हुमायूं चौसा के युद्ध से जीवित बच कर आगरा लौट आया था किंतु उसके भाइयों ने उसकी अनुपस्थिति में जो कुछ हरकतें की थीं, उनके कारण शाही परिवार में एक-दूसरे के प्रति अविश्वास का वातावरण बन चुका था। हुमायूँ ने इस अविश्वास को समाप्त करने का प्रयास किया।
गुलबदन बेगम ने लिखा है- ‘एक दिन बादशाह हुमायूँ अपने हाथ में कुरान लेकर दिलदार बेगम (हिंदाल तथा गुलबदन की माता) से मिलने आया। हरम की तमाम बेगमें भी वहीं पर आ जुटीं। बादशाह ने दासियों को वहाँ से हटा दिया और कुरान अपने निकट रखकर दिलदार बेगम से बोला, हिंदाल मेरा बल और स्तम्भ है। यहाँ तक कि मेरी आंखों का तेज, भुजा का बल, प्रेम और स्नेह का पात्र है। शेख बहलोल को मारने के बारे में हिंदाल से क्या कहूँ। जो भाग्य में लिखा था सो हुआ। अब मेरे हृदय में हिंदाल के लिए कुछ भी मालिन्य नहीं है और यदि आप सत्य न मानें, इतना कहकर हुमायूँ ने फिर से कुरान अपने हाथ में ले लिया, इस पर दिलदार बेगम ने हुमायूँ के हाथ से कुरान ले ली और हुमायूँ से कहा कि आप ऐसा क्यों करते हैं।’
इस पर हुमायूँ ने कहा- ‘ठीक है, गुलबदन बेगम जाकर हिंदाल मिर्जा को लिवा लाए।’
इस पर दिलदार बेगम ने कहा- ‘यह लड़की अभी छोटी है। इसने कभी अकेले यात्रा नहीं की है। यदि आज्ञा हो तो मैं जाऊं?’
हुमायूँ ने कहा- ‘आप हमारी माता हैं, मैं आपसे कैसे कहूं किंतु यदि आप जाएं तो हम सब पर बड़ी कृपा होगी।’
हुमायूँ की अनुमति मिलने पर मिर्जा हिंदाल की माता दिलदार बेगम स्वयं अलवर गई और हिंदाल को आगरा लिवा लाई।
जब हिंदाल बादशाह हुमायूँ की सेवा में उपस्थित हुआ तो बादशाह से क्षमा मांगते हुए बोला- ‘शेख बहलोल शेर खाँ को हथियार भिजवाता था, इसलिए मैंने उसे मार डाला।’ हुमायूँ ने हिंदाल को क्षमा कर दिया। हुमायूँ चाहता था कि चारों भाई मिलकर बाबर द्वारा स्थापित मुगलिया सल्तनत की रक्षा करें किंतु हुमायूँ के तीनों भाई हुमायूँ पर विश्वास नहीं करते थे और उनमें से प्रत्येक भाई स्वयं बादशाह बनने का स्वप्न देख रहा था। इसलिए हुमायूँ के किसी भी भाई ने हुमायूँ का साथ नहीं दिया।
गुलबदन बेगम ने लिखा है- ‘जब बादशाह हुमायूँ चौसा से निकलकर नदी पार कर रहा था तब वह एक भंवर में फंस गया। इस पर एक मसकची ने हुमायूँ के प्राण बचाए तथा उसे नदी पार करवाई। इसलिए बादशाह उसे अपने साथ आगरा ले आया तथा उसे अपना विश्वस्त अनुचर बना लिया। बादशाह ने एक दिन सब अमीरों को बुलाकर उनके सामने मसकची अर्थात् भिश्ती को अपने तख्त पर बैठाया और उसे दो दिन की बादशाही प्रदान की। हुमायूँ ने अपने अमीरों को आज्ञा दी कि वे मसकची को बादशाह समझकर सलाम करें तथा दो दिनों में वह जो भी आज्ञा दे उसका पालन करें।’
मसकची ने दो दिन तक बादशाही की तथा अपनी मर्जी के अनुसार अपने लोगों को जागीरें तथा मनसब प्रदान किए।
गुलबदन बेगम ने लिखा है- ‘मिर्जा हिंदाल तथा मिर्जा कामरान दोनों ही उस दरबार में नहीं आए। मिर्जा हिंदाल तो वापस अलवर चला गया और मिर्जा कामरान ने बीमारी का बहाना करके कहलवाया कि गुलाम को कुछ और पुरस्कार देना चाहिए था। उसे तख्त पर बैठाना कितना उचित है जबकि शेर खाँ पास पहुंचने वाला है। आप ऐसा काम क्यों करते हैं?
