बादशाह बनते समय हुमायूँ के सामने समस्याओं का अम्बार था जिन्हें धैर्य, समय, परिश्रम, योग्यता एवं भाग्य के बल पर ही सुलझाया जा सकता था। हुमायूँ के पास धैर्य, समय, परिश्रम एवं योग्यता सभी कुछ उपलब्ध था किंतु इन गुणों के अनुपात में उसका भाग्य बहुत कमजोर था। तुर्की भाषा में हुमायूँ का अर्थ सौभाग्यशाली होता है किंतु वास्तविक जीवन में वह दुर्भाग्यशाली था। उसके दुर्भाग्य के कारण ही उसके चारों ओर अविश्वसनीय और धोखेबाज लोगों का जमावड़ा था। उसके दुर्भाग्य के कारण ही उसके भाई और बहनोई उसके प्रति छल करने की भावना रखते थे किंतु हुमायूँ को अपनी शिक्षा एवं धैर्य के बल पर इस दुर्भाग्य पर विजय प्राप्त करनी थी।
बाबर तथा माहम ने हुमायूँ को अच्छी शिक्षा दिलवाई थी। उसे तुर्की, अरबी और फारसी साहित्य के साथ-साथ घुड़सवारी, तलवारबाजी एवं रणनीतिक कौशल की शिक्षा दी गई थी। हुमायूँ नजूमी अर्थात् ज्योतिषी तो नहीं था किंतु उसे नक्षत्रों की गति का अच्छा ज्ञान था और विवाह आदि के मुहूर्त भी स्वयं ही निकाल लेता था। हमीदा बानो के साथ हुए विवाह का मुहूर्त हुमायूँ ने जंत्री देखकर स्वयं ही निकाला था।
हुमायूँ अपने पिता के जीवन काल में अनेक युद्धों में भाग लेने तथा प्रशासकीय कार्य करने का अनुभव प्राप्त कर चुका था। बाबर ने जब उसे पहली बार बदख्शाँ का शासन प्रबन्ध सौंपा, उस समय हुमायूँ केवल 11 साल का बालक था। बदख्शाँ पर उजबेग लोग बार-बार आक्रमण करते थे परन्तु हुमायूँ ने उजबेगों को दबाकर वहाँ पर शान्ति-व्यवस्था स्थापित की। जब बाबर ने ई.1526 में अंतिम बार भारत पर आक्रमण किया था तब हुमायूँ केवल 18 साल का युवक था किंतु उसने अनेक युद्धों में स्थानीय सरदारों को परास्त करके बाबर की राह आसान की थी।
हुमायूँ ने पानीपत तथा खानवा के युद्धों में भाग लेकर अपनी सैन्य-प्रतिभा का परिचय दिया था। पानीपत के युद्ध के बाद बाबर ने हुमायूँ को बंगाल तथा बिहार के अफगान अमीरों के विद्रोह का दमन करने की जिम्मेदारी दी थी जिसे हुमायूँ ने भलीभांति निभाया था। जब हुमायूँ अचानक ही बदख्शां से आगरा आ गया था तब बाबर ने हुमायूँ को सम्भल का गवर्नर नियुक्त किया था। इस प्रकार हुमायूँ को बादशाह बनते समय लम्बी दूरी की यात्राएं करने, छोटे युद्धों को संचालित करने, बड़े युद्धों में भागीदारी निभाने एवं प्रांतीय प्रशासन का संचालन करने का अनुभव प्राप्त था। उसे उज्बेकों, अफगानों एवं राजपूतों से लड़ने का प्रत्यक्ष अनुभव था।
बाबर की तरह हुमायूँ भी विषम-घड़ी में आपा नहीं खोता था। वह भी बाबर की तरह अपने परिवार से प्रेम करता था और परिवार की महिलाओं के साथ विशेष आदर के साथ व्यवहार करता था। बादशाह बनने के बाद हुमायूँ के अनुभवों एवं गुणों की वास्तविक परीक्षा का समय आ गया था।
बादशाह बनने के बाद हुमायूँ को सबसे पहला युद्ध-अभियान बिबन तथा बायजीद के विरुद्ध करना पड़ा। गुलबदन बेगम ने हुमायूंनामा में लिखा है कि बाबर की मृत्यु के छः माह बाद बब्बन (बिबन) तथा बायजीद ने गौड़ की ओर आगे बढ़कर मुगल सल्तनत पर हमला किया। इस पर हुमायूँ ने स्वयं एक सेना लेकर गौड़ देश पर अभियान किया और बब्बन तथा बायजीद को परास्त करके चुनार होते हुए आगरा गया।
जब हुमायूँ अफगानों को परास्त करके आगरा लौटा तब हुमायूँ की माता माहम बेगम जीवित थी। उसने अपने पुत्र की इस विजय के उपलक्ष्य में बड़ा उत्सव मनाने का निश्चय किया। उसके आदेश से आगरा के शाही महलों से लेकर आगरा की गलियों एवं सैनिक छावनियों में प्रकाश किया गया। सड़कों को फूलों एवं रंगीन कागजों से सजाया गया। निर्धनों को भोजन करवाया गया तथा 7000 लोगों को शाही-पोशाकें दी गईं। हुमायूँ की बहिन गुलबदन बेगम ने अपनी पुस्तक हुमायूंनामा में इस उत्सव का आंखों देखा वर्णन किया है।
