हुमायूँ ने मुल्ला-मौलवियों को इस बात पर राजी कर लिया कि मिर्जा कामरान की आंखें फोड़ दी जाएं तथा उसके प्राण बक्श दिए जाएं। हुमायूँ ने अपने दरबारियों को आदेश दिया कि मुल्ला-मौलवियों के आदेश की पालना की जाए। इए पर अली दोस्त बारवेगी आदि कुछ लोगों को कामरान की आंखें फोड़ने का काम सौंपा गया।
जब अली दोस्त बारवेगी, सईद मुहम्मद पकना, गुलाम अली और शश अगुश्त कामरान की आंखें फोड़ने के लिए उसके डेरे में घुसे तो कामरान उन लोगों को मुक्कों से मारने लगा। अली दोस्त ने कामरान से कहा कि आप इतना क्रोध क्यों कर रहे हैं? आपने भी सईद अली तथा अनेक निर्दोष लोगों की आंखें फुड़वाई हैं! आज आपकी जो स्थिति होने जा रही है, उसके लिए आप स्वयं जिम्मेदार हैं!
अली दोस्त के आदेश से उसके सहायकों ने कामरान को पकड़ लिया। अली दोस्त ने कामरान की आंखों में नश्तर चलाया। अली दोस्त ने कामरान की दोनों आंखों में कई बार नश्तर घुमाया ताकि उसकी आंखों में जरा सी भी रौशनी न रह जाए। इस बात से यह अनुमान सहज ही लगाया जा सकता है कि हुमायूँ के अधिकारियों में कामरान के विरुद्ध कितना गुस्सा भरा हुआ था! गुलबदन बेगम ने भी कामरान की आंखें फुड़वाने का प्रकरण लिखा है जिसमें यही सब बातें कही गई हैं।
हुमायूँ द्वारा कामरान की आंखें फुड़वाने की घटना नवम्बर 1553 में हुई थी। मुगल शहजादों की आंखें फुड़वाने का जो सिलसिला कामरान की आंखें फोड़कर शुरु किया गया, वह ई.1788 में बादशाह शाहआलम (द्वितीय) की आंखें फुड़वाए जाने तक चलता रहा। अब बाबर के चार पुत्रों में से सबसे छोटा, हिन्दाल मारा जा चुका था, हिंदाल से बड़े मिर्जा अस्करी को मक्का भेजा जा चुका था और अस्करी से बड़े कामरान को अंधा किया जा चुका था। इस प्रकार हुमायूँ के भाइयों में एक भी हुमायूँ का विरोध करने की स्थिति में नहीं रह गया था।
जब हुमायूँ को बताया गया कि शाही आदेशों की पालना कर दी गई है तथा मिर्जा कामरान की आंखों में नश्तर चला दिया गया है तो हुमायूँ को बहुत कष्ट हुआ। उसी दिन मिर्जा कामरान ने बादशाह की सेवा में मुनीम खाँ को भेज कर निवेदन किया कि बेग मुलुक को मेरी सेवा में नियुक्त किया जाए। बादशाह ने मिर्जा कामरान का यह अनुरोध स्वीकार कर लिया।
इस घटना के कुछ दिन बाद बादशाह ने जानूहा नामक अफगान कबीले के विरुद्ध सैनिक अभियान किया। इस अभियान में हुमायूँ का फूफा महदी ख्वाजा मारा गया। पाठकों को स्मरण होगा कि यह वही महदी ख्वाजा था जिसने भारत विजय के समय बाबर की बहुत सहायता की थी तथा खानवा के युद्ध के बाद वह बाबर को नाराज करके अफगानिस्तान आ गया था। अबुल फजल ने लिखा है कि इस युद्ध में हुमायूँ के कई अन्य अमीर भी मारे गए।
यहाँ से हुमायूँ काश्मीर विजय के लिए जाना चाहता था किंतु उसके अमीर इस अभियान के लिए तैयार नहीं हुए। इस कारण हुमायूँ वहीं से काबुल के लिए लौट पड़ा। जब हुमायूँ का डेरा सिंधु नदी के किनारे लगा हुआ था तब मिर्जा कामरान ने हुमायूँ को एक प्रार्थना पत्र भिजवाया कि मुझे हजाज जाने की अनुमति दी जाए। हुमायूँ ने कामरान की प्रार्थना स्वीकार कर ली।
