जिस समय कामरान काबुल के किले में हुमायूँ के परिवार एवं पक्ष के लोगों पर अत्याचार कर रहा था, उस समय हुमायूँ किशम के किले मे अचेत पड़ा था। हुमायूँ इस अभियान पर अपने सौतेले भाई मिर्जा अस्करी को भी अपने साथ लाया था किंतु जब मिर्जा अस्करी ने देखा कि हुमायूँ बेहोश पड़ा है तो उसने फिर से बगावत कर दी तथा मिर्जा कामरान और मिर्जा सुलेमान को हुमायूँ के बीमार होने की सूचना भेज दी। हुमायूँ के स्वामिभक्त सेवक कराचः खाँ ने संकट की इस घड़ी में फिर वीरता का परिचय दिया तथा मिर्जा अस्करी को अपने डेरे में कैद कर लिया।
लगभग दो माह बाद हुमायूँ बिल्कुल ठीक हो गया। उसे बताया गया कि मिर्जा अस्करी ने बगावत की थी इसलिए कराचः खाँ ने उसे कैद कर लिया गया है। मिर्जा कामरान ने भी बादशाह की बीमारी का समाचार सुनकर कांधार पर हमला किया था किंतु बैरम खाँ ने उसका प्रयास निष्फल कर दिया। अब कामरान काबुल पर अधिकार करके बैठा है। वह शाही परिवार की औरतों, मित्रों तथा बादशाह के विश्वस्त अमीरों एवं बेगों के परिवारों पर जुल्म ढा रहा है।
इन समाचारों को सुनकर हुमायूँ के आश्चर्य का पार नहीं रहा। हुमायूँ के पिता ने हुमायूँ को मरते दम तक यह हिदायत दी थी कि हुमायूँ सबसे बड़ा है इसलिए वह अपने भाइयों पर कृपा करे। चाहे वे कितनी ही गलती क्यों न करे, वह सहन करे और उन्हें क्षमा करे।
हुमायूँ ने जीवन भर अपने पिता की इस आज्ञा का पालन किया था किंतु उसके भाई समस्त मर्यादाओं को ताक पर रखकर सारी सीमाएं लांघते जा रहे थे। अपने भाइयों की गद्दारी के कारण ही हुमायूँ को भारत का राज्य खोना पड़ा था और अब उसके भाई हुमायूँ को अफगानिस्तान में भी पैर नहीं टिकाने दे रहे थे।
हुमायूँ किशम से काबुल के लिए कूच करके मनार पहुंच गया। गुलबदन बेगम ने लिखा है कि जब कामरान को ज्ञात हुआ कि हुमायूँ आ रहा है तब कामरान ने शिरोया के पिता शेर अफगन को अपनी सेना देकर हुमायूँ से युद्ध करने भेजा। शेर अफगन डंका बजाता हुआ चल दिया। अस्करी के मकान में बंद हुमायूँ के हरम की औरतों ने मकान की छत पर चढ़कर इस सेना को हुमायूँ के विरुद्ध प्रयाण करते हुए देखा तो वे रोने लगीं और कामरान को बद्दुआएं देने लगीं।
डीहे अफगाना नामक स्थान पर हुमायूँ तथा शेर अफगन की सेनाओं के बीच घमासान हुआ। इस युद्ध में शेर अफगन की सेना हार गई। कामरान के पक्ष के बहुत से अमीर जीवित ही पकड़ लिए गए। जब उन्हें जंजीरों में बांधकर हुमायूँ के समक्ष उपस्थित किया गया तो हुमायूँ ने आदेश दिए कि इन बागी मुगलों के टुकड़े-टुकड़े कर दिए जाएं। हुमायूँ के आदेश की पालना की गई। कामरान का एक प्रमुख अमीर जोकी खाँ भी पकड़ा गया था। हुमायूँ ने उसे कैद में रखने के आदेश दिए।
