सूर स्थापत्य अपने पूर्ववर्ती तुर्क शासकों एवं पश्चवर्ती मुगलशासकों से कई प्रकार से अलग था। य़़द्यपि भारत में सूर स्थापत्य के अधिक उदाहरण देखने को नहीं मिलते तथापि वे अपनी शैलीगत विशेषताओं के कारण अलग से ही पहचाने जाते हैं।
शेरशाह सूरी का का वास्तविक नाम शेर खाँ था। उसका उत्कर्ष ई.1520 से 1525 के बीच हुआ। ई.1520 में उसने अपने पिता की छोटी सी जागीर पर अधिकार किया तथा ई.1525 में वह बिहार का स्वतंत्र शासक बन बैठा। उसने बंगाल के शासक से कई बार कर वसूल किया तथा चुनार के दुर्ग पर अधिकार कर लिया। चुनार दुर्ग से उसे अपार धन प्राप्त हुआ। इससे उसकी शक्ति बढ़ गई।
ई.1539 में मुगल बादशाह हुमायूँ ने शेरशाह पर आक्रमण किया तो शेरशाह ने न केवल उसे परास्त कर दिया अपितु उसे भारत से निष्कासित करके दिल्ली एवं आगरा सहित सम्पूर्ण मुगल सल्तनत पर अधिकार जमा लिया। शेरशाह ई.1540 से ई.1545 तक ही शासन कर पाया था कि 22 मई 1545 को कालिंजर दुर्ग पर चढ़ाई के दौरान अपनी ही तोप का गोला फट जाने से उसकी मृत्यु हो गई।
उसके बाद इस्लामशाह, महमूदशाह आदिल, इब्राहीम खाँ सूरी तथा सिकंदरशाह सूरी ने ई.1555 तक भारत पर शासन किया किंतु ई.1555 में हुमायूँ लौट आया और उसने सूर वंश का शासन समाप्त करके भारत का खोया हुआ राज्य पुनः प्राप्त कर लिया।
सूर स्थापत्य
सूर स्थापत्य को मोटे तौर पर दो कालों में विभक्त किया जा सकता है- पहला कालखण्ड ई.1530-40 के बीच का है जिसका केन्द्र सहसराम (बिहार) था जहाँ शाही परिवार के लोगों के लिए लोदी शैली के मकबरों का निर्माण करवाया गया। दूसरा चरण ई.1540-45 के मध्य माना जा सकता है।
इस काल में शेरशाह के संरक्षण में दिल्ली से लेकर बिहार तक कई इमारतों का निर्माण हुआ। इस दौरान वास्तुकला के क्षेत्र में कई प्रयोग किए गए जिन्हें बाद में मुगल शैली में समाहित किया गया और जिससे मुगल शैली परिपक्व हुई।
सहसराम के मकबरे
सहसराम का मकबरा सूर स्थापत्य का सर्वश्रेष्ठ उदाहरण माना जाता है। सहसराम (सासाराम) के शाही मकबरों का शिल्पी अलीवल खाँ था। ये भवन शेरशाह की उच्च महत्वाकांक्षा को प्रदर्शित करते हैं। शेरशाह इनके माध्यम से दिल्ली के मकबरों की तुलना में अधिक वैभवशाली उदाहरण प्रदर्शित करना चाहता था। सहसराम में स्थित शेरशाह के मकबरे के बारे में विद्वानों का मत है कि ‘यह मकबरा तुगलक कालीन इमारतों के गाम्भीर्य और शाहजहाँ की महान कृति ताजमहल के स्त्रियोचित सौन्दर्य के सम्पर्क का एक बेहतर माध्यम है।’
दिल्ली का पुराना किला (शेरगढ़)
ई.1542 में शेरशाह ने दिल्ली नगर के छठे शहर के रूप में शेरगढ़ का निर्माण करवाया जिसे अब पुराना किला कहा जाता है। दिल्ली के पुराने किले को भी सूर स्थापत्य का उत्कृष्ट नमूना माना जाता है किंतु इसके अधिकांश निर्माण शेरशाह से पहले एवं बाद में हुए थे। अब इसके केवल दो द्वार ‘लाल दरवाजा’ एवं ‘खूनी दरवाजा’ ही शेष बचे हैं। उसने इस किले का निर्माण हुमायूँ द्वारा बनाए गए ‘दीनपनाह’ नामक शहर के चारों ओर करवाया था। शेरशाह ने इस किले के भीतर स्थित पुराने भवन तुड़वाकर, उनके स्थान पर कुछ नवीन भवनों का निर्माण करवाया। अधिकांश निर्माण पुराने भवनों की सामग्री से ही करवाया गया।
