Sunday, September 8, 2024
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मुसलमानों में बेचैनी

जब मुहम्मद अली जिन्ना ने लंदन से भारत लौटकर मुसलमानों के लिए अलग देश की मांग उठाई तो जवाहर लाल नेहरू ने मुसलमानों के लिए अलग देश के विचार का दृढ़ता से विरोध किया। इस कारण मुसलमानों में बेचैनी फैल गई।

उधर लंदन में रहमत अली जिन्ना को नकार रहा था तो इधर जवाहरलाल नेहरू देश में तेजी से पनप रही मुस्लिम लीग की समानांतर राजनीति पर हमले कर रहे थे। वे केवल कांग्रेस को ही भारतीय राजनीति में देखना चाहते थे।

ई.1937 में जब प्रान्तीय विधान सभाओं के निर्वाचन हुए तो जवाहरलाल नेहरू ने एक वक्तव्य दिया- ‘देश में केवल दो ही ताकतें हैं- सरकार और कांग्रेस।……. कांग्रेस सरकार के खिलाफ वोट देने का मतलब हैब्रिटिश प्रभुत्व स्वीकार करने के लिए वोट देना…….केवल कांग्रेस ही सरकार का मुकाबला कर सकती है। कांग्रेस के विरोधियों के हित आपस में जुड़े हुए हैं। उनकी मांगों का जनता से कुछ लेना देना नहीं है।’

इस वक्तव्य के कारण जिन्ना, जवाहरलाल नेहरू से नाराज हो गया और उसके बाद उसने नेहरू को नीचा दिखाने का कोई अवसर अपने हाथ से नहीं जाने दिया। उसने तुरंत प्रतिवाद करते हुए कहा- ‘मैं कांग्रेस का साथ देने से इंकार करता हूँ, देश में एक तीसरा पक्ष भी है और वह है मुसलमानों का।’ कुछ दिन बाद जिन्ना ने नेहरू और कांग्रेस को चेतावनी दी- ‘वे मुसलमानों को अकेला छोड़ दें।’

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नेहरू ने जवाब दिया- ‘मिस्टर जिन्ना बंगाल के मुसमलान मामलों में कांग्रेस की दखलंदाजी पर एतराज करते हुए कहते हैं कि कांग्रेस मुसलमानों को अकेला छोड़ दे। …… किन मुसलमानों को? जाहिर है कि केवल उनको जो मिस्टर जिन्ना और मुस्लिम लीग के अनुयायी हैं। …….

मुस्लिम लीग का लक्ष्य क्या है? क्या वह भारत की आजादी के लिए लड़ रही है? क्या वह साम्राज्यवाद विरोधी है ? मेरा विचार है, नहीं। वह मुसलमानों के एक गुट की नुमाइंदगी करती है जिसमें निश्चित रूप से काफी प्रतिष्ठित लोग हैं। ये लोग उच्च-मध्यम वर्ग के ऊँचे हलकों में सक्रिय रहते हैं और उनका मुसलमान जनता से सम्पर्क नहीं है।

मुसलमानों के निम्न-मध्यमवर्ग से भी उनका सम्बन्ध कम ही है। मिस्टर जिन्ना को जान लेना चाहिए कि मुस्लिम लीग के ज्यादातर सदस्यों के मुकाबले में मुसलमानों के ज्यादा सम्पर्क में रहता हूँ।’

इस भाषण के एक माह बाद एक साक्षात्कार में जिन्ना ने कहा- ‘हर बात में दखल देने वाले कांग्रेस के इस अध्यक्ष के बारे में क्या कहूँ? लगता है कि वे सारी दुनिया की जिम्मेदारियां अपने कंधों पर ढो रहे हैं। अपने काम से मतलब रखने के बजाय हर बात में टांग अड़ाना उनके लिए जरूरी है।’

नेहरू ने अपने भाषणों में बार-बार जिन्ना पर प्रहार किए कि वे ड्राइंग रूम की राजनीति से बाहर निकलकर सारे-सारे दिन खेतों में काम करने वाले एक करोड़ मुसलमानों तक पहुंचें। जिन्ना और मुस्लिम लीग के पास नेहरू के इन बयानों की कोई काट नहीं थी। उन्हें भय हुआ कि कहीं सचमुच ही निर्धन मुस्लिम समुदाय नेहरू एवं कांग्रेस की बातों में न आ जाए।

जाहिर था कि लीग केवल एक ही तरीके से मुसलमान जनता को जगाकर, आंदोलित करके, अपने नेतृत्व के पीछे चला सकती थी। वह तरीका था- ‘इस्लाम खतरे में है।’ दीन का सवाल उठाकर ही लीग अपना झण्डा सबसे अलग उड़ा सकती थी।

इस नारे के द्वारा ही मुस्लिम लीग भारत के मुसलमानों में बेचैनी फैला सकती थी जिसका उपयोग पाकिस्तान की मांग को मजबूत बनाने में किया जा सकता था।

ई.1937 के चुनावों में कांग्रेस को भारी सफलता मिली। ये चुनाव भारत सरकार अधिनियम-1935 में किये गये प्रावधानों के अंतर्गत हुए थे। मद्रास, बम्बई, संयुक्त प्रदेश, बिहार, मध्य प्रदेश और उड़ीसा में कांग्रेस को पूर्ण बहुमत प्राप्त हुआ। बंगाल, आसाम तथा पश्चिमोत्तर प्रदेश में वह सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभर कर सामने आई। केवल पंजाब और सिन्ध में कांग्रेस को कम मत मिले।

ग्यारह प्रान्तों में मुसलमानों के लिए सुरक्षित 482 सीटों में से कांग्रेस को 26 सीटें, मुस्लिम लीग को 108 सीटें तथा निर्दलीय मुसलमानों को 128 सीटें मिलीं। पंजाब में अधिकांश सीटें यूनियनिस्ट पार्टी को मिलीं। बंगाल में फजलुल हक की प्रजा-पार्टी को 38 सीटें मिलीं। इन चुनाव परिणामों से मुसलमानों में बेचैनी फैलना स्वाभाविक ही था।

-डॉ. मोहनलाल गुप्ता

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