मार्ले-मिण्टो सुधार एक्ट से भारत में साम्प्रदायिकता में वृद्धि
भारत के अंग्रेज अधिकारियों ने मुस्लिम लीग की मांगों को हाथों-हाथ लिया तथा ई.1909 में उन्होंने मार्ले-मिण्टो सुधार एक्ट की घोषणा की। इस अधिनियम के माध्यम से भारत के राष्ट्रीय आंदोलन की एकता को पटरी से उतार दिया गया।
मार्ले-मिण्टो सुधार एक्ट
मार्ले-मिण्टो सुधार एक्ट के द्वारा भारत की गोरी सरकार ने प्रांतीय विधान सभाओं में मुसलमानों, जमींदारों और व्यापारियों को अलग प्रतिनिधित्व प्रदान किया अर्थात् उनके लिए पद आरक्षित किए गए। इस प्रकार ब्रिटिश सरकार द्वारा पहली बार हिन्दुओं और मुसलमानों को पृथक इकाई स्वीकार करके उन्हें अलग-अलग प्रतिनिधित्व दिया गया। साथ ही मुसलमानों को प्रतिनिधित्व के मामले में विशेष रियायत दी गयी।
उन्हें केन्द्रीय एवं प्रांतीय विधान परिषदों में जनसंख्या के अनुपात में अधिक प्रतिनिधि भेजने का अधिकार दिया गया। मुस्लिम मतदाताओं के लिये आय की योग्यता को भी हिन्दुओं की तुलना में कम रखा गया। कांग्रेस ने इस व्यवस्था का विरोध किया जबकि मुस्लिम लीग ने इसका समर्थन किया। इतिहासकारों ने अंग्रेजों की इस व्यवस्था को फूट डालो और शासन करो की नीति कहकर पुकारा है।
वाई. पी. सिंह ने लिखा है- ‘अँग्रेजों ने भारतीय परिषद् अधिनियम, 1909 के द्वारा साम्प्रदायिक विद्वेष के बीज बोये।’ विख्यात पत्रकार दुर्गादास ने लिखा है- ‘व्हाइट हॉल ने पृथक निर्वाचन एवं सांप्रदायिक प्रतिनिधित्व को स्वीकार करके अनजाने में ही सर्वप्रथम विभाजन के बीज बोये।’ गणेशप्रसाद बरनवाल ने लिखा है- ‘मार्ले मिण्टो सुधार एक्ट से साम्प्रदायिकता की फसल बीमा कर दी जाती है। मिण्टो के शब्दों में- ‘मुस्लिम नेशन।’
हमारा मानना है कि ये अनजाने में बोये गये बीज नहीं थे। साम्प्रदायिकता के बीज शताब्दियों से भारत की राजनीतिक जमीन में मौजूद थे तथा उसकी फसल भी सदियों से लहरा रही थी। मार्ले-मिण्टो एक्ट ने तो साम्प्रदायिकता की फसल को काटकर उससे अधिकतम मुनाफा कमाने की विधि विकसित की थी।
मार्ले-मिण्टो एक्ट के प्रावधानों के कारण हिन्दुओं एवं मुसलमानों दोनों वर्गों में अपने-अपने पक्ष को लेकर उत्तेजना व्याप्त हो गई। भारत की राजनीति ने पूरी तरह से साम्प्रदायिक रंग ले लिया। देश भर में प्रदर्शन होने लगे और चारों तरफ अशांति व्याप्त हो गई।
लखनऊ समझौते से देश में शांति
उन्हीं दिनों मुसलमानों के विरुद्ध दो बड़ी अन्तर्राष्ट्रीय घटनाएं हुईं-
(1) यूरोपीय देशों के बीच बाल्कन प्रायद्वीप को लेकर हुए दो युद्ध,
(2) तुर्की में युवा तुर्क आन्दोलन।
इन दोनों ही घटनाओं में मुसलमानों को ईसाइयों के हाथों नीचा देखना पड़ा। इस कारण ई.1911 के बाद भारतीय मुसलमानों में ब्रिटिश शासन के प्रति राजभक्ति का ज्वार ठण्डा हो गया। चूंकि मुस्लिम लीग मुसलमानों को ब्रिटिश राजभक्ति का पाठ पढ़ा रही थी और कांग्रेस अंग्रेजों से औपनिवेशिक स्वशासन की मांग कर रही थी, इसलिए भारत का युवा मुस्लिम वर्ग, मुस्लिम लीग की बजाय कांग्रेस के लक्ष्य से सहानुभूति रखने लगा।
