Tuesday, December 3, 2024
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नदी जल विभाजन – पाकिस्तान का पानी खतरे में

जब भारत और पाकिस्तान का बंटवारा हुआ तो केवल जनसंख्या एवं भूमि का ही बंटवारा नहीं हुआ, नदियों का बंटवारा भी हुआ किंतु पाकिस्तान ने जिस तरह भूमि के बंटवारे को विवादास्पद बना दिया, उसी प्रकार नदी जल विभाजन को भी विवादास्पद बना दिया।

जबकि वास्तविकता यह थी कि जितनी जनसंख्या पाकिस्तान को मिली थी उसके अनुपात में पाकिस्तान को भूमि भी अधिक मिली थी और नदी जन विभाजन भी पिकस्तान के पक्ष में हुआ था। अविभाजित भारत में हुई 1941 की जनगणना रिपोर्ट में कहा गया था कि सिंधु नदी जल प्रणाली पर 4.60 करोड़ जनसंख्या निर्भर करती है।

रैडक्लिफ आयोग की रिपोर्ट के अनुसार हुए विभाजन के बाद इसमें से 2.50 करोड़ जनसंख्या पाकिस्तान में चली गई तथा 2.10 करोड़ जनसंख्या भारत में रह गई। …… इस विभाजन के बाद सतलज, रावी और व्यास नदियों से निकलने वाली नहरों के हैडवर्क्स तथा इन नदियों से निकलने वाली 25 में से 20 नहरें भारत में रहीं। एक नहर भारत और पाकिस्तान दोनों के क्षेत्रों में बहती है। भारत चाहता तो पाकिस्तान को जाने वाली समस्त नहरों का पानी रोक सकता था किंतु भारत ने ऐसा नहीं किया।

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20 दिसम्बर 1947 को पाकिस्तान एवं भारत के अभियंताओं के बीच नदी जल विभाजन के लिए इन नहरों के सम्बन्ध में एक यथास्थिति समझौता हुआ जिसकी अवधि 31 मार्च 1948 को समाप्त होनी थी। इसके बाद नया समझौता किया जाना था किंतु वह नहीं हुआ। जिस दिन समझौता समाप्त हुआ, भारत ने उसी दिन दो महत्वपूर्ण नहरों में पानी की आपूर्ति बंद कर दी और एक नया स्थाई समझौता किए जाने की मांग की। पानी की आपूर्ति पुनः एक माह बाद आरम्भ हुई जब दोनों देशों के बीच इस बात पर सहमति हुई कि पाकिस्तान को दूसरे विकल्प का समय दिए बिना पानी की आपूर्ति बंद नहीं की जाएगी।

भारत के नेता नदी जल विभाजन को एक तकनीकी समस्या मानते थे किंतु पाकिस्तान के नेताओं ने इसे पाकिस्तान की कृषि बर्बाद करने की भारतीय साजिश माना। भारत और पाकिस्तान के बीच एक बार पुनः यथास्थिति बनाए रखने का अस्थाई समझौता हो गया किंतु स्थाई समझौता होना आवश्यक था। इसलिए विश्व बैंक के अध्यक्ष की मध्यस्थता स्वीकार की गई।

विश्व बैंक के अध्यक्ष यूजीन ब्लैक ने इस समस्या के अध्ययन के लिए एक समिति का गठन किया जिसमें भारत, पाकिस्तान एवं विश्वबैंक के अभियंता सम्मिलित किए गए। इस समिति ने 5 जून 1954 को भारत एवं पाकिस्तान को निम्नलिखित सुझाव दिए-

(1) सिंधु, झेलम और चिनाव के सारे जल का उपयोग पाकिस्तान को करने दिया जाए तथा झेलम नदी के उस जल को जो काश्मीर में उपयोग में लाया जाता है, उसे भारत को उपयोग में लेने दिया जाए।

(2) सतलज, रावी और व्यास का समस्त जल भारत को उपयोग में लेने दिया जाए। उसमें से कुछ जल भारत 5 वर्ष तक पाकिस्तान को दे।

(3) प्रत्येक देश अपनी भूमि में बांध इत्यादि बनाएगा परंतु योजक नहरों का खर्च भारत उस सीमा तक सहन करेगा, जहाँ तक उसका लाभ भारत को मिलेगा। यह खर्च 40 से 60 लाख के बीच आता है।

(4) विश्व-बैंक की समिति के अनुसार भारत को अपनी 2 लाख एकड़ भूमि के लिए सिंधु नदी जलक्षेत्र का 20 प्रतिशत जल मिलना था। पाकिस्तान को अपनी 4 लाख एकड़ भूमि के लिए 80 प्रतिशत जल मिलना था।