इसके बाद बादशाह अपनी जीत के धौंसे बजाता हुआ उकाबैन तक आ गया। यह काबुल के किले के बाहर एक ऊंचा स्थान था जहाँ अपराधियों को बांधकर रखा जाता था। यहाँ से काबुल के किले के भीतर का दृश्य स्पष्ट दिखाई देता था। हुमायूँ ने इसी स्थान पर मोर्चा बांधा तथा काबुल का दुर्ग घेर लिया। काबुल नगर इसी दुर्ग के भीतर बसा हुआ था। सात महीने तक घेरेबंदी चलती रही। इस समय मिर्जा कामरान काबुल के मुख्य महल में आ गया था जिसमें कभी बाबर और बाद में हुमायूँ रहा करता था।
इसे बाला हिसार कहते थे। गुलबदन बेगम ने लिखा है कि एक दिन मिर्जा कामरान बाला हिसार में अपने निवास से निकल कर बाहर आंगन में आ गया और उसे उकाबैन पर खड़े हुमायूँ के किसी सैनिक ने देख लिया। उस सैनिक ने कामरान पर गोली चलाई। कामरान तत्काल भागकर ओट में हो गया। कुछ लेखकों के अनुसार हुमायूँ ने कामरान के निवास के सामने तोपें लगवाईं।
इस पर कामरान ने अपने सैनिकों को आदेश दिए कि वे हुमायूँ के पुत्र मुहम्मद अकबर को लाकर हुमायूँ की सेना द्वारा तैनात तोपों के सामने लटकाएं। इस पर पांच वर्ष के बालक अकबर को काबुल के किले की दीवार पर रस्सियों से लटका दिया गया। गुलबदन ने लिखा है कि शाही सैनिकों ने बालक अकबर को पहचान लिया तथा इसकी सूचना हुमायूँ को दी। हुमायूँ ने सैनिकों को आदेश दिए कि वे बाला हिसार पर गोलाबारी बंद कर दें।
इसके बाद हुमायूँ की तरफ से गोलाबारी बंद हो गई किंतु कामरान के सैनिक उकाबैन पर नियुक्त हुमायूँ की सेना पर गोले चलाते रहे। इस पर हुमायूँ की सेना ने मिर्जा अस्करी को उनके सामने लाकर खड़ा कर दिया और उसको अपमानित करने लगे। मिर्जा अस्करी हुमायूँ का सौतेला भाई और मिर्जा कामरान का सगा भाई था।
यह एक विचित्र दृश्य था। इस दृश्य की मुगलों ने कभी कल्पना तक नहीं की होगी। एक तरफ तो बाबर के एक बेटे ने बाबर के दूसरे बेटे को तोपों के सामने ला खड़ा किया था तो दूसरी ओर बाबर के तीसरे बेटे ने बाबर के पोते को तोपों के सामने बांध रखा था। ऐसा मुगलों के इतिहास में उससे पहले या बाद में फिर कभी नहीं सुना गया।
गुलबदन बेगम ने लिखा है कि इसके बाद तोपों और बंदूकों का प्रयोग बंद हो गया तथा दोनों ओर के मनुष्य अपने-अपने क्षेत्र से बाहर आकर युद्ध करने लगे जिससे बहुत से मनुष्य मारे जाने लगे। चूंकि हुमायूँ की संतानें, स्त्रियां और प्रजा काबुल दुर्ग में बंद थी इसलिए हुमायूँ तो वैसे भी तोपों और बंदूकों का प्रयोग नहीं करना चाहता था।
शेर अफगन प्रतिदिन काबुल के दुर्ग से निकलता और हुमायूँ के सैनिकों को मारकर पुनः किले में लौट जाता। एक दिन शेर अफगान ने हुमायूँ के एक प्रमुख योद्धा हाजी खाँ को मार डाला। इस पर कराचः खाँ ने हुमायूँ से आज्ञा मांगी कि वह शेर अफगन से युद्ध करके उसे मारना चाहता है। हुमायूँ ने कराचः खाँ को इसकी अनुमति दे दी।
अगले दिन जब शेर अफगन काबुल के किले से बाहर निकला तो कराचः खाँ पहले से ही तैयार था। उसने शेर अफगन को द्वंद्वयुद्ध के लिए ललकारा। शेर खाँ को अपनी वीरता पर बड़ा भरोसा था, इसलिए वह तलवार सूंतकर कराचः खाँ पर टूट पड़ा। कुछ देर की तलवारबाजी के बाद कराचः खाँ ने शेर अफगान को मार दिया। यह कामरान के लिए बड़ा झटका था।
– डॉ. मोहनलाल गुप्ता