जब मुहम्मद अली जिन्ना ने देखा कि गांधीजी हिन्दुओं के साथ-साथ मुसलमानों के भी नेता बने रहना चाहते हैं तथा किसी भी कीमत पर मुसलमानों को पाकिस्तान नहीं देना चाहते हैं तो जिन्ना ने देश में साम्प्रदायिक दंगे करने की नीति अपनाई। इस दिशा में पहले प्रयोग के रूप में अलीगढ़ में साम्प्रदायिक दंगे करवाए गए।
जिस समय कैबीनेट मिशन भारत में था, उस पर मानसिक दबाव बनाने के लिए 29 मार्च 1946 को अलीगढ़ में दंगों से शुरुआत की गई। भारत सरकार के होम डिपार्टमेंट की गोपनीय रिपोर्ट के अनुसार यह दंगा 29 मार्च 1946 को उस समय शुरु हुआ जब अलीगढ़ विश्वविद्यालय के मुस्लिम विद्यार्थियों एवं एक हिन्दू कपड़े के व्यापारी के बीच आपसी झड़पें हुईं। इस दंगे में 17 लोग घायल हुए जिनमें से एक की मौत हो गई। दुकानों के जलने से 5 से 10 लाख रुपए की सम्पत्ति नष्ट होने का अनुमान था।
मुस्लिम लीग का दिल्ली अधिवेशन
जिस समय कैबीनेट मिशन भारत में विभिन्न पक्षों से बात कर रहा था, उसी दौरान अप्रेल 1946 के प्रारम्भ में नई दिल्ली में मुस्लिम लीग के विधान सभा सदस्यों ने एक अधिवेशन आयोजित किया। इसमें लीग के नेताओं ने कैबीनेट मिशन के सदस्यों पर दबाव बनाने के लिए भड़काऊ भाषण दिए।
जिन्ना ने हर संभव तरीके से विरोध करने की धमकी दी। उसने कहा- ‘यदि कोई भी अंतरिम व्यवस्था मुसलमानों पर थोपी गई तो मैं स्वयं को किसी भी खतरे, परीक्षा या बलिदान जो भी मेरे से मांगा जा सकता है, को झेलने के लिए शपथ लेता हूँ।’
अधिवेशन में सभी मुस्लिम सदस्यों द्वारा पढ़े जाने के लिए एक प्रतिज्ञा तैयार की गई जिसमें कहा गया– ‘मैं अपने आप को मेरे से जो भी बलिदान, परीक्षा या खतरा उठाने हेतु कहा जाएगा, झेलने की शपथ लेता हूँ।’
पंजाबी नेता फिरोज खाँ नून ने कहा- ‘जो विनाश मुस्लिम करेंगे, उससे चंगेज खां और हलाकू ने जो किया, उसे भी शर्म आ जाएगी।’
उसने यह भी कहा कि यदि ब्रिटेन अथवा हिन्दुओं ने पाकिस्तान नहीं दिया तो रूस यह कार्य करेगा। बंगाल के मुख्यमंत्री सुहरावर्दी ने कहा- ‘यदि हिन्दू सम्मान और शांति से रहना चाहते हैं तो कांग्रेस को पाकिस्तान की स्वीकृति देनी चाहिए।’
सीमांत नेता कयूम खाँ ने घोषणा की- ‘मुसलमानों के पास सिवाय तलवार निकालने के और कोई मार्ग नहीं बचेगा।’
बंगाल लीग के जनरल सैक्रेटरी अब्दुल हाशिम ने कहा- ‘जहाँ न्याय और समता असफल हो, चमचमाता इस्पात मसले को तय करेगा।’
पंजाब के शौकत हयात खाँ ने कहा- ‘मेरे प्रांत की लड़ाकू जाति केवल एक उपयुक्त अवसर की प्रतीक्षा कर रही है। आप हमें केवल एक अवसर दीजिए और हम नमूना पेश कर देंगे जबकि ब्रिटिश सेना अभी भी मौजूद है।’
मुस्लिम लीग का आक्रोश मुख्य रूप में अंग्रेज सरकार पर बरसा जिस पर ब्रिटिश मजदूर दल का नियंत्रण था। उसने प्रारम्भिक वर्षों में लीग की अपेक्षा कांग्रेस के प्रति अधिक सहानुभूति का प्रदर्शन किया था।
