भारतीय पुराणों के अनुसार राजा ययाति के शापित पुत्रों- तुर्वसु एवं अनु के वंशजों ने कुत्ते, बिल्ली, सांप आदि का मांस खाना आरम्भ कर दिया और वे चीन के ऊपर स्थित गोबी के रेगिस्तान में जाकर रहने लगे जिसे आजकल मंगोलिया कहा जाता है। चीनी साहित्य के अनुसार ईसा-पूर्व की शताब्दियों में चीन के उत्तर-पश्चिम में अनेक असभ्य एवं बर्बर जातियां रहती थीं जिनमें मंगोल, यू-ची एवं हूंग-नू प्रमुख थे।
आधुनिक इतिहासकारों के अनुसार चीन के उत्तर में स्थित मंगोलिया से लेकर मंचूरिया तथा साइबेरिया तक के प्रदेश में एक प्राचीन जाति रहा करती थी जिसे हूंग-नू कहा जाता था। ये हूंग-नू भारत के इतिहास में ‘हूण’ नाम से जाने जाते हैं। मंगोलिया के हूण लुटेरे अपने प्रदेश के दक्षिण में स्थित चीन देश पर आक्रमण करके चीन की जनता को लूटा करते थे। ईसा के जन्म से लगभग पांच सौ साल पहले चीन की महान् दीवार का निर्माण इन्हीं हूणों के को रोकने के लिए आरम्भ करवाया गया था।
चीन की दीवार संसार की सबसे लम्बी दीवार थी जिसके निर्माण का कार्य कई शताब्दियों तक चलता रहा। इसके बनना आरम्भ होने पर हूण आक्रांताओं को अपने आक्रमणों की दिशा बदलनी पड़ी और वे हूणों के पश्चिम में रहने वाली शक जाति के प्रदेश की तरफ बढ़े। वहीं से वे ‘बाल्हीक’ देश की तरफ बढ़ते हुए आधुनिक अफगानिस्तान से लेकर सम्पूर्ण मध्य-एशिया में फैल गए। यहाँ तक कि वे भारत में भी पहुंच गए।
हूणों के इतिहास में आगे बढ़ने से पहले हमें ‘बाल्हीक’ देश के इतिहास के बारे में कुछ जानना चाहिए। बाल्हीक प्रदेश का उल्लेख महाभारत में भी हुआ है। बाल्हीक प्रदेश का राजा शल्य, नकुल और सहदेव की माता माद्री का भाई था। महाभारत में कर्ण तथा शल्य के बीच हुए संवाद में कहा गया है कि बाल्हीक देश के लोग धान और गुड़ की शराब बनाकर पीते हैं और लहसुन के साथ गोमांस खाते हैं।
इनमें पिता, पुत्र, माता, श्वसुर और सास, चाचा, बहिन, मित्र, अतिथि, दास तथा दासियों के साथ मिलकर शराब पीने और गोमांस खाने की परम्परा है। इनकी स्त्रियां शराब में धुत्त होकर नंगी नाचती हैं। वे गोरे रंग तथा ऊँचे कद की हैं। इस प्रदेश की स्त्रियां बाहर दिखाई देने वाली मालाएं और चन्दन आदि सुगन्धि लगाकर, शराब पीकर, मस्त होकर, घर-द्वार और नगर के बाहर हँसती-गाती और नाचती हैं। वे ऊनी कम्बल लपेटती हैं, उन स्त्रियों का स्वर गधे और ऊँट के समान होता है। उनमें प्रत्येक प्रकार के शिष्टाचार की कमी है। वे खड़ी होकर पेशाब करती हैं।
महाभारत ग्रंथ में बाल्हीक प्रदेश के लोगों के जिस आचरण का वर्णन किया गया है, वह आदिम-हूणों का जान पड़ता है। चूंकि महाभारत ग्रंथ का स्वरूप ईसा से 400 साल पहले से लेकर ईसा से 500 साल बाद तक के काल में बदलता रहा है, इसलिए निश्चित तौर पर यह नहीं कहा जा सकता कि इस ग्रंथ में वर्णित बाल्हीक देश के लोगों का काल क्या था और उसमें सच्चाई कितनी है!
