यूरोपियन इतिहासकार ब्रिग्ज ने लिखा है कि जब बहादुरशाह को ज्ञात हुआ कि मेवाड़ की राजमाता ने हुमायूँ को राखी भेजी है तो बहादुरशाह ने हुमायूँ को पत्र लिखा कि- ‘मैं इस समय जेहाद पर हूँ। यदि तुम चित्तौड़ की सहायता करोगे तो खुदा के सामने क्या जवाब दोगे?’
यह पत्र पढ़कर हुमायूँ उज्जैन में ही ठहर गया और चित्तौड़-युद्ध के परिणाम की प्रतीक्षा करने लगा। यह हुमायूँ के लिए स्वर्णिम अवसर था जब वह मेवाड़ से मित्रता करके भारत में अपनी जड़ें मजबूत कर सकता था परन्तु हूमायू ने मेवाड़ की परिस्थिति से कोई लाभ नहीं उठाया।
मेवाड़ी सरदारों ने महाराणा विक्रमादित्य तथा उसके छोटे भाई कुंवर उदयसिंह को दुर्ग से बाहर भेज दिया। अन्ततः बहादुरशाह तथा मेवाड़ की सेना के बीच भयानक संघर्ष हुआ जिसमें मेवाड़ की पराजय हो गई तथा कई हजार मेवाड़ी सैनिक मारे गये। दुर्ग में स्थित स्त्रियों ने राजमाता कर्णवती के नेतृत्व में जौहर किया। चित्तौड़ पर बहादुरशाह का अधिकार हो गया।
जब बहादुरशाह ने चित्तौड़ पर अधिकार करके चित्तौड़ की विपुल सम्पदा को लूट लिया तो हुमायूँ की आँखें खुलीं और वह बहादुरशाह पर आक्रमण करने के लिए आगे बढ़ा। बहादुरशाह ने चित्तौड़ के किले को आग के हवाले कर दिया और स्वयं भाग कर मंदसौर चला गया। हुमायूँ ने बहादुरशाह का पीछा किया और वह भी मंदसौर पहुंच गया।
बहादुरशाह ने हुमायूँ का मार्ग रोकने के लिये मन्दसौर में चारों ओर से खाइयाँ खुदवा कर मोर्चा बांध लिया। उसने अपने तोपखाने को सामने करके अपनी सेना उसके पीछे छिपा दी। हुमायूँ को इसका पता लग गया। इसलिये हुमायूँ के अश्वारोहियों ने तोपों के गोलों की पहुंच से दूर रहकर ही बहादुरशाह की सेना पर बाण-वर्षा करके बहादुरशाह के तोपखाने को बेकार कर दिया।
हुमायूँ ने बहादुरशाह के रसद मार्ग को भी काट दिया। इस पर बहादुरशाह मन्दसौर से भागकर माण्डू चला गया। मुगल सेना ने तेजी से बहादुरशाह का पीछा किया। इस पर बहादुरशाह माण्डू से चाम्पानेर की तरफ भागा। माण्डू के दुर्ग पर हुमायूँ का अधिकार हो गया। इस बीच बहादुरशाह की सेना छिन्न-भिन्न हो गई और वह केवल पाँच विश्वस्त अनुचरों के साथ चम्पानेर पहुंच सका।
हुमायूँ ने एक हजार अश्वारोहियों के साथ बहादुरशाह का पीछा किया। इस पर बहादुरशाह ने अपने हरम की स्त्रियों तथा अपने खजाने को समुद्र में स्थित दीव नामक द्वीप पर भेज दिया जो उन दिनों पुर्तगालियों के अधिकार में था तथा स्वयं चम्पानेर में आग लगवाकर खम्भात भाग गया। हूमायू ने खम्भात तक बहादुरशाह का पीछा किया किंतु जब बहादुरशाह दीव भाग गया तो हुमायूँ खंभात से चम्पानेर लौट आया। उसने चम्पानेर दुर्ग पर अधिकार कर लिया जहाँ से उसे अपार सम्पत्ति प्राप्त हुई। कहा जाता है कि बहादुरशाह पर मिली इस अप्रत्याशित जीत की प्रसन्नता में हुमायूँ चाम्पानेर में ही रुककर भोग-विलास में डूब गया।
