जनवरी 1526 में पंजाब के शासक दौलत खाँ का पुत्र गाजी खाँ जंगलों में भाग गया तथा दौलत खाँ ने बाबर की अधीनता स्वीकार कर ली। बाबर ने दौलत खाँ को बंदी बनाकर भेरा के किले में भेज दिया किंतु मार्ग में ही दौलत खाँ की मृत्यु हो गई। पंजाब के शासक का इस प्रकार समाप्त हो जाना, बाबर के लिए बहुत लाभप्रद सिद्ध हुआ। अब पंजाब से लेकर दिल्ली तक के मार्ग में एक भी ऐसी शक्ति नहीं बची थी जो बाबर का मार्ग रोक पाती।
बाबर काबुल से 25 हजार सैनिक लेकर चला था। अपनी आत्मकथा में बाबर ने बड़ी चालाकी से अपने सैनिकों की यही संख्या बताई है। उसमें गजनी के गवर्नर ख्वाजा कलां की सेना तथा बदख्शां के गवर्नर हुमायूँ की सेना को बाबर ने अपनी सेना में नहीं जोड़ा है। क्योंकि ये सेनाएं बाद में बाबर की सेना से आकर मिली थीं।
अब तो दौलत खाँ के पुत्र दिलावर खाँ की सेना भी बाबर के साथ हो गई थी, उसकी संख्या भी बाबर ने नहीं जोड़ी। इब्राहीम लोदी का भाई आलम खाँ भी अपने सैनिक लेकर बाबर से आ मिला, उनकी संख्या भी नहीं जोड़ी गई। अफगान अमीर बिबन के सैनिकों की संख्या भी इसमें नहीं जोड़ी गई।
इस दौरान बाबर के मामा सुल्तान अहमद चगताई के पुत्र भी अपनी सेना लेकर बाबर की सेवा में आ गए थे, उन सैनिकों की संख्या भी बाबर के सैनिकों की संख्या में नहीं जोड़ी गई। यदि इन सबके सैनिकों की संख्या जोड़ ली जाए तो बाबर के सैनिकों की संख्या पच्चीस हजार से बहुत अधिक बैठती है।
दूसरी ओर बाबर ने इब्राहीम लोदी के सैनिकों की संख्या एक लाख बताई है जबकि कुछ समय पहले ही इब्राहीम लोदी तथा उसके अमीरों के बीच भयानक संघर्ष हुआ था जिसमें कई हजार तुर्की सैनिक मारे गए थे। इसलिए इब्राहीम के पास मुट्ठी भर सैनिक ही बचे थे जिनमें ग्वालियर का राजा विक्रमादित्य तोमर प्रमुख था।
संभवतः संख्याओं के गड़बड़-झाले से बाबर यह दिखाना चाहता था कि उसने 25 हजार सैनिकों के बल पर एक लाख सैनिकों को परास्त कर दिया। बाबर ने लिखा है कि इब्राहीम लोदी के अमीरों एवं वजीरों के हाथियों की संख्या एक हजार थी। यह बात भी नितांत मिथ्या है।
जब बाबर की सेना सरहिंद के निकट करनाल पहुंची तो एक व्यक्ति बाबर की सेवा में उपस्थित हुआ। उसने स्वयं को इब्राहीम लोदी का दूत बताया। उसके पास इब्राहीम का कोई पत्र नहीं था किंतु उसने बाबर से निवेदन किया कि मेरे सुल्तान ने कहलवाया है कि बाबर अपने दूत इब्राहीम लोदी की सेवा में भेजे। इस पर बाबर ने अपने कुछ आदमी उसके साथ भेज दिए। जब ये लोग इब्राहीम लोदी के पास पहुंचे तो इब्राहीम लोदी ने उन्हें बंदी बना लिया। इससे स्पष्ट है कि जो व्यक्ति स्वयं को इब्राहीम का दूत बता रहा था, वह झूठ बोल रहा था। इस झूठ के पीछे उसका क्या उद्देश्य था, इसका पता नहीं चलता।
25 फरवरी 1526 को कित्ता खाँ बेग बदख्शां से एक सेना लेकर अम्बाला में बाबर से आ मिला। बिबन नामक एक अफगान भी अपनी सेना लेकर इसी स्थान पर बाबर की सेना से आ मिला। वह बाबर की तरफ से लड़ने के लिए आया था। बाबर ने लिखा है कि- ‘ये अफगान बड़े गंवार तथा मूर्ख थे।’
बाबर ने ऐसा इसलिए लिखा है क्योंकि बाबर के समक्ष कोई बैठने की हिम्मत नहीं करता था किंतु बिबन ने बाबर के समक्ष बैठने की अनुमति मांगी। बाबर ने बिबन की असभ्यता की अनदेखी करके, उसकी बात का जवाब नहीं दिया।
बाबर ने लिखा है- ‘बिबन को इतना ज्ञान भी नहीं था कि दिल्ली के सुल्तान इब्राहीम लोदी का भाई अल्लाउद्दीन खाँ और पंजाब के शासक दौलत खाँ का पुत्र दिलावर खाँ भी मेरे समक्ष अदब से खड़े हुए थे।’
