशमी वस्त्र, शाल-दुशालें, चन्दन की वस्तुएँ, कागज, जूते, बक्से, चमड़ा, चीनी, नील, रंग, लकड़ी की वस्तुएँ, सोना-चाँदी के आभूषण, विलासिता की वस्तुएँ निर्यात की जाती थीं। इतना होने पर भी देश में जन साधारण की आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं थी। किसान हाड़तोड़ परिश्रम करके खेती करते थे। छोटे कारीगर हाथ से सामग्री का उत्पादन करते थे। इस उत्पादन के लाभ का अधिक हिस्सा कर के रूप में शासक और मुनाफे के रूप में बड़े व्यापारी लूट लेते थे। भू-राजस्व कर के साथ-साथ चुंगी एवं स्थानीय करों की अधिकता थी। इस कारण बादशाह, सूबेदार, राजा एवं जागीरदारों के पास काफी धन एकत्र हो जाता था किंतु जन साधारण अभावों एवं कष्टों से बिलबिला रहा था। पूरा परिवार हर समय किसी न किसी काम में लगा रहता था फिर भी दो समय की रोटी का प्रबंध करना कठिन था।

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