चूंकि मुगलों का उद्भव तुर्कों एवं मंगोलों के रक्त-मिश्रण से हुआ था इसलिए मुगलों के इतिहास में जाने से पहले हमें तुर्कों एवं मंगोलों के प्रारंभिक इतिहास में झांकना होगा। सर्वप्रथम हम तुर्कों के उद्भव की चर्चा करेंगे। भारतीय पौराणिक साहित्य के अनुसार तुर्कों का इतिहास महाराज ययाति के पुत्रों से आरम्भ होता है। इसलिए हमें भारतीय पुराणों के प्रमुख पात्र महाराज ययाति के इतिहास पर एक दृष्टि डालनी चाहिए।
हिन्दुओं में मान्यता है कि चन्द्रवंशी राजा ययाति के पुत्र ‘तुरू’ के वंशज आगे चलकर ‘तुर्क’ कहलाये। कई पुराणों में राजा ययाति की कथा मिलती है। इस कथा का उल्लेख महाभारत में भी हुआ है जिसके अनुसार राजा ययाति का विवाह दैत्यों के गुरु शुक्राचार्य की पुत्री देवयानी से हुआ था। असुरराज वृषपर्वा की पुत्री शर्मिष्ठा दासी के रूप में देवयानी के दहेज में गई थी किंतु महाराज ययाति ने न केवल देवयानी से संतानें उत्पन्न कीं अपितु उसकी दासी शर्मिष्ठा से भी कुछ संतानें उत्पन्न कीं।
जब यह बात शुक्राचार्य की पुत्री देवयानी को पता चली तो देवयानी ने अपने पिता शुक्राचार्य से राजा ययाति की शिकायत की। दैत्यगुरु शुक्राचार्य ने कुपित होकर राजा ययाति को शाप दिया जिससे राजा का यौवन नष्ट हो गया और असमय ही बुढ़ापा आ गया। राजा ययाति असमय बूढ़ा नहीं होना चाहता था।
शापग्रस्त राजा अत्यंत दुःखी होकर अपने महल में लौट आया। उसके बाल सफेद हो गये थे और चेहरे पर झुर्रियां पड़ गयीं थीं। यह अयाचित, अनपेक्षित और आकस्मिक विपत्ति थी। उसने देवयानी के बड़े पुत्र यदु को अपने पास बुलाया और अपने शाप की पूरी कहानी बताकर कहा- ‘देखो! मैं शाप के कारण बूढ़ा हो गया हूँ किन्तु भोग-विलास की मेरी लालसा अभी मिटी नहीं है। तुम मेरे बड़े बेटे हो। मेरी इच्छा को पूरा करना तुम्हारा धर्म है। मेरा बुढ़ापा तुम ले लो और अपना यौवन मुझे दे दो। जब भोग-विलास से मेरा मन भर जायेगा तो मैं तुम्हारा यौवन तुम्हें लौटा दूंगा।’
राजकुमार यदु नेे अपने पिता की बात सुनकर उसका तिरस्कार करते हुए कहा- ‘पिताजी! बुढ़ापा किसी भी तरह से अच्छा नहीं हैं। सुंदर स्त्रियाँ बूढ़े आदमी का तिरस्कार करती हैं इसलिये मैं आपका बुढ़ापा नहीं ले सकता।’
राजा कुपित हो गया। उसने कहा- ‘तू मेरे हृदय से उत्पन्न हुआ है फिर भी अपना यौवन मुझे नहीं देता! मैं तुझे और तेरी संतान को राज्य के अधिकार से वंचित करता हूँ।’
यदु से निराश होकर राजा ने देवयानी के दूसरे पुत्र तुर्वसु को बुलाया। तुर्वसु ने भी पिता की बात मानने से मना कर दिया। राजा फिर कुपित हुआ। उसने तुर्वसु को शाप दिया- ‘पिता का तिरस्कार करने वाले दुष्ट! जा! तू मांसभोजी, दुराचारी और वर्णसंकर म्लेच्छ हो जा।’
देवयानी के पुत्रों के बाद शर्मिष्ठा के पुत्रों की बारी आई। शर्मिष्ठा के दोनों बड़े पुत्रों द्रह्यु और अनु ने भी पिता को अपना यौवन देने से मना कर दिया। राजा ने उन्हें भी भयानक शाप दिये। शर्मिष्ठा के तीसरे पुत्र पुरू ने पिता की इच्छा जानकर कहा- ‘पिताजी आप मेरा यौवन ले लें।’