वस्तुतः हुमायूँ द्वारा निर्मित ‘दीनपनाह’ तथा शेरशाह द्वारा निर्मित पुराना किला, पाण्डवों द्वारा निर्मित ‘इन्द्रप्रस्थ नगर’ के ध्वंसावेशेषों पर बनाए गए थे। इसलिए इन्हें सूर स्थापत्य का उत्कृष्ट नमूना नहीं माना जा सकता। इस दुर्ग के भीतर से ईसा से 1000 वर्ष पुरानी मुद्राएं, मूर्तियां, बर्तन एवं सामग्री मिली हैं। कुछ सामग्री मौर्य कालीन एवं गुप्त कालीन भी है जिन्हें इसी परिसर में बने संग्रहालय में रखा गया है।
किला-ए-कोहना मस्जिद
कुछ इतिहासकारों के अनुसार इस मस्जिद को हुमायूँ ने बनवाना आरम्भ किया था क्योंकि इस मस्जिद के नुकीले मेहराब मुगल स्थापत्य की निशानी हैं न कि शेरशाह के स्थापत्य की। हुमायूँ ने ही लिवान तथा मेहराब पर पीट्रा ड्यूरा कार्य को मुगल स्थापत्य में शामिल किया था। बाद में शेरशाह ने इसका ऊपरी भाग पूरा करवाया जिसमें मस्जिद के ऊपर का डोम भी सम्मिलित है। उसने इस मस्जिद को ‘मण्डलीय’ अफगानी शैली का विधान प्रदान किया। इसके बाहरी भाग पर लगे संगमरमर का काम अकबर के समय में पूरा हुआ होना संभावित है क्योंकि संगमरमर पर ज्यातिमितीय रचनाओं का अंकन किया गया है। इस प्रकार का ज्यामितीय अंकन अकबर के समय में ही शुरु हुआ था।
इस मस्जिद को ‘फाइव बे मौस्क’ शैली में बनाया गया है इस शैली की अवधारणा मुगलों के पूर्ववर्ती सैयदों तथा लोदियों के काल में बनी मस्जिदों में दिखाई देती है। मुख्य कक्ष का आगे का भाग पाँच झुके हुए कोष्ठकों में विभक्त है। मध्य का कक्ष दूसरों की अपेक्षा बड़ा है और सभी में खुले झिर्रीनुमा मेहराब बने हुए हैं।
केन्द्रीय मेहराब के पार्श्व में संकीर्ण, लम्बी धारियों से युक्त भित्ति-स्तम्भ बने हुए हैं। मस्जिद की मेहराबों की गोलाई में ऊपर की ओर बढ़ते हुए हल्का झुकाव या समतलपन दृष्टिगोचर होता है। यह मुगलों के चतुर-केन्द्रित-ट्यूडर-आर्च के विकास की पूर्वपीठिका है। मस्जिद के प्रवेश द्वार और गुम्बद के चारों ओर की मीनारें ईरानी प्रभाव लिये हुए हैं। इमारत का शेष भाग भारतीय शैली में निर्मित है। इस मस्जिद की लम्बाई 167 फुट, चौड़ाई 44 फुट एवं डोम सहित ऊँचाई 66 फुट है। इस मस्जिद में कोई शिलालेख नहीं है।
शेरशाह ने शेरगढ़ (पुराना किला) के अंदर ‘किला-ए-कोहना मस्जिद’ बनवाई जो किले की भीतर ‘शेरमण्डल’ के निकट स्थित है। अब्बास सरवनी द्वारा लिखित ‘तारीखे शेरशाही’ के अनुसार शेरशाह ने इस मस्जिद का निर्माण ई.1540 में करवाया। इस मस्जिद के निर्माण में पत्थरों के टुकड़ों को चूना-गारे में चिना गया है।
दीवारों के बाहरी भागों, दालानों आदि में लाल बलुआ पत्थर, क्वार्ट्जाइट एवं संगमरमर के टुकड़ों का उपयोग किया गया है। इसके भीतरी भाग में स्वर्ण; तथा अफगानिस्तान से प्राप्त होने वाले अर्द्ध-मूल्यवान नीले रंग के पत्थर लाजवर्त (Lapis lazuli) का भी प्रयोग किया गया है। मस्जिद के सामने वाले भाग में सफेद संगमरमर तथा लाल बलुआ पत्थर का उपयोग किया गया है।
