हुमायूँ चालीस दिन तक हमीदा बानूं के पास पास अपना दूत भेजकर उससे अनुरोध करता रहा कि वह बादशाह से मिलने के लिए आए किंतु हमीदा बानू हुमायूँ से मिलने के लिए नहीं आई। उसने हठ पकड़ लिया कि वह इतनी बड़ी आयु के पुरुष से विवाह नहीं करेगी। इस समय हुमायूँ की आयु 33 वर्ष तथा हमीदा की आयु 14 वर्ष थी। हुमायूँ ने अपनी विमाता दिलदार बेगम से कहा कि वह स्वयं जाकर हमीदा बानू को समझाए। इस पर दिलदार बेगम हमीदा बानू के पास गई। उसने दुनियादारी की बहुत सी बातें समझा कर हमीदा बानू को हुमायूँ से विवाह करने के लिए सहमत कर लिया। जब हमीदा बानू विवाह के लिए तैयार हो गई तो दिलदार बेगम ने मीर अबुलबका को बुलाकर अगस्त 1541 में हुमायूँ तथा हमीदा बेगम का निकाह पढ़वा दिया।
गुलबदन बेगम ने लिखा है कि निकाह पढ़ने के लिए मीर अबुलबका को दो लाख रुपए दिए गए। यह राशि अविश्वसनीय लगती है। संकट से भरे दिनों में हुमायूँ कभी भी काजी को दो लाख रुपए देने की हिम्मत नहीं जुटा सकता था। गुलबदन बेगम ने इस तरह की और भी कई अविश्वसनीय बातें लिखी हैं। इस विवाह के बाद तीन दिन तक हुमायूँ हिंदाल के डेरे में रुका रहा और पुनः नाव में बैठकर बक्खर चला गया।
हिंदाल नहीं चाहता था कि हुमायूँ का विवाह हिन्दाल के धर्मगुरु मीर बाबा दोस्त की पुत्री हमीदा बानू से हो किंतु वह हुमायूँ को रोकने में असमर्थ रहा। इसलिए हिंदाल ने नाराज होकर सिंध छोड़ दिया तथा वह कांधार चला गया। गुलबदन बेगम ने लिखा है कि मिर्जा हिंदाल को कांधार जाने की छुट्टी दे दी गई। गुलबदन बेगम ने यह बात भी झूठ लिखी है। इस समय हुमायूँ का अपने भाइयों पर इतना नियंत्रण नहीं रह गया था कि मिर्जा हिंदाल को हुमायूँ से कांधार जाने के लिए छुट्टी लेनी पड़े।
हुमायूँ को अब तक बक्खर में आए हुए आठ माह बीत चुके थे किंतु ठट्टा का शासक मिर्जा शाह हुसैन हुमायूँ की सेवा में नहीं आया। इस पर हुमायूँ ने अपने दूत शेख अब्दुल गफूर को मिर्जा हुसैन शाह के पास भेजा तथा उससे पूछा कि किसलिए देरी हो रही है और आने में क्या रुकावट है? इस पर मिर्जा शाह हुसैन ने उत्तर भेजा कि मेरी पुत्री का विवाह मिर्जा कामरान से हुआ है, इसलिए हमारा आपसे मिलना कठिन है। हम आपकी सेवा नहीं कर सकते। इस पर हुमायूँ के सैनिकों ने बक्खर का किला घेर लिया। यह घेरा इतना लम्बा चला कि हुमायूं के सैनिकों के पास खाने के लिए कुछ नहीं बचा। वे निकटवर्ती गांवों में जाकर किसी तरह अनाज जुटाते थे।
कभी-कभी अनाज नहीं मिलने से भूखे ही रहना पड़ता था। यहाँ तक कि सैनिकों ने घोड़ों और ऊँटों को मारकर खा लिया। संभवतः बड़ी कठिनाई से बक्खर के दुर्ग पर हुमायूँ का अधिकार हो पाया। उसके बाद हुमायूँ यादगार नासिर मिर्जा को बक्खर दुर्ग का किलेदार बनाकर सेहवन दुर्ग की तरफ चल दिया जो ठट्ठा के निकट स्थित है। सेहवन का किलेदार मीर अलैकः हुमायूँ के अधीन था किंतु वह हुमायूँ के दुर्दिन देखकर मोर्चाबंदी करके बैठ गया। उसने तोपों से गोले बरसाकर हुमायूँ के सैनिकों को किले में नहीं घुसने दिया। मीर अलैकः को ठट्ठा के शासक शाह हुसैन का समर्थन एवं सहायता प्राप्त हो गई थी।
इस पर हुमायूँ ने अपना दूत सेहवन के किले में भेजा तथा मीर अलैकः को समझाने का प्रयास किया कि संकट के काल में मालिक से गद्दारी करना उचित नहीं है किंतु मीर अलैकः नहीं माना। गुलबदन बेगम ने लिखा है कि हुमायूँ छः-सात महीने वहाँ रहा। इस बीच मिर्जा शाह हुसैन हुमायूँ के सैनिकों को पकड़कर समुद्र में डलवाता रहा। शाह हुसैन के सैनिक हुमायूँ की तरफ के तीन-चार सौ मनुष्यों को एकत्रित करके एक नाव में बैठाकर समुद्र में छोड़ देते थे। इस प्रकार दस हजार मनुष्य मारे गए।