कुछ दिनों बाद हुमायूँ को समाचार मिला कि कालिंजर का राजा प्रताप रुद्र देव कालपी पर अभियान की तैयारी कर रहा है। इन दिनों कालपी का सामरिक महत्त्व बहुत अधिक बढ़ गया था क्योंकि गुजरात के शासक बहादुरशाह ने मालवा पर अधिकार करके मेवाड़ पर हमला बोल दिया था तथा मेवाड़ से कालपी होते हुए आगरा तक पहुंचने का सपना देख रहा था। इसलिये हुमायूँ ने कालिंजर पर हमला करके राजा प्रताप रुद्र देव को निरुद्ध करने का निर्णय लिया ताकि वह कालपी की तरफ मुँह न कर सके।
कालिंजर का दुर्ग वर्तमान उत्तर प्रदेश के बाँदा जिले में स्थित था। यह विन्ध्याचल पर्वत पर कई सौ फुट ऊँची चट्टान पर बना हुआ होने के कारण सुरक्षित और अभेद्य समझा जाता था। तुर्कों ने कई बार इस दुर्ग पर अधिकार करने का प्रयास किया था किंतु वे इसे जीत नहीं पाए थे। बाबर ने भी हुमायूँ को इस दुर्ग पर आक्रमण करने के लिए भेजा था परन्तु हुमायूँ को कालिंजर के शासक राजा प्रताप रुद्र से समझौता करके दुर्ग का घेरा उठाना पड़ा था।
हुमायूँ की सेना ने कालिंजर के दुर्ग पर घेरा डाल दिया और वह एक महीने तक दुर्ग पर गोलाबारी करती रही परन्तु कालिंजर दुर्ग को अधिकार में नहीं किया जा सका। इसी बीच हुमायूँ को कालिंजर में व्यस्त देखकर इब्राहीम लोदी के भाई महमूद लोदी ने बिहार से निकलकर जौनपुर पर अधिकार कर लिया और वहाँ से मुगल अफसरों को मार भगाया। इसलिये हूमायू को एक बार फिर कालिंजर के राजा से समझौता करके जौनपुर की तरफ जाना पड़ा।
अभी हुमायूँ मार्ग में ही था कि वर्षा ऋतु आरम्भ हो गई और गीली मिट्टी में तोपगाड़ियों को आगे बढ़ाना कठिन हो गया। इस कारण हुमायूँ को वहीं रुक जाना पड़ा और वह अफगानों के विरुद्ध कोई कार्यवाही नहीं कर सका। हुमायूँ को जौनपुर में फंसा हुआ जानकर शेर खाँ नामक एक अफगान सरदार ने चुनार के दुर्ग पर अधिकार कर लिया। इसी समय हुमायूँ को अपने भाई कामरान के विद्रोह की सूचना मिली।
हुमायूँ की स्थिति राजनीति की चौसर में फंसे हुए मोहरे जैसी हो गई। उसने राजा प्रताप रुद्र देव को कालपी की तरफ बढ़ने से रोकने के लिए कालिंजर पर आक्रमण किया तो अफगानों ने विद्रोह कर दिया। जब उसने कालिंजर का मोर्चा छोड़कर अफगानों की तरफ रुख किया तो शेर खाँ ने चुनार पर अधिकार कर लिया तथा हुमायूँ के अपने भाई कामरान ने पंजाब दबा लिया। इसलिए हुमायूँ को अफगानों के विरुद्ध अभियान बीच में छोड़कर अपनी राजधानी की तरफ दौड़ना पड़ा क्योंकि उसे भय था कि कहीं कामरान आगरा पर अधिकार न कर ले!
हुमायूँ ने कामरान को अफगागिनस्तान का शासक बनाया था जिसमें काबुल, कांधार, गजनी तथा बदख्शां शामिल थे। यह एक विशाल क्षेत्र था और समरकंद से अफगानिस्तान आने के बाद बाबर का मूल राज्य यही बन गया था किंतु जिस तरह बाबर और हुमायूँ जानते थे कि अफगानिस्तान के निर्धन एवं अनुपजाऊ भूभाग पर शासन करने से कोई लाभ नहीं है, उसी प्रकार कामरान भी इस क्षेत्र की निर्धनता से भलीभांति परिचित हो गया था। इसलिए हुमायूँ को कालिंजर के राजा रुद्र प्रताप देत तथा अफगानों के नेता महमूद लोदी से संघर्ष में फंसा हुआ देखकर कामरान ने पंजाब पर हमला कर दिया। कामरान का यह काम पीठ में छुरी भौंकने से कम नहीं था।
– डॉ. मोहनलाल गुप्ता
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