बहादुरशाह शक्तिशाली सुल्तान था किंतु हुमायूँ के हाथों हुई उसकी इतनी भयानक पराजय का कारण यह बताया जाता है कि बहादुरशाह की काफी सेना चित्तौड़ अभियान में मारी गई थी और जो सेना बची थी उसके एक बड़े हिस्से ने बहादुरशाह के साथ छल करके स्वयं को युद्ध से अलग कर लिया क्योंकि बहादुरशाह का सेनापति रूमी खाँ गुप्त रूप से हुमायूँ से मिल गया था।
कुछ समय बाद हुमायूँ चम्पानेर से अहमदाबाद की ओर बढ़ा और उसने गुजरात पर अधिकार कर लिया। हुमायूँ ने मिर्जा अस्करी को गुजरात का शासक नियुक्त कर दिया। गुजरात की व्यवस्था करने के उपरान्त हुमायूँ दीव की ओर बढ़ा। उसका निश्चय बहादुरशाह को दीव में पहुंचकर दण्डित करने का था परन्तु इसी समय हुमायूँ को बिहार में अफगानों की गतिविधियां बढ़ने की सूचना मिली। इसलिये हुमायूँ ने तत्काल आगरा के लिए प्रस्थान किया ताकि वहाँ से बिहार की तरफ जा सके।
हुमायूँ के लौटते ही बहादुरशाह तथा उसके समर्थकों ने मुगलों को गुजरात से खदेड़ना आरम्भ कर दिया। मिर्जा अस्करी ने चाम्पानेर के मुगल गवर्नर तार्दी बेग से सहायता मांगी किंतु तार्दी बेग ने मिर्जा अस्करी की सहायता करने से मना कर दिया। हुमायूँ का ध्यान इस समय बिहार में सिर उठा रहे शेर खाँ पर केन्द्रित था इसलिए हुमायूँ भी अस्करी की सहायता के लिये सेना नहीं भेज सका।
बहादुरशाह ने गुजरात तथा मालवा पर फिर से अधिकार कर लिया किंतु वह इस विजय का बहुत दिनों तक उपभोग नहीं कर सका। फरवरी 1537 में जब वह दीव के पुर्तगाली गवर्नर से मिलने गया, तब नाव उलट जाने से समुद्र में डूब कर मर गया।
जब चित्तौड़ दुर्ग में स्थित बहादुरशाह के सैनिकों को बहादुरशाह के मरने की सूचना मिली तो वे दुर्ग छोड़कर भाग गये। यह समाचार सुनकर मेवाड़ी सरदारों ने पांच-सात हजार सैनिकों को एकत्रित करके चित्तौड़ दुर्ग पर अधिकार कर लिया। महाराणा विक्रमादित्य तथा कुंवर उदयसिंह भी दुर्ग में आ गये।
हुमायूँ अफगान नेता शेर खाँ की गतिविधियों के समाचार सुनकर गुजरात से आगरा लौटा था। अब उसे अपना ध्यान पूरी तरह शेर खाँ पर केन्द्रित करना आवश्यक था।
शेर खाँ और हुमायूँ ई.1531 में भी चुनार दुर्ग को लेकर आमने-सामने हो गए थे किंतु उस समय शेर खाँ ने चुनार दुर्ग हुमायूँ को देकर युद्ध को कुछ समय के लिए टाल दिया था किंतु अब शेर खाँ ने फिर से ऐसी परिस्थितियाँ उत्पन्न कर दी थीं जिनके कारण युद्ध को किसी भी हालत में टाला नहीं जा सकता था।
अपने दुर्भाग्य से हुमायूँ ने गुजरात में इतना समय खराब कर दिया था कि शेर खाँ को अपनी शक्ति बढ़ाने तथा हुमायूँ के विरुद्ध युद्ध की तैयारियां करने का पूरा समय मिल गया था। अब हुमायूँ को अपनी इस गलती का दण्ड भुगतना था।
शेर खाँ से हुमायूँ के सम्बन्धों को विस्तार से समझने के लिए हमें शेर खाँ की पिछली जिंदगी में झांकना होगा।
– डॉ. मोहनलाल गुप्ता