इसके पीछे यह तर्क दिया जाता है कि संभवतः पूरे भवन के बाहरी हिस्से में संगमरमर का उपयोग करने की योजना थी किंतु संगमरमर की आपूर्ति मिलने में कठिनाई होने से शेष बचे हुए भाग में लाल बलुआ पत्थर लगा दिया गया।
रोहतास दुर्ग
रोहतासगढ़ दुर्ग या रोहतास दुर्ग, बिहार के रोहतास जिले में स्थित एक प्राचीन दुर्ग है। यह भारत के सबसे प्राचीन दुर्गों में से एक है। यह जिला मुख्यालय सासाराम से लगभग 55 और डेहरी आन सोन से 43 किलोमीटर की दूरी पर सोन नदी के बहाव वाली दिशा में पहाड़ी पर स्थित है।
माना जाता है कि इस प्राचीन दुर्ग का निर्माण त्रेता युग में अयोध्या के सूर्यवंशी राजा त्रिशंकु के पौत्र व राजा हरिश्चंद्र के पुत्र रोहिताश्व ने कराया था। रोहतास गढ़ का किला काफी भव्य है। किले का घेरा 45 किमी तक विस्तृत है। इसमें कुल 83 दरवाजे हैं जिनमें से चार मुख्य दरवाजे घोड़ाघाट, राजघाट, कठौतिया घाट एव मेढ़ा घाट कहलाते हैं।
दुर्ग के मुख्यप्रवेश द्वार पर निर्मित हाथी, दरवाजों के बुर्ज तथा दीवारों पर बनाए गए भित्तिचित्र अद्भुत हैं। दुर्ग परिसर में अनेक भवन हैं जिनमें रंगमहल, शीश महल, पंचमहल, खूंटा महल, आइना महल, रानी का झरोखा तथा मानसिंह की कचहरी प्रमुख हैं।
ई.1539 में जब हूँमायूँ ने शेरशाह सूरी पर आक्रमण करने का निश्चय किया तब यह दुर्ग सूर्यवंशी खरवार राजा के अधिकार में था। शेरशाह ने खरवार राजा से अनुरोध किया कि मेरे परिवार को कुछ समय के लिए रोहतास दुर्ग में रहने दिया जाए। खरवार राजा ने शेरशाह का अनुरोध स्वीकार कर लिया और शेरशाह से कहा कि दुर्ग में केवल स्त्रियों को ही प्रवेश दिया जाएगा।
शेरशाह ने अपने हरम की औरतों की कई सौ डोलिया रोहतास दूर्ग के भीतर भेज दीं। पिछली डोली मे स्वयम् शेरशाह बैठ गया। आगे की डोलियां जब रोहतास दुर्ग में पहुंची तो उनकी तलाशी ली गई। डोलियों में कुछ बूढी औरतें बैठी थीं। इसी बीच अन्य डोलीयो से सशस्त्र सैनिक कूदकर बाहर आ गए। उन्होंने दुर्ग रक्षकों की हत्या कर दी।
इसी बीच शेरशाह भी दुर्ग मे प्रवेश कर गया और उसने दुर्ग पर अधिकार कर लिया। दुर्ग अधिकार में आ जाने के बाद शेरशाह ने अपने मंत्री टोडरमल खत्री के निरीक्षण में इसका जीर्णोद्धार करवाया तथा इसके चारों ओर का परकोटा मजबूत करवाया। हूमायूँ से लड़ने के लिए शेरशाह ने इस दुर्ग में युद्ध एवं रसद सामग्री जमा करवाई। ई.1857 में अमरसिंह ने इसी दुर्ग से अंग्रेजों के खिलाफ विद्रोह किया था। रोहतास दुर्ग को सूर स्थापत्य के अंतर्गत रखा जाता है किंतु वस्तुतः इस दुर्ग में कुछ निर्माण ही सूरी वंश के काल में हुए थे।
शेरशाह का मकबरा, सहसराम
सूरी काल में निर्मित मिश्रित स्थापत्य कला का दूसरा नमूना सहसराम (बिहार) में झील के बीच ऊँची कुर्सी पर बना शेरशाह का मकबरा है जिसे स्वयं शेरशाह ने बनवाया था। यह एक पिरामिडीय रचना है तथा शेरशाह के काल में बने समस्त मकबरों से अधिक बड़ी है। इसके मुख्य भवन में अष्टकोणीय कक्ष है जो कि विस्तृत निचले गुम्बद से आच्छादित है।