जब बाबर करनाल में ठहरा हुआ था तब हुमायूँ को हमीद खाँ नामक किसी तुर्क सरदार के विरुद्ध अभियान करने भेजा गया। हुमायूँ ने हमीद खाँ की सेना को परास्त कर दिया तथा उसके एक सौ सैनिकों को बंदी बना लिया। उसने हमीद खाँ के 7-8 हाथी भी पकड़ लिए। जब हुमायूँ ने इन बंदियों को बाबर के सम्मुख प्रदर्शित किया तो बाबर ने आदेश दिया कि इन सभी को एक मैदान में खड़े करके बंदूक से गोली मार दी जाए।
बाबर के आदेश की पालना की गई। संभवतः बाबर भारत वालों को यह संदेश देना चाहता था कि बाबर का सामना करने की हिम्मत नहीं करें क्योंकि बाबर के पास ऐसे शस्त्र हैं जो भारतीयों ने पहले कभी देखे भी नहीं हैं। इसके बाद हुमायूँ को हिसार पर आक्रमण करने भेजा गया।
हिसार तथा उसके आसपास से हुमायूँ को काफी धन प्राप्त हुआ। हुमायूँ ने यह धन बाबर को समर्पित कर दिया। बाबर ने इस विजय के उपलक्ष्य में हुमायूँ को एक करोड़ रुपए पुरस्कार-स्वरूप प्रदान किए। हिसार-विजय के बाद बाबर की सेना करनाल से चलकर शाहाबाद पहुंच गई जो अब हरियाणा प्रांत की थानेश्वर तहसील में स्थित है। यहीं पर हुमायूँ 18 साल का हुआ तथा उसने अपने मुँह पर पहली बार उस्तरा चलवाया।
13 मार्च 1526 को शाहाबाद के पड़ाव पर ही बाबर को सूचना मिली कि दिल्ली का सुल्तान इब्राहीम लोदी एक-एक दो-दो कोस चलता हुआ आगे बढ़ रहा है तथा प्रत्येक मंजिल पर वह दो-तीन दिन पड़ाव करता है। यह समाचार सुनकर बाबर भी दिल्ली की तरफ बढ़ने लगा और 16 मार्च 1526 को यमुना नदी के तट पर सिरसावा के सामने उतर पड़ा।
यहीं पर बाबर को सूचना मिली कि इब्राहीम लोदी ने दाउद खाँ लोदी तथा हातिम खाँ लोदी को पांच-छः हजार सैनिकों सहित दो-आब के पार भेज दिया है और अब वे इब्राहीम लोदी के शिविर से 3-4 कोस आगे पड़ाव किए हुए हैं। बाबर ने भी अपने कुछ वजीरों को सेना देकर उनके सामने भेजा। अफगान अमीर बिबन भी बाबर की इस सेना के साथ इब्राहीम लोदी की सेना पर आक्रमण करने गया। जैसे ही बाबर की सेना मेंयमुना नदी पार की, बिबन अपनी सेना लेकर भाग गया।
2 अप्रेल 1526 को इब्राहीम लोदी के अमीरों की एक सेना शक्ति-प्रदर्शन करती हुई बाबर के वजीरों की सेना के निकट चली आई। बाबर के वजीरों ने लोदियों की इस छोटी सेना को परास्त कर दिया तथा 60-70 सैनिक एवं 6-7 हाथी पकड़ लिए। बाबर के वजीरों ने लोदियों के सेनापति हातिम खाँ लोदी को पकड़ कर बाबर के सामने प्रस्तुत किया। बाबर ने पकड़े गए समस्त सैनिकों एवं हातिम खाँ लोदी की हत्या करवा दी।
बाबर ने लिखा है- ‘अगले दिन मैंने अपनी सेना को पंक्तिबद्ध किया तथा उसकी गिनती करवाई किंतु सैनिकों की संख्या मेरे अनुमान से कम थी।’
यहाँ भी बाबर बड़ी चतुराई से अपने सैनिकों की संख्या छिपा गया किंतु आगे चलकर बाबर ने इब्राहीम से हुए युद्ध से पहले अपने सैनिकों की संख्या केवल 12 हजार बताई है। पाठकों को स्मरण होगा कि बाबर काबुल से सात सौ तोपें घोड़ों एवं खच्चरों की पीठ पर लदवा कर लाया था। अब बाबर ने उन तोपों के लिए लकड़ी की गाड़ियां बनवाईं तथा तोपों को उन पर जमा दिया।
इन तोपों को सेना के आगे रखा गया। रूमियों की प्रथा के अनुसार इन तोपों को आपस में जोड़ दिया गया। तोपों को आपस में जोड़ने के लिए लोहे की जंजीरों के स्थान पर पशुओं की कच्ची खाल से बनी रस्सियों का प्रयोग किया गया। तापों के पीछे आड़ बनाकर पैदल बंदूकचियों को तैनात किया गया। बंदूकचियों के पीछे घुड़सवारों को रखा गया।
– डॉ. मोहनलाल गुप्ता