मुस्लिम-युवाओं में पनप रही इस मनोवृत्ति को देखते हुए ई.1913 में मुस्लिम लीग ने अपने संविधान में संशोधन करके कांग्रेस की ही तरह अपना लक्ष्य भारत में औपनिवेशिक स्वशासन प्राप्त करना निश्चित किया।
जब दोनों पार्टियों के लक्ष्य एक हो गये तो उनमें निकटता आनी भी स्वाभाविक थी। कांग्रेस भी अपने उद्देश्यों की पूर्ति के लिए मुसलमानों का सहयोग चाहती थी। फलस्वरूप ई.1916 में कांग्रेस और मुस्लिम लीग के मध्य समझौता हुआ जिसे लखनऊ समझौता कहते हैं। यह समझौता कराने में बाल गंगाधर तिलक और मुहम्मद अली जिन्ना की भूमिका महत्त्वपूर्ण थी। इस समझौते में तीन मुख्य बातें थीं-
(क.) मुस्लिम लीग ने भी कांग्रेस की तरह भारत को उत्तरदायित्व-पूर्ण शासन देने की मांग की।
(ख.) कांग्रेस ने मुसलमानों के पृथक् निर्वाचन-मण्डल की प्रार्थना को स्वीकार कर लिया और विभिन्न प्रान्तों में उनके अनुपात को भी मान लिया। देश की ग्यारह प्रांतीय विधान सभाओं में मुसलमानों का अनुपात इस प्रकार निर्धारित किया गया था- पंजाब: 50 प्रतिशत, संयुक्त प्रान्त: 30 प्रतिशत, बंगाल: 40 प्रतिशत, बिहार: 25 प्रतिशत, मध्य प्रदेश: 15 प्रतिशत, मद्रास: 15 प्रतिशत तथा बम्बई: 43 प्रतिशत।
(ग.) यह स्वीकार कर लिया गया कि यदि विधान सभाओं में किसी गैर-सरकारी सदस्य द्वारा प्रस्तुत किसी प्रस्ताव का विरोध किसी एक सम्प्रदाय के तीन चौथाई सदस्य करेंगे तो उस प्रस्ताव पर विचार नहीं किया जायेगा।
पं. मदनमोहन मालवीय, सी. वाई. चिंतामणि आदि कई कांग्रेसी नेताओं को लगा कि इस समझौते में मुसलमानों को अत्यधिक सुविधाएं दे दी गई हैं। कुछ इतिहासकार तो इन सुविधाओं को साम्प्रदायिकता के विकास की महत्त्वपूर्ण कड़ी मानते हैं जिसकी परिणति पाकिस्तान के रूप में हुई।
तिलक का कहना था- ‘कुछ लोगों का विचार है कि हमारे मुसलमान भाइयों को अत्यधिक रियायतें दे दी गई हैं किन्तु स्वराज्य की मांग के लिए उनका हार्दिक समर्थन प्राप्त करने के लिए वह आवश्यक था; भले ही कठोर न्याय की दृष्टि से वह सही हो या गलत। उनकी सहायता और सहयोग के बिना हम आगे नहीं बढ़ सकते।’ अयोध्यासिंह के अनुसार- ‘इस पैक्ट से जिन्हें सबसे अधिक आघात लगा था वे थे, ब्रिटिश साम्राज्यवादी और उनके दलाल।’
लखनऊ समझौते के परिणाम स्वरूप कुछ समय के लिए देश में साम्प्रदायिक समस्या शांत हो गई।
मुसलमानों को केन्द्रीय सभा में अधिक प्रतिनिधित्व
ई.1914 से 1919 तक लडे़ गए प्रथम विश्वयुद्ध ने भारत में ब्रिटिश तंत्र का ढांचा तोड़ कर रख दिया। प्रथम विश्व युद्ध में 6 लाख 80 हजार अंग्रेज मारे गए। यह क्षति इंगलैण्ड के लिए अत्यंत घातक सिद्ध हुई। भारत में अब स्वशासन के अधिकारों की मांग तेज होती जा रही थी, इसलिए अब वे भारत का शासन विक्टोरिया की घोषणा के आधार पर अथवा मार्ले-मिण्टो एक्ट के आधार पर नहीं चला सकते थे। उन्हें भारत में ब्रिटिश संसद से पारित कानून लागू करना आवश्यक हो गया जिसमें भारतीयों को शासन में अधिक भागीदारी दी गई हो।