क्रमशः न्यूनतम अवस्थाओं का उपयोग ओर चतुर्भुज से अष्टकोण और फिर गोलाकार पद्धति पर आना भारतीय स्थापत्य की सुव्यवस्था का प्रमाण है। इसकी आकृति मुस्लिम है किन्तु इसके भीतर तोड़ों तथा हिन्दू शैली के स्तम्भों का सुन्दर प्रयोग किया गया है। इस मकबरे की बहुत सी विशेषताएं, बाद में बने आगरा के ताजमहल में दिखाई देती हैं।
विद्वानों का मत है कि यह मकबरा तुगलक काल की इमारतों के गाम्भीर्य और शाहजहाँ की महान् कृति ताजमहल के स्त्रियोचित सौन्दर्य के बीच सम्पर्क स्थापित करता है। पर्सी ब्राउन तथा स्मिथ ने इस इमारत की बड़ी प्रशंसा की है।
ईसा खाँ नियाज़ी का मकबरा, दिल्ली
हुमायूँ के मकबरे के पश्चिमी प्रवेश द्वार के रास्ते में कई अन्य स्मारक बने हैं। इनमें से प्रमुख स्मारक ईसा खाँ नियाज़ी का मकबरा है, जो मुख्य मकबरे से 20 वर्ष पूर्व अर्थात् ई.1547 में बना था। ईसा खाँ नियाज़ी, शेरशाह सूरी का अफ़्गानी सरदार था तथा वह मुगलों के विरुद्ध लड़ा था।
इस मकबरे का निर्माण सूर सल्तनत के काल में तथा ईसा खाँ के सामने ही हुआ था और उसके बाद उसके पूरे परिवार के लिये काम आया था। यह अष्टकोणीय मकबरा सूर वंश के लोदी मकबरे के परिसर में स्थित अन्य मकबरों से बहुत मेल खाता है। मकबरे के पश्चिम में तीन आंगन चौड़ी लाल बलुआ पत्थर की एक मस्जिद है।
अलावल खाँ का मकबरा
सासाराम के दक्षिणी भाग में स्थित सूरी वंश के वास्तुशिल्पी एवं पाँच सौ सवारों के सेनापति अलावल खाँ का मकबरा स्थित है। यह खुला मकबरा ऊँची चहारदीवारी से घिरा हुआ है। मकबरे की पूर्वी दीवार में बड़ा मेहराबदार दरवाजा बना हुआ है। दरवाजे के भीतर एक सौ तीन वर्गफुट का वर्गाकार आंगन है।
आंगन के चारों कोनों पर चार वर्गाकार कक्ष बने हुए हैं। इनमें से उत्तरी-पूर्वी कक्ष दो मंजिला है। आंगन के बीच तीन कब्रें स्थित हैं। पश्चिमी दीवार में मेहराबदार अलंकुत मिम्बर बना है। बिहार सरकार ने इस मकबरे को संरक्षित स्मारक घोषित किया है।
शेरशाह सूरी के अन्य निर्माण
शेरशाह ने अपने राज्य में यातायात को सुचारू बनाने के लिये कई उपाय किये। उसने कई सड़कों तथा सरायों का निर्माण करवाया तथा राज्य के प्रमुख स्थानों को सड़कों से जोड़ा। कहा जाता है कि वर्तमान ग्राण्ड ट्रंक रोड का निर्माण शेरशाह ने करवाया था जो ढाका से लाहौर तक जाती थी। वस्तुतः यह सड़क महाभारत काल में भी मौजूद थी।
प्राचीन संस्कृत और प्राकृत ग्रंथों में उत्तरपथ और दक्षिणपथ का विपुलता से उल्लेख हुआ है। दक्षिणपथ उत्तर भारत से तमिलनाडु तक जाता था। गौतम बुद्ध के प्रथम उपदेश का स्थान सारनाथ, उत्तरपथ एवं दक्षिणपथ के संगम पर स्थित था। शेरशाह सूरी ने इसी मार्ग को सुधरवाकर उसे मजबूती प्रदान की होगी।