जिस दिन कामरान हजाज के लिए रवाना होने लगा तो हुमायूँ ने मिर्जा कामरान से कहलवाया कि मैं इस शर्त पर तुम्हें विदा करने के लिए आना चाहता हूँ कि तुम मुझे देखकर रोओगे नहीं। जब कामरान ने हुमायूँ की इस शर्त को मान लिया तो हुमायूँ कामरान के डेरे पर उपस्थित हुआ तथा उसने कामरान को भावभीनी विदाई दी।
हुमायूँ ने कामरान से कहा कि प्रत्येक व्यक्ति के मन की गुप्त बातें जानने वाले अल्लाह को पता है कि तुम्हारी आंखें फुड़वाकर मैं कितना लज्जित हूँ! यह कार्य मेरी इच्छा से नहीं हुआ है। अच्छा होता कि तुम ऐसा ही दण्ड मुझे देते।
हुमायूँ की यह बात सुनकर मिर्जा को भी अपने कृत्यों पर बड़ी लज्जा आई तथा उसने हाजी यूसुफ से पूछा कि यहाँ कौन-कौन विद्यमान है। हाजी यूसुफ ने कामरान को उन लोगों के नाम बताए जो बादशाह हुमायूँ के साथ कामरान के डेरे पर आए थे। कामरान ने हुमायूँ के साथ आए अधिकारियों के नाम लेकर कहा कि दोस्तो! मैं वध किए जाने के योग्य था किंतु बादशाह ने मुझे प्राणदान देकर हज्जाज जाने की अनुमति दी है। मैं बादशाह को हजार बार धन्यवाद देता हूँ।
इसके बाद कामरान ने बादशाह से कहा कि वह मेरे बच्चों का ध्यान रखे। हुमायूँ ने कामरान को वचन दिया कि वह हर हाल में कामरान के बच्चों का ध्यान रखेगा। इसके बाद हुमायूँ ने कामरान के डेरे से प्रस्थान किया। चूंकि कामरान ने हुमायूँ को वचन दिया था कि वह हुमायूँ के सामने नहीं रोएगा, इसलिए कामरान ने धैर्य रखा किंतु हुमायूँ के जाते ही कामरान बच्चों की तरह फूट-फूट कर रोया।
हुमायूँ ने अपने डेरे पर आकर अपने तथा मिर्जा कामरान के सेवकों को आदेश दिया कि जो कोई भी कामरान के साथ जाना चाहे, जा सकता है। बादशाह की यह बात सुनकर हुमायूँ तथा कामरान के सेवक चुप खड़े रहे, उनमें से कोई भी व्यक्ति भाग्यहीन शहजादे कामरान के साथ नहीं जाना चाहता था। यह देखकर हुमायूँ के एक विश्वस्त सेवक को कामरान पर दया आई तथा उसने कामरान के साथ जाने का निश्चय किया। हुमायूँ ने अपने इस सेवक को कुछ दिनों से कामरान को भोजन परोसने के काम पर लगा रखा था। बादशाह ने उसे मिर्जा के साथ जाने की अनुमति दे दी तथा कामरान की यात्रा का सम्पूर्ण खर्च भी उसी को दे दिया।
बेग मलूम मिर्जा कामरान का घनिष्ठ सेवक था, उसे भी कामरान पर दया आ गई तथा वह भी कामरान के साथ चलने का तैयार हो गया। उसे भी अनुमति दे दी गई किंतु वह दो-चार मंजिल जाकर वापस हुमायूँ की सेवा में लौट आया। इस प्रकार मिर्जा कामरान केवल अपनी एक बेगम तथा एक अनुचर के साथ अपने बाप का राज्य छोड़कर हज के लिए चला गया।
अब कामरान को अपना शेष जीवन इन्हीं दो मनुष्यों, फूटी हुई दो आंखों और रूठी हुई किस्मत के सहारे काटना था किंतु कुदरत ने कामरान के जीवन में अधिक दिनों के लिए दुःख की गाथा नहीं लिखी थी। 5 अक्टूबर 1557 को मक्का में ही उसकी मृत्यु हो गई। उसकी बेगम तथा उसके सेवक का क्या हुआ, इस सम्बन्ध में कोई इतिहास नहीं मिलता।
– डॉ. मोहनलाल गुप्ता