गुलबदन बेगम द्वारा बताई गई यह संख्या भी असंभव जान पड़ती है। हुमायूँ के पास इस समय दस हजार सैनिक होने की संभावना ही नहीं थी। वह अनाज से भरी हुई सौ नावों में अपने सिपाही बैठाकर मुल्तान से बक्खर आया था। यदि अनाज से भरी हुई एक नाव में बीस-तीस सैनिक भी बैठाए गए हों तो हुमायूँ के पास कठिनाई से दो-तीन हजार सैनिक रहे होंगे।
गुलबदन बेगम ने लिखा है कि जब हुमायूँ के पास बहुत थोड़े आदमी बच गए तब शाह हुसैन मिर्जा कुछ नावों में तोपें एवं बंदूकें भरवाकर स्वयं लड़ने आया। मीर अलैकः हुमायूँ की नावों को सामान सहित पकड़ कर ले गया तथा उसने हुमायूँ से कहलवाया कि पुराने नमक का विचार करके आपको सलाह देता हूँ कि आप यहाँ से तुरंत चले जाइए। इस पर हुमायूँ ने सेहवन से बक्खर के लिए प्रस्थान किया।
जब शाह हुसैन मिर्जा को ज्ञात हुआ कि हुमायूँ सेहवन का घेरा उठाकर बक्खर जा रहा है तो शाह हुसैन ने बक्खर के किलेदार यादगार नासिर मिर्जा को पत्र लिखकर सूचित किया कि मैं तुम्हें अपनी पुत्री देने का वायदा करता हूँ, यदि बादशाह हुमायूँ बक्खर की तरफ आए तो तुम उसे बक्खर दुर्ग में मत घुसने देना। मिर्जा यादगार नासिर, शाह हुसैन मिर्जा की बातों में आ गया तथा उसने हुमायूँ को छल से पकड़ने का प्रयास किया।
इस पर हुमायूँ ने मिर्जा यादगार नासिर को पत्र लिखा कि बाबा तुम हमारे पुत्र के समान हो। हम तुम्हें अपना प्रतिनिधि बनाकर बक्खर से गए थे और यह समझते थे कि यदि हम पर संकट आएगा तो तुम हमारे सहायक होओगे किंतु अब तुम नौकरों की बातों में आकर हमारे साथ ऐसा बर्ताव कर रहे हो। जो नौकर मेरे न हुए, वे तुम्हारे क्या होंगे? हम बक्खर का किला तुम पर छोड़कर मारवाड़ के राजा मालदेव के पास जा रहे हैं किंतु याद रखना शाह हुसैन और मीर अलैकः तुम्हारे साथ भी गद्दारी करेंगे।
इस प्रकार सिंध से निराश होकर हुमायूँ मारवाड़ की तरफ चल दिया। वह सिंध आना भी नहीं चाहता था किंतु कामरान ने हुमायूँ के लिए ऐसी परिस्थितियाँ उत्पन्न की दी थीं कि हुमायूँ को सिंध की तरफ आना पड़ा। अन्यथा हुमायूँ को अपने नौकरों से अपमानित होने का दिन न देखना पड़ता। अंततः हुमायूँ ने सिंध छोड़ दिया और वह जैसलमेर होते हुए मारवाड़ की तरफ बढ़ने लगा। यह विकट रेगिस्तानी क्षेत्र था। मार्ग में कहीं पर भी दाना, पानी और घास का तिनका तक नहीं मिला। किसी तरह हुमायूँ देवरावल दुर्ग तक पहुंच गया। इस दुर्ग में हुमायूँ दो दिन तक ठहरा। जैसलमेर के राजा ने हुमायूँ का रास्ता रोकने के लिए सेना भेजी। दोनों पक्षों में युद्ध हुआ जिसमें हुमायूँ के कुछ सैनिक मारे गए किंतु हुमायूँ के सैनिकों ने जैसलमेर के सैनिकों को भगा दिया।
गुलबदन बेगम ने लिखा है कि बादशाह ने तुरंत वह इलाका छोड़ दिया और 60 कोस चलकर एक तालाब पर पहुंचा। वहाँ से हुमायूँ सातलमेर पहुंचा। यहाँ भी स्थानीय लोगों ने हुमायूँ के काफिले पर हमला कर दिया। इस पर बादशाह को फलौदी की तरफ जाना पड़ा। वर्तमान समय में सातलमेर तथा फलौदी राजस्थान के जोधपुर जिले में स्थित हैं। गुलबदन बेगम ने लिखा है कि मालदेव ने हुमायूँ को एक कवच तथा एक ऊंट पर लादकर अशर्फियां भिजवाईं और यह संदेश भिजवाया कि मैं आपको बीकानेर देता हूँ।
– डॉ. मोहनलाल गुप्ता