राजा प्रसन्न हुआ। उसने पुरू का यौवन लेकर उसे अपने राज्य का उत्तराधिकारी घोषित कर दिया। राजा के शेष पुत्र राजा को त्यागकर चले गये। कहते हैं कि राजा ययाति के शाप के कारण राजकुमार तुर्वसु की संतानें यवन हुईं। उसके वंशज धरती पर दूर-दूर तक फैल गये जो तुर्कों के नाम से जाने गये। ययाति के पुत्र अनु से म्लेच्छ उत्पन्न हुए। कुछ पुराणों के अनुसार राजा ययाति के पुत्र अनु से अभोज्य भोजन करने वाली प्रजा उत्पन्न हुई। वे लोग कुत्ते, बिल्ली, सांप आदि का मांस खाते थे। कुछ इतिहासकारों का अनुमान है कि ‘अनु’ के वंशज ही इतिहास में ‘हूँग-नू’ अथवा हूण कहलाये। ये लोग भी तुरुओं की भांति चीन देश में रहते थे।
आधुनिक इतिहासकारों के अनुसार चीन के उत्तर में स्थित मंगोलिया के विशाल रेगिस्तान में ईसा-पूर्व दूसरी शताब्दी में बर्बर जातियाँ निवास करती थीं जिनका प्रसार पश्चिमी भाग में फैली सीक्यांग पर्वतमाला तक था। मंगोलिया के गोबी प्रदेश में यू-ची नामक एक प्राचीन जाति निवास करती थी। इसके पड़ौस में अत्यंत बर्बर और भयानक लड़ाका जाति रहती थी जिन्हें हूण कहा जाता था। पश्चिमी इतिहासकारों की मान्यता है कि तुर्कों के पूर्वज यही हूण थे जिनका मूल नाम ‘हूंग-नू’ था।
मूल रूप से यह एक चीनी जाति थी। ये लोग गोरे और सुंदर चेहरे वाले थे किंतु स्वभाव से अत्यंत बर्बर, आक्रमणकारी और हिंसक प्रवृत्ति वाले थे। इनकी खूनी ताकत का मुकाबला संसार की कोई दूसरी जाति नहीं कर सकती थी।
चीन की भौगोलिक बनावट उसे दो भागों में बांटती है- मुख्य प्रदेश तथा बाहरी प्रदेश। जहाँ चीन के मुख्य प्रदेश में सभ्यता का तेजी से विकास हुआ और उसने विश्व को सर्वप्रथम कागज, छापाखाना, पहिए वाली गाड़ी, बारूद, क्रॉस बो, दिशा-सूचक यंत्र और चीनी मिट्टी के बर्तन दिये वहीं चीन के बाहरी इलाकों में रहने वाली बर्बर जातियाँ कई सौ सालों तक असभ्य बनी रहीं।
ईसा से चार सौ साल पहले भीतरी चीन में ‘चओ’ राजवंश अपने चरम पर था और अगले सौ साल में उसका सामंती-शासन पूरी तरह समाप्त हो गया। इसके बाद चीन के एकीकरण की प्रक्रिया आरंभ हुई। ईसा-पूर्व दूसरी शताब्दी में ‘हान’ राजवंश के नेतृत्व में चीन के एकीकरण का काम पूरा हो गया और चीन सभ्यता के नवीन विकास की ओर बढ़ गया। यह सब भारत से गये बौद्ध-धर्म के कारण संभव हुआ किन्तु बाहरी चीन इन सब प्रभावों और परिवर्तनों से भी बिल्कुल अछूता रहा जिसके कारण हूण जाति नितांत असभ्य और बर्बर बनी रही। संभवतः राजा ययाति के शाप के कारण वे अब तक मलिन और हिंसक बने हुए थे।
ई.पू.174 से ई.पू.160 तक ‘लाओ शंग’ हूणों का राजा हुआ। वह बर्बरता की जीती जागती मिसाल था। एक बार उसने यू-ची जाति पर आक्रमण कर दिया। यू-ची लोगों ने हूणों का सामना किया किंतु शीघ्र ही यूचियों के पैर उखड़ गये। लाओ शंग ने यू-ची राजा को मार डाला तथा उसकी खोपड़ी निकलवाकर अपने महल में ले गया। उसके बाद लाओ शंग ने जीवन भर उसी खोपड़ी में पानी पिया।
– डॉ. मोहनलाल गुप्ता