मुसलमानों में गांधाजी के विरुद्ध संदेह
कांग्रेस के विरोध के बावजूद गांधीजी ने तुर्की के खलीफा के समर्थन में भारत में चल रहे खिलाफत आंदोलन को समर्थन दिया तथा कुछ दिनों बाद इसे वापस ले लिया। मुसलमानों ने इसे गांधीजी द्वारा मुसलमानों के साथ धोखा माना तथा उनके मन में गांधाजी के विरुद्ध संदेह उत्पन्न हो गया।
प्रथम विश्वयुद्ध (ई.1914-19) में तुर्की, जर्मनी की तरफ से तथा अंग्रेजों के विरुद्ध लड़ा। विश्व भर के उलेमा और मौलवी तुर्की के सुल्तान को अपना खलीफा अर्थात् धार्मिक एवं राजनीतिक नेता मानते थे और तुर्की उनका धार्मिक केन्द्र था।
अंग्रेजों ने भारतीय सेनाओं को भी इस युद्ध में झौंका जो तुर्की के खलीफा के विरुद्ध भेजी गई थीं। इन सेनाओं में भारतीय मुसलमान भी थे। यह एक विचित्र स्थिति थी। भारतीय मुसलमान तुर्की के खलीफा की तरफ से लड़ना चाहते थे किंतु उन्हें अंग्रेजी सेना का हिस्सा होने के कारण खलीफा के खिलाफ लड़ना पड़ रहा था।
भारतीय मुसलमानों को आशंका थी कि यदि तुर्की युद्ध में हार गया तो तुर्की साम्राज्य का विघटन कर दिया जायेगा तथा खलीफा की शक्तियां भी समाप्त कर दी जायेंगी। अतः भारतीय मुसलमानों ने युद्ध छिड़ते ही खिलाफत कमेटी संगठित की और तुर्की के विरुद्ध फौज भेजे जाने का विरोध किया तथा भारत में अंग्रेजों के विरुद्ध खिलाफत आन्दोलन चलाया। भारत की अंग्रेज सरकार ने खिलाफत आंदोलन के नेताओं मुहम्मद अली तथा शौकत अली को नजरबंद कर लिया।
उन्हीं दिनों गांधीजी ने भारत में असहयोग आंदोलन आरम्भ किया। गांधीजी ने मुसलमानों से अपील की कि वे भी कांग्रेस के इस कार्यक्रम को अपनाएं। इसके बदले में गांधीजी ने खिलाफत आंदोलन को समर्थन देने का आश्वासन दिया। चूंकि इस दौर की राजनीति में हिन्दुओं और मुसलमानों के उद्देश्य एक जैसे प्रतीत हो रहे थे इसलिए मुसलमानों ने गांधीजी के असहयोग आन्दोलन में सहयोग देने का निर्णय लिया। कांग्रेस भी खुलकर खिलाफत आन्दोलन को समर्थन देने लगी। कुछ दिनों में दोनों आन्दोलन मिलकर एक हो गये।
याज्ञिक ने लिखा है- ‘गांधी खिलाफत के सवाल पर अंधाधुंध भाषण करने लगा और वह इस्लाम की रक्षा तथा मुक्ति के जेहाद में मुसलमानों से भी आगे बढ़ गया।’
प्रथम विश्व-युद्ध के बाद हुई संधि के द्वारा तुर्की के पुराने साम्राज्य के टुकड़े कर दिए गए। ईराक, मेसोपोटामिया, सीरिया, फिलीस्तीन और स्मिर्ना पर सुल्तान अब्दुल मजीद की सत्ता समाप्त कर दी गई। तुर्की साम्राज्य में से एक हिस्सा फ्रांस और एक ब्रिटेन के संरक्षण में दे दिया गया।
इस्तम्बूल और दर्रा दानियाल अंतर्राष्ट्रीय नियंत्रण में रख दिए गए। स्मिर्ना और अंतोलिया का तट यूनान में मिला दिया गया। इस संधि ने भारतीय मुसलमानों के घावों पर नमक छिड़कने का काम किया और एक बार फिर से खिलाफत आंदोलन ने जोर पकड़ लिया।
