गांधी-इरविन पैक्ट के समय जनता को आशा थी कि गांधीजी सरदार भगतसिंह, सुखदेव तथा राजगुरु की फांसी रोकने के लिए वायसराय से बात करेंगे किंतु गांधीजी ने इस सम्बन्ध में कोई बात नहीं की जिससे देश में गांधीजी के आचरण एवं व्यवहार के प्रति असंतोष फैल गया।
अंग्रेज सरकार किसी भी कीमत पर कांग्रेस को द्वितीय गोलमेज सम्मेलन में ले जाना चाहती थी। इसलिये तेजबहादुर सपू्र तथा जयकर के प्रयत्नों से 5 मार्च 1931 को वायसराय लॉर्ड इरविन एवं गांधीजी के बीच एक समझौता हुआ जो गांधी-इरविन पैक्ट कहलाता है। गोलमेज सम्मेलन की छाया के कारण कांग्रेस का पलड़ा भारी था। इसलिये इस पैक्ट से देश को बहुत आशायें थीं।
जिन दिनों, गांधीजी और इरविन की वार्त्ता चल रही थी, उन दिनों भगतसिंह, राजगुरु एवं सुखदेव जेल में बंद थे और उन्हें फांसी की सजा सुनाई जा चुकी थी। अतः देश के कौने-कौने से यह मांग उठी कि गांधीजी को वायसराय पर दबाव बनाकर इन तीनों की फांसी की सजा को आजीवन कारावास में बदलवाना चाहिये किंतु गांधीजी ने अहिंसा के सिद्धांत पर चलते हुए, वायसराय से क्रांतिकारियों के सम्बन्ध में कोई बात नहीं की।
17 फरवरी से 5 मार्च 1931 तक चली इस वार्त्ता में गांधीजी ने यह स्वीकार किया कि कांग्रेस सविनय अवज्ञा आंदोलन वापस ले लेगी तथा इरविन ने यह स्वीकार किया कि सरकार ने सत्याग्रहियों के विरुद्ध अब तक जो कार्यवाहियां की हैं, उन्हें निरस्त कर दिया जायेगा तथा लोगों को जेल से छोड़कर उनकी जमीनें तथा नौकरियां लौटा दी जायेंगी। इस प्रकार इस समझौते में कांग्रेस को वस्तुतः कुछ नहीं मिला था, देश अपनी पुरानी स्थिति पर लौट आया था और देश की आजादी का मुद्दा पूरी तरह गौण हो गया था। क्रांतिकारियों को उनके भाग्य पर अकेला छोड़ दिया गया था। सुभाषचंद्र बोस तथा विट्ठलभाई उस समय विदेश में थे। उन्होंने वहीं से गांधी की कार्यवाही का विरोध किया। सुभाषचंद्र बोस ने घोषणा की कि इस पैक्ट से स्पष्ट है कि गांधी एक राजनीतिज्ञ के रूप में असफल सिद्ध हो चुके हैं।
देश को लगा कि गांधीजी ने अचानक ही और अकारण ही हथियार डाल दिये हैं तथा जिन लोगों ने अब तक बलिदान दिया है, वह सब व्यर्थ चला गया है। कांग्रेसी युवाओं में बहुत नाराजगी थी। स्वयं जवाहरलाल नेहरू इस समझौते से अत्यंत क्षुब्ध थे। गांधी-इरविन पैक्ट के बाद कांग्रेस ने सविनय अवज्ञा आंदोलन वापस ले लिया और घोषणा की कि वह दूसरे गोलमेज सम्मेलन में भाग लेगी।
सरकार ने कांग्रेस पर से प्रतिबंध हटा लिया और समस्त सत्याग्रहियों को रिहा कर दिया। इस पैक्ट के कुछ दिन बाद मार्च 1931 के अंतिम दिनों में, कांग्रेस का कराची अधिवेशन हुआ। उस समय भारत का राजनैतिक वातावरण अत्यंत उत्तेजित था। अधिवेशन से ठीक एक दिन पहले भगतसिंह, राजगुरु और सुखदेव को फांसी दे दी गई थी।
करोड़ों भारतीयों के मन में यह प्रश्न था कि गांधीजी ने अचानक सविनय अवज्ञा आंदोलन क्यों बंद किया ? भारतीय युवा चाहते थे कि आंदोलन तब तक जारी रखा जाये जब तक भारत स्वतंत्र न हो जाये। वे ये भी चाहते थे कि अंग्रेज सरकार से कोई समझौता न किया जाये। इस विरोध के कारण यह साफ दिखाई देने लगा कि कराची सम्मेलन में गांधी-इरविन पैक्ट को पारित नहीं कराया जा सकेगा।
-डॉ. मोहनलाल गुप्ता