ईसा के जन्म से लगभग सवा तीन सौ साल पहले ‘सिकंदर’ ने भारत पर आक्रमण किया था, तब उसे बाल्हीक क्षेत्र से होकर गुजरना पड़ा था। उस समय इस क्षेत्र में गोरे रंग, छोटी कद-काठी, गोले चेहरे, छोटी आंखें तथा काले बालों वाले लोग रहा करते थे। वस्तुतः ये लोग प्राचीन हूणों के वंशज थे जो चीन की दीवार बन जाने के बाद इस क्षेत्र में आकर रहने लगे थे। जब सिकंदर भारत से वापस यूनान गया तब उसने यूनानी सेनापतियों एवं सैनिकों के सैंकड़ों परिवारों को बाल्हीक देश में छोड़ दिया ताकि वे सिकंदर द्वारा जीते गए इस क्षेत्र पर नियंत्रण रख सकें।
सिकंदर द्वारा ‘बाल्हीक’ क्षेत्र को ‘बैक्ट्रिया’ नाम दिया गया। सिकंदर द्वारा इस क्षेत्र में जिन यूनानी लोगों को बसाया गया था, वे गोरे रंग, लाल बाल, लम्बी कद-काठी तथा नीली आंखों वाले लोग थे। नीली आँखों और लाल बालों के सैंकड़ों सुंदर यूनानी परिवारों के आ बसने से यह क्षेत्र और भी सुंदर हो गया। उनके दैहिक-सौंदर्य के कारण ही अफगानिस्तान के अन्य क्षेत्रों के लोग ‘बैक्ट्रिया’ को ‘नूरिस्तान’ अर्थात् ‘प्रकाश का देश’ कहने लगे।
मौर्य-सम्राट अशोक के शासनकाल में जब सैंकड़ों बौद्ध-भिक्षु, भगवान-बुद्ध के संदेश लेकर दुनिया के विभिन्न हिस्सों में गये तब उनमें से कुछ भिक्षु बैक्ट्रिया तथा बामियान की घाटी में भी गए। उन्होंने यहाँ की पहाड़ियों में भगवान-बुद्ध की हजारों मूर्त्तियों का उत्कीर्णन किया। बुद्ध की इन मूर्त्तियों ने इस क्षेत्र में एक और नये स्वर्ग की रचना की।
जब कोई भूला-बिसरा यात्री इस क्षेत्र में अचानक आ पहुँचता तो मूर्तियों के इस स्वर्ग को देखकर आश्चर्य-चकित रह जाता। जब सूर्य-रश्मियां हरियाली से ढकी हुई पहाड़ियों में बनी भगवान-बुद्ध की हजारों मूर्त्तियों पर अठखेलियां करतीं तो लगता कि रश्मि-रथी सूर्य की पत्नी ‘स्वाति’ ने स्वयं प्रकट होकर भगवान-सूर्य की रश्मियों से इन मूर्तियों एवं घाटियों का श्ृंगार किया है।
चीन के उत्तर-पश्चिम में निवास करने वाले हूण-कबीलों का सैंकड़ों सालों तक इन घाटियों में आगमन होता रहा। गुप्तों के शासनकाल में बैक्ट्रिया के रास्ते से कुछ हूण-लड़ाके भारत में भी घुस आए। वे बौद्ध-धर्म के बड़े शत्रु सिद्ध हुए। उन्होंने भारत भूमि से बौद्धों का लगभग सफाया ही कर दिया। इस कारण गुप्तों के शासनकाल में भारत में वैष्णव-धर्म का पुनरुद्धार संभव हो सका। अंत में गुप्त-शासकों ने ही हूणों को भारत से मार भगाया। भारत-भूमि के छोटे-छोटे टुकड़ों पर शासन करने वाले लगभग समस्त हूण-शासक शिव, विष्णु एवं सूर्य के उपासक थे।