इस समिति की सिफारिशों को मानने से भारत को बहुत हानि होने वाली थी तथा पाकिस्तान को बहुत लाभ होने वाला था क्योंकि योजक नहरों का निर्माण भारत को करना था और उसे केवल 20 प्रतिशत जल मिलना था साथ ही भारत को चिनाव नदी के जल से सदा के लिए वंचित कर दिया गया था। इसके बावजूद भारत ने इस प्रस्ताव को तुरंत स्वीकार कर लिया जबकि पाकिस्तान ने बहुत सारी ना-नुकर एवं शर्तों के साथ 5 अगस्त 1954 को इन प्रस्तावों को स्वीकार किया।

विश्व-बैंक समिति द्वारा प्रस्तावित इस समझौते को स्वीकार करने के बाद पाकिस्तान ने भारत में सतलुज नदी पर बन रहे भाखड़ा बांध पर आपत्ति खड़ी कर दी एवं विश्व-बैंक से भारत द्वारा समझौते के उल्लंघन की शिकायत की। विश्व-बैंक ने इस शिकायत की जांच की तो पाया कि इस बांध की योजना ई.1920 में बनी थी तथा ई.1946 से इस बांध पर काम चल रहा था।

ई.1952 में गठित विश्व-बैंक समिति को भी इस बांध के बारे में बताया गया था तथा इसका निर्माण समझौते के अंतर्गत ही हो रहा है। ई.1957 में जब सुहरावर्दी पाकिस्तान का प्रधानमंत्री था, उसने नहरों के जल-बंटवारे को लेकर एक बार फिर से अंतर्राष्ट्रीय मंचों पर भारत के खिलाफ मोर्चा खोल दिया।

1 जून 1957 को सुहरावर्दी ने एसोसिएटेड प्रेस को दिए गए साक्षात्कार में कहा-

‘हम पर भारत की पकड़ के दो शिकंजे नहरी जल एवं काश्मीर हैं। …… भारत ने बांध बना लिए हैं तथा सतलुज एवं दो अन्य नदियों जो पाकिस्तान के पश्चिमी भाग में सिंचाई हेतु जल की आपूर्ति करती हैं, को काट देने का भारत का इरादा है। ऐसा करने के लिए वे अगले वर्ष तैयार रहेंगे। काश्मीर से निकलने वाली तीन नदियों के जल को भी वे नियंत्रित कर सकते हैं।

भारत दावा करता है कि उसे राजस्थान के रेगिस्तान को सिंचित करने के लिए पानी चाहिए। वे पाकिस्तान से कहते हैं कि जल में आने वाली कमी की पूर्ति काश्मीर से निकलने वाली तीनों नदियों के पानी की आवक से कर लें। इसके लिए खर्चीले बांधों एवं नहरों की आवश्यकता होगी, परन्तु मैं नहीं सोचता कि इस योजना के लिए वे हमें कुछ भी चुकाने का सच्चा इरादा रखते हैं।’

निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि पाकिस्तान का प्रधानमंत्री सुहरावर्दी बड़ी बेशर्मी के साथ भारत से निकलने वाली नदियों के पानी को पाकिस्तान में काम लेने के लिए, न केवल भारत में बनने वाली योजक नहरों एवं बांधों के लिए पैसा मांग रहा था अपितु बड़ी बेशर्मी और ढिठाई के साथ उसे पाकिस्तान में बनने वाले बांधों एवं नहरों के लिए भी भारत से पैसा चाहिए था।

इस पर टिप्पणी करते हुए भारतीय सिंचाई मंत्री एस. के. पाटिल ने एक वक्तव्य दिया-

‘सुहरावर्दी ने इसे अपने जीवन का लक्ष्य बना लिया है कि वे नहरी जल-विवाद के बारे में सभी तथ्य एवं सत्य को तोड़-मरोड़कर प्रस्तुत करेंगे।’

30 अक्टूबर 1958 को कराची में एक समाचारपत्र सम्मेलन में पाकिस्तान के नए सैनिक शासक जनरल अयूब खाँ ने काश्मीर एवं नहरी जल मसलों पर भारत के साथ युद्ध छेड़ने की धमकी दी। उसने यह भी कहा-

‘पाकिस्तान की जल समस्या के निपटारे के लिए बनी परियोजनाओं को पूरा होने के लिए 10 से 15 वर्ष लगेंगे। अतः इस अवधि में भारत को उसे जल देना चाहिए तथा इन योजनाओं का व्यय भी वहन करना चाहिए। पानी की जो मात्रा हमें अब तक मिलती रही है, वह मिलती रहनी चाहिए अन्यथा हमारी भूमि बंजर हो जाएगी। हमारे पास जो भी संभव है, उसके लिए अन्य रास्ता अपनाने के अतिरिक्त हमारे पास और कोई विकल्प नहीं रहेगा।’