मुसलमान चाहते थे कि अरब देश और इस्लाम के पवित्र स्थलों को उसी तरह खलीफा के अधिकार में रहना चाहिए जिस तरह इस्लामी राज्य द्वारा उनकी सीमा निर्धारित की गई है किन्तु जब ई.1922 में गांधीजी ने चौरी-चौरा काण्ड के कारण अचानक असहयोग आन्दोलन स्थगित कर दिया तब मुसलमानों ने गांधीजी की कटु आलोचना की और लखनऊ समझौते से स्थापित साम्प्रदायिक एकता पुनः नष्ट हो गई।
मुसलमानों का एक वर्ग पहले से ही लखनऊ समझौते का घनघोर विरोधी था। इस वर्ग को भय था कि गांधीजी का नेतृत्व, मुसलमानों के भिन्न अस्तित्त्व को समाप्त कर देगा। खिलाफत एवं असहयोग आन्दोलन के दौरान ये नेता अनुभव करने लगे थे कि इस एकता से मुस्लिम नेताओं के स्वार्थ पूरे नहीं हो रहे हैं; इसलिए उन्होंने गांधीजी के प्रति खुलकर विष-वमन किया तथा हिन्दू-मुस्लिम एकता की गाड़ी पुनः पटरी से उतर गई।
कांग्रेस में हिन्दू नेताओं का बोलबाला था तथा गांधीजी उनके सर्वमान्य नेता थे। गांधीजी यद्यपि मुसलमानों का विश्वास जीतने का कोई अवसर अपने हाथ से नहीं जाने देते थे और अपनी मेज की दराज में गीता के ऊपर कुरान रखते थे, उन्हें जिन्ना की अपेक्षा कुरान की अधिक आयतें याद थीं तथापि साम्प्रदायिक राजनीति करने वाले मुसलमान नेताओं का मानना था कि गांधीजी का सत्य और अहिंसा के प्रति अत्यधिक आग्रह, हिन्दू धर्म के आदर्शों से प्रेरित है।
इसलिए मुसलमानों को गांधीजी का नेतृत्व अमान्य है। अनेक पढ़े-लिखे कट्टर मुस्लिम नेता गांधीजी के विरुद्ध थे। उनका मानना था कि मुसलमानों से विश्वासघात के मामले में गांधीजी का पिछला रिकॉर्ड भी अच्छा नहीं था।
गांधीजी ने ई.1907 में दक्षिण अफ्रीका में जनरल स्मट्स की सरकार के विरुद्ध जो आंदोलन चलाया था, उसे बीच में ही बंद कर दिया था। दक्षिण अफ्रीका के भारतीय पठानों ने गांधीजी के इस कार्य को विश्वासघात मानते हुए उन पर प्राण-घातक हमला किया था।
इस प्रकार मुसलमानों ने गांधीजी पर विश्वास नहीं होते हुए भी गांधीजी के ई.1920 के असहयोग आन्दोलन का समर्थन किया क्योंकि गांधीजी ने कहा था कि ‘यदि देश मेरे पीछे चले तो मैं एक वर्ष के भीतर स्वराज्य ला दूँगा’ किंतु जब ई.1922 में गांधीजी ने अचानक असहयोग आंदोलन बंद कर दिया तो मुसलमानों को लगा कि गांधीजी ने मुसलमानों को मंझधार में छोड़कर, एक बार फिर विश्वासघात किया है।
अलगाववादी मुसलमानों ने पूरे देश में यह प्रचार किया कि ‘गांधीजी ने अपने स्वार्थों की सिद्धि के लिए मुसलमानों को गुमराह किया।’ इससे देश में उत्तेजना फैल गई और साम्प्रदायिक दंगे आरम्भ हो गये।
इस प्रकार मुसलमानों के मन में हमेशा-हमेशा के लिए गांधाजी के विरुद्ध संदेह उत्पन्न हो गया।
-डॉ. मोहनलाल गुप्ता