भारत में ‘तोरमाण’ तथा ‘मिहिरकुल’ नामक दो हूण राजाओं के सिक्के मिलते हैं। तोरमाण ने ई.500 में मालवा के विशाल क्षेत्र पर अधिकार करके भारत में हूण-राज्य की स्थापना की। उसके बाद तोरमाण का पुत्र मिहिरकुल मालवा का शासक हुआ। ये दोनों हूण-राजा बौद्धों के बड़े दुश्मन थे। आठवीं शताब्दी ईस्वी के जैन-लेखक ‘उद्योतन सूरी’ ने लिखा है कि मिहिरकुल सम्पूर्ण धरती का स्वामी था। उसने भारत में नौ करोड़ बौद्धों के प्राण लिए।
हूणों के एक कबीले का नाम ‘अस्सेना’ था। अस्सेना लोग नुकीली टोपी पहना करते थे जिन्हें ‘तुर-पो’ कहा जाता था। यह तुर-पो शब्द ही सैंकड़ों साल के अंतराल में घिसकर तिर्क या तुर्क हो गया। इन्हीं तुर्कों में उत्पन्न ‘बूमिन’ नामक एक योद्धा ने ‘ज्वान-ज्वान’ नामक राज्य के मंगोल-राजा को परास्त करके ‘खान’ की उपाधि धारण की। तब से मंगोलों की तरह तुर्क भी स्वयं को ‘खान’ कहने लगे और अपने नाम के साथ ‘खान’ शब्द का प्रयोग उपाधि की तरह करने लगे। ईस्वी 552 में जब तुर्क-योद्धा ‘बूमिन’ की मृत्यु हुई तब तक तुर्क-कबीला बहुत ही शक्तिशाली हो चुका था। संभवतः बूमिन के पीछे ही यह क्षेत्र ‘बामियान’ कहलाया।
मध्य-एशिया के तुर्क शासकों में ‘तोबा खान’ का नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय है। उसका शासनकाल ई.569 से ई.580 तक का था। उसने बौद्ध-धर्म स्वीकार कर लिया था और उसके समय में तुर्की-शासन वाले क्षेत्र में बौद्ध-धर्म के प्रसार में बहुत सहायता मिली थी।
जब अफगानिस्तान में इस्लाम का प्रसार हुआ तो मुसलमानों ने ‘बैक्ट्रिया’ को ‘बल्ख’ कहना आरम्भ कर दिया। आज भी इसे बल्ख अथवा बलख के नाम से जाना जाता है। बल्ख तथा बामियान के बीच लगभग 450 किलोमीटर की दूरी है तथा दोनों ही अफगानिस्तान में स्थित हैं। जब अफगानिस्तान में इस्लाम का प्रसार आरम्भ हुआ तो बैक्ट्रिया के लोगों ने इस्लाम स्वीकार करने से मना कर दिया। अरब से आई इस्लाम की सेनाएं लम्बे समय तक बैक्ट्रिया में निवास करने वाले यूनानी-मूल के लोगों को परास्त नहीं कर सकीं, न ही अन्य किसी तरह से उन्हें इस्लाम स्वीकार करवा सकीं। ये लोग लम्बे समय तक इस्लाम से दूर रहे इसलिए अरब के मुसलमानों ने इस क्षेत्र को ‘काफिरिस्तान’ कहना आरम्भ कर दिया।
धीरे-धीरे जब अरब के मुसलमानों ने मध्य-एशिया में बस चुके कुछ तुर्की कबीलों को अपना गुलाम बनाकर इस्लाम में परिवर्तित कर लिया तो तुर्की-कबीले मध्य-एशिया की राजनीति में शक्तिशाली बनने लगे। 10वीं शताब्दी के आरम्भ में तुर्कों ने बगदाद एवं बुखारा में खलीफाओं के तख्ते पलट दिए। ई.943 में अर्थात् 10वीं शताब्दी के मध्य में मध्य-एशिया के तुर्कों ने अफगानिस्तान में अपने स्वतंत्र राज्य की स्थापना की। इन तुर्कों ने मध्य-एशिया से लेकर अफगानिस्तान तक के विशाल क्षेत्रों पर अनेक तुर्की-राज्य स्थापित किए तथा इस सम्पूर्ण क्षेत्र में इस्लाम का प्रसार हो गया।
– डॉ. मोहनलाल गुप्ता