अहमदिया मुसलमानों का नरसंहार जिन्ना के पाकिस्तान पर बहुत बड़ा कलंक है। पाकिस्तान के मुसलमान अहमदिया मुसलमानों का नरसंहार इसलिए करते हैं क्योंकि सुन्नियों और शियाओं की दृष्टि में अहमदिया मुसलमान, मुसलमान नहीं हैं।
अहमदिया सम्प्रदाय एक धार्मिक आंदोलन है, जो अविभाजित भारत में 23 मार्च 1889 को आरम्भ हुआ। इस सम्प्रदाय के प्रवर्त्तक मिर्जा गुलाम अहमद (ई.1835-1908) थे। उनके अनुयाई गुलाम अहमद को मुहम्मद के बाद एक और पैगम्बर एवं नबी मानते हैं जबकि इस्लाम की मान्यताओं के अनुसार ‘पैगम्बर मोहम्मद’ ख़ुदा के भेजे हुए अन्तिम पैगम्बर हैं। पाकिस्तान में अहमदियाओं को मुसलमान नहीं, अल्पसंख्यक का दर्जा दिया गया है। इन्हें मिरजई मुसलमान भी कहा जाता है।
अहमदिया समुदाय अल्लाह, कुरान शरीफ ,नमाज़, दाढ़ी, टोपी, बातचीत एवं जीवन-शैली आदि में मुसलमान प्रतीत होते हैं किंतु वे हज़रत मोहम्मद को अपना अंतिम पैगम्बर स्वीकार नहीं करते। उनका मानना है कि नबुअत (पैगम्बरी ) की परंपरा अब भी जारी है। इस कारण अन्य मुस्लिम समुदायों के लोग सामूहिक रूप से इस समुदाय का घोर विरोध करते हैं।
अहमदिया मुसलमानों को कादियानी भी कहा जाता है क्योंकि इनका आरम्भ पंजाब के गुरदासपुर जिले के कादियान कस्बे में हुआ था। भारत की आजादी से पहले अहमदिया नेता चौधरी जफरुल्ला खाँ द्वारा दो-राष्ट्र के सिद्धांत के पक्ष में दी गई सशक्त दलीलों के कारण मुहम्मद अली जिन्ना उससे अत्यंत प्रभावित था।
जिन्ना ने चौधरी जफरुल्ला खाँ को 1947 में पाकिस्तान का पहला विदेश मंत्री बनाया। भारत विभाजन के बाद अधिकतर अहमदिया पाकिस्तान चले गए, लेकिन विभाजन के बाद से ही वहाँ उन पर अत्याचार होने लगे, जो धीरे-धीरे चरम पर पहुंच गए। पाकिस्तान में अब इन लोगों का अस्तित्व खतरे में है। अहमदिया खुद को मुसलमान कहते हैं लेकिन पाकिस्तान का कानून उन्हें मुसलमान नहीं मानता।
पाकिस्तान में ई.1953 में पहली बार अहमदिया मुसलमानों का नरसंहार हुआ जिसमें सैकड़ों अहमदिया मुसलमानों को मौत के घाट उतारा गया। ई.1974 में प्रधानमंत्री जुल्फिकार अली भुट्टो के नेतृत्व में पाकिस्तानी संसद ने अहमदियों को गैरमुस्लिम घोषित किया। इसके बाद पूरे पाकिस्तान में अहमदियों के खिलाफ दंगे हुए। तब से यह समुदाय इस्लामिक देश पाकिस्तान में कानूनी और सामाजिक भेदभाव का शिकार है। उन्हें काफिर कहा जाता है। जब अहमदिया मुसलमान पाकिस्तान पहुंचे तो उन्होंने पाकिस्तान के पंजाब सूबे में अपने लिए रबवा नामक अलग शहर बसाया। रबवा में 50 लाख से अधिक अहमदी रहते थे।