मुस्लिम लीग के इस रवैये पर कड़ी प्रतिक्रिया करते हुए जवाहरलाल नेहरू ने घोषणा की कि- ‘पृथ्वी पर कोई भी ताकत यहाँ तक कि संयुक्त राष्ट्र संघ भी पाकिस्तान को अस्तित्व में नहीं ला सकती जैसा कि जिन्ना चाहते हैं।’
पटेल ने मुसलमानों से कहा कि- ‘मुसलमानों एवं हिन्दुओं के मध्य गृहयुद्ध की कीमत पर ही उन्हें पाकिस्तान मिल सकता है।’
शिमला में त्रिदलीय सम्मेलन
5 मई 1946 को सरकार ने शिमला में त्रिदलीय सम्मेलन बुलाया। इसमें कैबीनेट मिशन द्वारा प्रस्तावित किया गया कि भारत में एक केन्द्र सरकार का गठन किया जाएगा जिसके पास विदेशी मामले, रक्षा एवं संचार मामले रहेंगे। प्रांतों का समूहीकरण होगा जो अन्य मामलों को निबटाएगा और शेष अधिकार भी उन्हीं के पास रहेंगे।
इस सम्मेलन में कांग्रेस ने एक शक्ति सम्पन्न केन्द्र के निर्माण पर जोर दिया तथा मांग की कि प्रस्तावित भारतीय संघ, कैबीनेट मिशन द्वारा सुझाए गए तीन विषयों के अतिरिक्त मुद्रा, कस्टम और ऐसे विषयों को देखे जो उसके अनुकूल हों। संघ को आवश्यकतानुसार आय वसूल करने तथा संविधान के विफल होने की स्थिति में या संकटकाल में आवश्यकतानुसार कार्यवाही करने में सक्षम होना चाहिए।
कांग्रेस के इस प्रस्ताव में ई.1928 के नेहरू कमेटी के प्रस्तावों को ही दोहराया गया था। दूसरी ओर मुस्लिम लीग शक्तिशाली मुस्लिम प्रांतों के समूहों का संगठन चाहती थी जो पाकिस्तान का जन्मदाता बन सके और संघीय सरकार की शक्ति को क्षीण करके न्यूनतम स्तर पर रख सके।
इस प्रकार इस शिमला सम्मेलन में भी कांग्रेस और मुस्लिम लीग के बीच का विरोध ज्यों का त्यों बना रहा तथा कांग्रेस द्वारा मुसलमानों के लिए अलग देश बनाने का विरोध और मुस्लिम लीग के लिए अलग देश बनाने की आवश्यकता ज्यों की त्यों बनी रही। इसलिए कैबीनेट मिशन ने अपनी ओर से प्रस्ताव घोषित करने का निर्णय लिया।
मुहम्मद अली जिन्ना अलीगढ़ में साम्प्रदायिक दंगे करवाकर अंग्रेजों की मंशा एवं हिन्दुओं की ताकत को परख चुका था। इसलिए उसने अलीगढ़ के प्रयोग को बंगाल में दोहराने का निश्चय किया जिसकी भयानक तस्वीर शीघ्र ही देश के सामने आने वाली थी।
अलीगढ़ में साम्प्रदायिक दंगे के सफल प्रयोग की पुनरावृत्ति न केवल बंगाल में की जानी थी अपितु पंजाब में भी की जानी थी। बंगाल का भद्रलोक और पंजाब के सिक्ख दोनों ही मुसलमानों की इस हिंसक ज्वाला का सामना करने के लिए तैयार नहीं थे। अतः शीघ्र ही दोनों प्रांत हिंसा की आग में जल उठे। इन दृश्यों को देखकर अंग्रेज दोनों हाथों से तालिया बजा रहे थे।
भारत साम्प्रदायिक दंगों की आग में जलने के कगार पर था किंतु गांधीजी अब भी झुकने को तैयार नहीं थे। वे खुलेआम कहते हुए घूम रहे थे कि भले ही पूरा भारत अग्नि की ज्वाला में जल जाए, मैं मुसलमान भाइयों को स्वयं से अलग नहीं होने दूंगा।
-डॉ. मोहनलाल गुप्ता