प्रथम विश्व युद्ध के दौरान भारतीयों ने ब्रिटिश सरकार को पूरा सहयोग दिया था तथा बड़ी संख्या में भारतीय नौजवानों ने ब्रिटिश मोर्चों पर इंग्लैण्ड की ओर से लड़ते हुए प्राण गंवाए थे। इस सहयोग के बदले में भारत की गोरी सरकार ने युद्ध समाप्ति के बाद भारतीयों को स्वशासन का अधिकार देने का आश्वासन दिया था परन्तु युद्ध की समाप्ति के बाद ब्रिटिश सरकार ने अपना वचन नहीं निभाया।
‘भारत सरकार अधिनियम 1919‘ के माध्यम से मांटेग्यू-चेम्सफोर्ड सुधारों की घोषणा की गई। यह देश का नया संविधान था जिसने मार्ले-मिण्टो सुधार एक्ट 1909 का स्थान लिया। इस संविधान में भारतीयों को शासन में अधिक भागीदारी तो दी गई किंतु भारतीयों को स्वशासन का अधिकार नहीं दिया गया। यह भारतीय जनता के साथ विश्वास-घात था। इस कारण इस अधिनियम से राष्ट्रवादी नेता असन्तुष्ट हो गए किन्तु गांधीजी इस संविधान को लागू करवाने के पक्ष में थे। अतः अंग्रेजों ने अपने प्रत्यक्ष नियंत्रण वाले ग्यारह ब्रिटिश-भारतीय प्रांतों में इस नए कानून को लागू कर दिया।
भारत सरकार अधिनियम 1919 के माध्यम से भारत में पहली बार दो सदनों वाली केन्द्रीय व्यवस्थापिका (पार्लियामेंट) की स्थापना की गई। पहले सदन को विधान सभा और दूसरे सदन को राज्य सभा कहा जाता था। विधान सभा का कार्यकाल 3 वर्ष तथा राज्यसभा का कार्यकाल 5 वर्ष रखा गया। गवर्नर जनरल इन सदनों को कार्यकाल पूरा होने से पहले भी भंग कर सकता था।
केन्द्रीय विधान सभा में 145 सदस्य थे जिनमें 104 निर्वाचित सदस्य थे। निर्वाचित सदस्यों में से 52 सदस्य सामान्य निर्वाचन क्षेत्रों से, 30 मुस्लिम, 2 सिक्ख, 9 यूरोपियन, 7 जमींदार तथा 4 भारतीय वाणिज्य के हितों का प्रतिनिधित्व करते थे। 41 मनोनीत सदस्यों में 26 सरकारी अधिकारी और 15 गैर-सरकारी सदस्य होते थे। केन्द्रीय राज्यसभा में सदस्यों की अधिकतम संख्या 60 थी।
इनमें से सरकारी सदस्यों की अधिकतम संख्या 20 हो सकती थी। शेष 40 सदस्यों में से 34 सदस्य निर्वाचित होते थे जिनमें से 19 सामान्य निर्वाचन क्षेत्र से, 12 साम्प्रदायिक क्षेत्रों अर्थात् मुस्लिम, सिक्ख एवं ईसाई में से और 3 विशेष निर्वाचन क्षेत्रों से होते थे। 6 गैर-सरकारी सदस्यों की नियुक्ति गवर्नर जनरल द्वारा की जाती थी।
इस प्रकार दोनों सदनों में ऐसी व्यवस्था की गई थी कि आवश्यकता पड़ने पर भारत की गोरी सरकार मुस्लिम एवं ईसाई प्रतिनिधियों तथा सरकारी सदस्यों के बल पर कांग्रेस के सभी प्रस्तावों को ध्वस्त कर सकती थी किंतु फिर भी इस व्यवस्था के माध्यम से भारतीयों ने आधुनिक राजनीतिक शासन व्यवस्था में प्रवेश किया। इस कारण बहुत से विद्वान मानते हैं कि इस अधिनियम में भारत के संवैधानिक विकास के बीज मौजूद थे।
-डॉ. मोहनलाल गुप्ता