ई.1974 में सुन्नी कट्टरपंथियों ने अहमदियों की दुकानें और घर लूट लिए और उनमें आग लगा दी। इस हिंसा में हजारों अहमदी मारे गए और कई हजार घायल हुए। पाकिस्तानी सरकार, पाकिस्तानी मुस्लिम समाज एवं आतंकवादी संगठनों द्वारा जुल्म ढाए जाने पर बहुत से अहमदिया पाकिस्तान छोड़कर इंग्लैण्ड चले गए। अहमदियों का बहुत बड़ा समूह रबवा से पलायन करके चीन की सीमा पर शरणार्थी बनकर रहने लगा, शेष अहमदिया पाकिस्तान के भीतर ही रहकर अपने अस्तित्व को समाप्त होते हुए देख रहे हैं।
1980 के दशक में पाकिस्तान के सैनिक शासक जियाउल हक ने पाकिस्तान को पूरी तरह इस्लामिक मुल्क बनाया तब सरकार द्वारा अहमदियों के उपासना स्थल बंद कर दिए गए या ढहा दिए गए। अब वे अपनी इबादतगाहों को मस्जिद नहीं कह सकते। ई.1982 में राष्ट्रपति जिया उल हक ने पाकिस्तान के संविधान में फिर से संशोधन किया। इसके तहत अहमदियों पर पाबंदी लगा दी गई कि वे खुद को मुसलमान नहीं कह सकते और पैगंबर मुहम्मद की तौहीन करने पर मौत की सजा तय कर दी गई।
उनके कब्रिस्तान अलग कर दिए गए। सरकारी आदेश पर अहमदियों की मस्जिदों को ढहा दिया गया। उनके कब्रिस्तान की कब्रों पर लिखी आयतें हटा दी गईं। इस कारण भारी संख्या में अहमदियों का पलायन हुआ।
हजारों अहमदियों ने अपना देश छोड़कर दूसरे देशों में शरण ली। 28 मई 2010 में तालिबानी आतंकियों ने पाकिस्तान में 2 अहमदी मस्जिदों को निशाना बनाया। लाहौर की बैतुल नूर मस्जिद पर फायरिंग की गई, ग्रेनेड फेंके गए और कुछ आतंकी अपने शरीर पर बम बांधकर मस्जिद में घुस गए। इस हमले में 94 लोग मारे गए और 100 से अधिक घायल हुए। दूसरी मस्जिद दारुल जिक्र भी लाहौर की ही थी।
यहाँ 67 अहमदी मारे गए। इसके बाद उन पर लगातार हमले होते रहे हैं। आज विश्व के 206 देशों में कई करोड़ अहमदी निवास करते हैं किंतु उनके अपने देश पाकिस्तान में अहमदियों की संख्या केवल 30 लाख बची है। भारत में 10 लाख, नाइजीरिया में 25 लाख और इंडोनेशिया में लगभग 4 लाख अहमदिया मुसलमान रहते हैं। अहमदिया मुसलमान सर्वाधिक संख्या में इंग्लैड में निवास करते हैं।
यदि पाकिस्तान में किसी अहमदिया मुसमान को चोरी-छिपे सुन्नी कब्रिस्तान में दफना दिया जाता है तो उसके शव को कब्र एवं कब्रिस्तान दोनों से बाहर निकाल दिया जाता है।
वर्ष 2000 के दशक में चंदासिंह गांव की शिक्षिका नादिया हनीफ के शव को इसी कारण से कब्र से बाहर निकाल दिया गया। इसी प्रकार यदि किसी स्कूल में चोरी-छिपे किसी अहमदिया बालक का नाम लिखवा दिया जाता है तो उसकी पहचान होते ही उसे स्कूल से निकाल दिया जाता है और उसे किसी कॉलेज या यूनिवर्सिटी में प्रवेश नहीं दिया जाता।
कुछ साल पहले मानसेरा नामक गांव के हाईस्कूल में एक अहमदी छात्र रहील अहमद के नाम में कादियानी जोड़ दिया गया इस कारण उसे पाकिस्तान की किसी भी यूनिवर्सिटी ने आगे पढ़ने के लिए प्रवेश नहीं दिया। पाकिस्तान में अहमदिया मुसलमानों का नरसंहार आज भी जारी है।
-डॉ. मोहनलाल गुप्ता