जिस समय लॉर्ड माउण्टबेटन भारत का विभाजन करने एवं उसे आजादी देने के उद्देश्य से भारत पहुंचे तो भारत के नेता और जनता दो धड़ों में बंट गए। एक धड़ा भारत विभाजन के लिए पागल हुआ पड़ा था और दूसरा धड़ा भारत विभाजन को ही पागलपन समझता था।
कांग्रेस एवं मुस्लिम लीग के नेताओं से हुए विचार-विमर्श से भारत के नए वायसराय लॉर्ड माउण्टबेटन तुरंत समझ गए कि भारत का बंटवारा अनिवार्य है। मुसलमानों को पाकिस्तान देना ही होगा। अन्यथा कांग्रेस और मुस्लिम लीग अनन्त काल तक एक दूसरे से लड़ते ही रहेंगे। इसलिए उन्होंने भारत विभाजन की एक योजना तैयार की तथा इंग्लैण्ड की एटली सरकार को भेज दी।
इस योजना के साथ माउण्टबेटन ने एक पत्र भी लिखा- ‘विभाजन केवल पागलपन है। अगर इन अविश्वसनीय कौमी दंगों ने एक-एक व्यक्ति को वहशी न बना दिया होता, अगर विभाजन का एक भी विकल्प ढूंढ सकने की स्थिति होती तो दुनिया का कोई व्यक्ति मुझे इस पागलपन को स्वीकार करने के लिये बहका नहीं सकता। विश्व के सामने स्पष्ट रहना चाहिये कि ऐसे दीवानगी भरे फैसले की पूरी जिम्मेदारी भारतीय कंधों पर है, क्योंकि एक दिन ऐसा जरूर आयेगा जब स्वयं भारतीय अपने इस फैसले पर बुरी तरह पछतायेंगे।’
यह एक बड़ी विचित्र बात थी कि जिन भारतीय नेताओं को माउंटबेटन ने भारत विभाजन के लिये बड़ी मुश्किल से तैयार किया था, उन्हीं भारतीय नेताओं पर माउंटबेटन ने भारत विभाजन का आरोप रख दिया। माउंटबेटन को अपने प्रतिवेदन में ‘भारतीयों’ शब्द का प्रयोग न करके ‘लीगी नेताओं’ शब्द प्रयुक्त करने चाहिये थे।
31 मार्च 1947 को गांधीजी ने माउण्टबेटन से भेंट की और गांधीजी को यह जानकर दुःख हुआ कि पटेल और नेहरू भी विभाजन के समर्थक हो गए हैं। गांधीजी की वायसराय से हुई भेंट के बाद मौलाना अबुल कलाम आजाद गांधीजी से मिलने पहुंचे। मौलाना अबुल कलाम आजाद ने इस भेंट के संस्मरण अपनी पुस्तक इण्डिया विन्स फ्रीडम में लिखे हैं- ‘मैं फौरन उनसे मिलने गया । गांधीजी का पहला कटाक्ष था- बंटवारा अब खतरा बन गया है। लगता है कि वल्लभभाई और यहाँ तक कि जवाहरलाल ने भी घुटने टेक दिए हैं। अब आप क्या कीजिएगा? क्या आप मेरा साथ देंगे या आप भी बदल गए हैं?’
मौलाना ने जवाब दिया- ‘मैं बंटवारे के खिलाफ रहा हूँ और अब भी हूँ। बंटवारे के खिलाफ जितना मैं आज हूँ उतना पहले कभी न था लेकिन मुझे यह देखकर अफसोस है कि जवाहरलाल और सरदार पटेल ने भी हार मंजूर कर ली है और आपके शब्दों में हथियार डाल दिए हैं। मेरी आशा अब एकमात्र आप पर टिकी है। अगर आप बंटवारे के खिलाफ खड़े हों तो हम अब भी उसे रोक सकते हैं। अगर आप भी मंजूर कर लेते हैं तो मुझे यह डर है कि हिंदुस्तान का सर्वनाश हो जाएगा।’
गांधीजी ने कहा- ‘आप भी कैसा सवाल पूछते हैं? अगर कांग्रेस बंटवारा मंजूर करेगी तो उसे मेरी लाश के ऊपर करना पड़ेगा। जब तक मैं जिंदा हूं मैं भारत के बंटवारे के लिए कभी राजी न हूंगा। और अगर मेरा वश चला तो कांग्रेस को भी इसे मंजूर करने की इजाजत नहीं दूंगा।
…….. बाद में उसी दिन गांधीजी लॉर्ड माउंटबेटन से मिले। वे दूसरे दिन भी उनसे मिले और फिर दो अप्रैल को भी मिले। ज्यों ही वे लॉर्ड माउंटबेटन से पहली बार मिलकर वापस आए त्यों ही सरदार पटेल उनके पास पहुंचे और दो घण्टे तक गुप्त वार्ता करते रहे। इस मुलाकात में क्या हुआ, मैं नहीं जानता। लेकिन जब मैं फिर गांधीजी से मिला तो मुझे इतना बड़ा आघात लगा जितना जिंदगी में कभी भी नहीं लगा था, क्योंकि मैंने देखा कि वह भी बदल गए हैं।’
गांधीजी भी क्यों बदल गए और बंटवारे के पक्ष में हो गए, इसके ऊपर प्रकाश डालते हुए आजाद ने बताया कि देश की एकता बचाए रखने के लिए गांधीजी ने लॉर्ड माउंटबेटन को सुझाव दिया था कि जिन्ना को सरकार बनाने दी जाए और उन्हें अपने मंत्रिमण्डल के सदस्यों का चुनाव करने दिया जाए। माउंटबेटन को यह बात कुछ जंच गई थी किंतु इस सुझाव का जबर्दस्त विरोध नेहरू और पटेल दोनों ने किया और इसे वापस लेने के लिए गांधीजी को बाध्य किया।
आजाद ने लिखा- ‘गांधीजी ने मुझे यह बात याद दिलाई और कहा कि परिस्थितियां अब ऐसी हैं कि बंटवारा अवश्यंभावी लगता है।’ मौलाना अबुल कलाम आजाद का विचार था कि गांधीजी, सरदार पटेल के प्रभाव के कारण बंटवारे का विरोध नहीं कर सके और उसके समर्थक बन गए।
भारत स्वतंत्रता के द्वार पर खड़ा था और उसके नेता अभी भी घनघोर असमंजस में थे। उस काल के कुछ मुस्लिम नेता भारत विभाजन के माध्यम से मुसलमानों का भला करना चाहते थे तो कुछ नेता मुसलमानों को भारत में रखकर ही उनका भला करना चाहते थे। मौलान आजाद भी उन मुस्लिम नेताओं में से थे जो इस बात को समझते थे कि यदि मुसलमना भारत में रहेंगे तो उन्हें अधिक संसाधन एवं अवसर उपलब्ध होंगे।
-डॉ. मोहनलाल गुप्ता