गुलबदन बेगम ने लिखा है कि कामरान सचमुच बीमार था और इतना निर्बल एवं अशक्त हो गया था कि उसका मुँह भी नहीं पहचाना जा सकता था। कामरान को संदेह था कि बादशाह हुमायूँ की सम्मति से ही किसी माता ने कामरान को जहर दे दिया था।
जब कामरान के संदेह की बात हुमायूँ तक पहुंची तो हुमायूँ स्वयं कामरान से मिलने उसके महल में गया तथा उसने शपथ खाकर कहा कि मेरे मन में यह विचार कभी नहीं आया और न ही मैंने ऐसा किसी से कहा है। हुमायूँ के सौगंध खाने पर भी कामरान के मन का संदेह दूर नहीं हुआ। उसका रोग दिन पर दिन बढ़ने लगा। यहाँ तक कि वह बोलने में भी असमर्थ हो गया।
कुछ ही दिनों बाद हुमायूँ को समाचार मिले कि शेर खाँ लखनऊ होते हुए आगरा की ओर बढ़ रहा है तो हुमायूँ ने भी एक सेना लेकर कन्नौज के लिए प्रस्थान किया। कुछ इतिहासकारों ने लिखा है कि इस समय कामरान के पास बीस हजार सैनिक थे। हुमायूँ ने कामरान से कहा कि वह अपनी सेना को मेरे साथ कन्नौज भेज दे किंतु कामरान ने मना कर दिया। इसी प्रकार मिर्जा हिंदाल बिना कुछ कहे-सुने अलवर चला गया। हुमायूँ ने मिर्जा अस्करी से सहायता मांगी किंतु मिर्जा अस्करी ने भी हुमायूँ को निकम्मा समझ कर उसकी सहायता करने से मना कर दिया।
आशीर्वादी लाल श्रीवास्तव ने लिखा है- ‘मूर्ख कामरान को लगता था कि यदि शेर खाँ ने आगरा पर अधिकार कर लिया तो वह कामरान को पंजाब एवं हिसार फिरोजा पर शांति से शासन करने देगा।’
हुमायूँ इस समय मुसीबत में था और शेर खाँ जैसा प्रबल शत्रु आगरा की ओर बढ़ा चला आ रहा था इसलिए हुमायूँ ने अपने भाइयों से कुछ नहीं कहा और स्वयं ही एक सेना लेकर कन्नौज चला गया। इस समय तक चौसा से भागे हुए मुगल सैनिक आगरा पहुंच चुके थे तथा नए सैनिकों की भर्ती की जा चुकी थी। इस कारण हुमायूँ के पास 90 हजार सैनिक हो गए थे। जब हुमायूँ गंगाजी के पार चला गया तो कामरान ने भी आगरा छोड़ दिया तथा लाहौर की तरफ चल दिया। कामरान ने हुमायूँ को पत्र लिखकर सूचित किया कि मेरा स्वास्थ्य बहुत खराब है इसलिए मैं आगरा से लाहौर जा रहा हूँ। यदि आप गुलबदन बेगम को भी मेरे साथ जाने की आज्ञा दें तो आपकी बड़ी कृपा होगी। क्योंकि वह मेरी सेवा अच्छी तरह कर सकती है।
हुमायूँ ने गुलबदन बेगम को कामरान के साथ लाहौर जाने की आज्ञा दे दी किंतु गुलबदन की माता दिलदार बेगम ने कामरान से कहा कि यह छोटी है तथा इसने कभी भी हम लोगों के बिना यात्रा नहीं की है, इसलिए इसे मत ले जाओ। इस पर कामरान ने दिलदार बेगम से कहा कि आप भी इसके साथ चलिए। गुलबदन भी कामरान के साथ नहीं जाना चाहती थी किंतु कामरान ने पांच सौ सैनिक, बहुत सी दासियों एवं धाय माताओं को आदेश दिए कि वे गुलबदन को ले आएं।
गुलबदन ने लिखा है- ‘अंत में बहुत रोने-पीटने पर भी मैं अपनी माता, बहिनों और विमाताओं से बलात् अलग की गई। मैंने बादशाह हुमायूँ को पत्र लिखा कि मुझे आपसे ऐसी आशा नहीं थी कि आप मुझे अपनी सेवा से अलग करके कामरान को दे देंगे।’
इस पर हुमायूँ ने गुलबदन बेगम को सलामनामा भेजकर सूचित किया- ‘मैं तुम्हें कामरान को नहीं देना चाहता था किंतु मिर्जा कामरान ने बहुत हठ और विनय किया इसलिए मेरे लिए आवश्यक हो गया कि मैं तुम्हें कामरान को सौंप दूं। क्योंकि अभी हम एक भारी काम में लगे हुए हैं। जब यह काम निबट जाएगा, तब तुम्हें वापस बुलवाउंगा।’
गुलबदन के वर्णन से यह स्पष्ट नहीं होता कि मिर्जा कामरान अपनी इस सौतेली बहिन को किस उद्देश्य से बलपूर्वक अपने साथ लाहौर ले गया और गुलबदन उसके साथ क्यों नहीं जाना चाहती थी! जब मिर्जा कामरान आगरा से लाहौर जाने लगा तो आगरा के बहुत से अमीरों और व्यापारियों ने अपने बाल-बच्चों को कामरान के काफिले के साथ लाहौर भेज दिया। संभवतः उन्हें आशंका थी कि शेर खाँ इस बार भी हुमायूँ को आसानी से परास्त कर देगा। यदि ऐसा हुआ तो किसी भी मुगल अमीर एवं व्यापारी का परिवार आगरा में सुरक्षित नहीं बचेगा। इसी आशंका से भयभीत होकर लोग अपने परिवारों को आगरा से लाहौर भेज रहे थे।
– डॉ. मोहनलाल गुप्ता