शेरशाह के राज्य में दूसरी प्रमुख सड़क आगरा से बुरहानपुर तक, तीसरी आगरा से बयाना होती हुई मरुप्रदेश की सीमा तक, चौथी मुल्तान से लाहौर तक और पाँचवी आगरा से जोधपुर तथा चितौड़ तक जाती थी। अन्य कई सड़कें भी शेरशाह के समय में मौजूद थीं जो विभिन्न नगरों को जोड़ती थीं। सड़कों के किनारे छायादार पेड़ लगवाये गये और कुएँ खुदवाये गये।
शेरशाह ने प्रमुख सड़कों के किनारे चार-चार मील की दूरी पर सरायें बनवाईं जिनमें हिन्दू तथा मुसलमान यात्रियों के ठहरने की व्यवस्था रहती थी। यात्रियों के लिए गर्म तथा ठण्डे जल, बिस्तर, भोजन आदि का प्रबन्ध रहता था।
घोड़ों तथा पशुओं के लिए घास एवं दाने का प्रबन्ध रहता था। समकालीन उल्लेखों के अनुसार शेरशाह ने लगभग 1700 सरायों का निर्माण तथा जीर्णोद्धार करवाया। हालांकि यह संख्या गलत जान पड़ती है क्योंकि उसे ई.1540 से 1545 तक केवल 5 साल का ही समय मिला था।
सड़कों के किनारे पर स्थित होने से ये सरायें डाक-चौकियों का काम देती थीं। इन सरायों में डाक ले जाने वाले हरकारे विद्यमान रहते थे। शेरशाह ने कई मदरसे और मस्जिदें बनवाईं तथा उनके संचालन के लिए वित्तीय व्यवस्था भी की। वह पुराने मदरसों तथा मस्जिदों को भी दान देता था। उसके राज्य में अनेक स्थानों पर दानशालाएँ खोली गईं और भोजनालय बनाये गये जहाँ निःशुल्क भोजन बँटता था।
सलीमगढ़ दुर्ग, दिल्ली
पुरानी दिल्ली में स्थित सलीमगढ़ किला ठोस गारे की चिनाई वाली दीवारों से घिरा हुआ है और बहुभुजी आकृति में निर्मित है। ई.1546 में शेरशाह सूरी के पुत्र सलीमशाह सूरी ने हुमायूँ के आक्रमणों को रोकने के लिए यमुना नदी में स्थित एक छोटे से द्वीप पर इस दुर्ग का निर्माण करवाया था। यह किला सूर स्थापत्य का महत्वपूर्ण उदाहरण है।
ई.1622 में जहाँगीर ने यहाँ पुल बनवाया और किले को मुख्य भूमि से जोड़ा। शाहजहाँ ने सलीमगढ़ के दक्षिण में लाल किले का निर्माण करवाया तथा सलीम गढ़ को लाल किले से जोड़ दिया। औरंगजेब के शासनकाल में यह किला जेल के रूप में काम लिया जाने लगा।
औरंगजेब के विद्रोही शाहज़ादे अकबर के साथ गुप्त पत्र व्यवहार करने के कारण शहजादी जेबुन्निसा को ई.1691 में सलीमगढ़ के किले में बंद किया गया। ई.1702 में इसी दुर्ग में उसकी मृत्यु हुई। शाहज़ादे मुराद बख्श को भी सलीमगढ़ के दुर्ग में बन्दी बनाकर रखा गया।
वर्तमान समय में इस दुर्ग में जाने के लिए उत्तरी द्वार से प्रवेश दिया जाता है। उत्तरी द्वार को बहादुरशाही गेट के नाम से जाना जाता है, क्योंकि इसका निर्माण ई.1854-55 में अंतिम मुगल बादशाह बहादुर शाह ज़फर ने करवाया था। इस द्वार का निर्माण लाल पत्थरों एवं ईटों की चिनाई से किया गया है।
उन्नीसवीं सदी में जब ब्रिटिश इंजीनियरों ने रेल्वे लाइन का निर्माण किया तब उन्होंने जहाँगीर द्वारा निर्मित पुल को तोड़ दिया। ब्रिटिश सरकार भी सलीमगढ़ का उपयोग कारावास के रूप में कती रही। ई.1945 में भारतीय राष्ट्रीय सेना के नेताओ को यहाँ बंदी बनाकर रखा गया। किले के भीतर अनेक स्मारक हैं। वर्तमान समय में किले का नाम बदलकर स्वतंत्रता सेनानी स्मारक रखा गया है।
-डॉ. मोहनलाल गुप्ता