बेशर्मी के मामले में पाकिस्तानी सैनिक शासक अयूब खाँ प्रधानमंत्री सुहरावर्दी से भी मीलों आगे निकल गया था। वह न केवल पाकिस्तान में बनने वाली नहरों एवं बांधों के लिए भारत से धनराशि मांग रहा था अपितु उसके लिए युद्ध छेड़ने की धमकी भी दे रहा था। यह तो पिण्डारियों की भाषा थी जिन्हें ई.1818 में अंग्रेजों ने कुचलकर पूरे भारत से मिटा दिया था। लगता था अब वही भाषा एक बार फिर से, पाकिस्तान में प्रकट हो रही थी।

भारत के अंतर्राष्ट्रीय मंचों पर बनाए गए दबाव के बाद 17 अप्रेल 1959 को वाशिंगटन में नहरी जल के सम्बन्ध में एक नए अंतरिम समझौते पर हस्ताक्षर हुए। 6 एवं 7 मई 1959 को भारतीय संसद में इस समझौते की जानकारी देते हुए भारत के सिंचाई एवं ऊर्जा मंत्री एम. एम. इब्राहीम ने कहा कि दोनों देशों की सरकारों ने इस समझौते को स्वीकार कर लिया है तथा यह विश्वास दिलाया है कि इस समझौते से राजस्थान नहर का कार्य प्रभावित नहीं होगा।

19 सितम्बर 1960 को कराची में जनरल अयूब एवं भारत के प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू के मध्य सिंधु जल संधि पर हस्ताक्षर हुए। इस समझौते की मुख्य शर्तें इस प्रकार थीं-

1. भारत को तीन पूर्वी नदियों- सतलुज, रावी और व्यास के पानी का प्रयोग करने का पूर्ण अधिकार होगा।

2. पाकिस्तान को पश्चिम की तीन नदियों- झेलम, चिनाव एवं सिन्धु के पानी के पूर्ण प्रयोग का अधिकार होगा।

3. विश्व बैंक और 6 मित्र राष्ट्र अमरीका, कनाडा, ब्रिटेन, ऑस्ट्रेलिया, न्यूजीलैण्ड और पश्चिमी जर्मनी, भारत एवं पाकिस्तान दोनों के योजक नहरों के निर्माण हेतु 1977 तक धन देंगे। तब तक के लिए भारत पाकिस्तान को यथावत् पानी देना जारी रखेगा।

4. भारत ने पाकिस्तान को नई नहरें एवं बांध निर्माण हेतु 100 करोड़ रुपया देना स्वीकार किया।

5. पाकिस्तान को जो पानी मिलेगा, उसकी अवधि पाकिस्तान की प्रार्थना पर बढ़ाई भी जा सकती है परन्तु उसी अनुपात में दी जाने वाली धनराशि की मात्रा में कमी हो सकती है।

भारत-विभाजन के साथ ही पाकिस्तान से चल रहे गम्भीर जल-विवाद के उपरांत भी भारत सरकार की ढिलाई के कारण पिछले बहत्तर सालों से भारत के हिस्से का पानी पाकिस्तान की तरफ बहने वाली नदियों एवं नहरों में बहता रहा है जिसके कारण भारत के पंजाब, हरियाणा एवं दिल्ली आदि राज्यों की जनता प्रादेशिक नदी-जल समझौतों के अनुसार जल की मात्रा प्राप्त करने में असमर्थ है एवं दिल्ली सरकार पर दबाव बनाकर अधिक जल प्राप्त करने तथा दूसरे प्रांत को जल न देने के लिए संघर्षरत है।

भारत के वर्तमान प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने पाकिस्तान की ओर से हुए उरीएवं पुलमावा आतंकवादी हमलों के बाद भारत की पुरानी नीति में बदलाव करते हुए भारत की जनता से वायदा किया है कि वे पाकिस्तान के साथ हुए नदी जल विभाजन समझौते के अनुसार पाकिस्तान को जल जाने देंगे। भारत की नदियों से पाकिस्तान को जा रहे अतिरिक्त जल में से भारतीयों के हिस्से के जल को पाकिस्तान की ओर बहने से रोकेंगे।

यदि ऐसा हुआ तो पंजाब, दिल्ली, हरियाणा एवं राजस्थान की तरफ बहने वाली नदियों एवं नहरों में पर्याप्त जल बहने लगेगा तथा उत्तर-पश्चिमी भारत की जनता को सिंचाई एवं पेयजल के लिए पर्याप्त जल उपलब्ध हो सकेगा।

-डॉ. मोहनलाल गुप्ता

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