प्रारम्भिक जीवन
मुहीउद्दीन मुहम्मद औरंगजेब का जन्म 3 नवम्बर 1618 को उज्जैन के निकट दोहद में हुआ था। उस समय उसका बाबा जहाँगीर दक्षिण से आगरा लौट रहा था। कुछ इतिहासकारों ने उसका जन्म 1619 ई. में अहमदाबाद तथा मालवा की सीमा पर स्थित दोसीमा नामक स्थान पर होना बताया है, जब शाहजहाँ दक्षिण का सूबेदार था। दोहद और दोसीमा का एक ही अर्थ होता है। आज यह स्थान दोहद के नाम से ही प्रसिद्ध है। सर जदुनाथ सरकार ने औरंगजेब का जन्म 24 अक्टूबर 1618 को होना माना है। शाहजहाँ तथा मुमताज महल की चौदह संतानें थीं। इनमें औरंगजेब छठा था।
जब शाहजहाँ ने जहाँगीर के विरुद्ध विद्रोह किया तब औरंगजेब आठ साल का था। उस समय औरंगजेब तथा उसके भाई दारा को बड़े कष्ट झेलने पड़े। इन दोनों भाइयों को नूरजहाँ के पास बंधक के रूप में रखा गया। जब शाहजहाँ ने जहाँगीर के समक्ष समर्पण किया, तब दोनों भाईयों को मुक्त किया गया। इस कारण जब औरंगजेब 10 साल का हुआ, तब उसकी शिक्षा आरम्भ हो सकी। मीर मुहम्मद हाशिम को उसका शिक्षक बनाया गया। औरंगजेब कुशाग्र बुद्धि तथा विलक्षण प्रतिभा का धनी था। उसने फारसी तथा अरबी का अच्छा ज्ञान प्राप्त कर लिया और हिन्दी का भी थोड़ा-बहुत ज्ञान ले लिया। औरंगजेब ने कुरान तथा हदीस का पूरा ज्ञान प्राप्त कर लिया। वह चित्रकला तथा संगीत आदि ललित कलाओं से दूर रहता था। औरंगजेब जबर्दस्त लड़ाका एवं दुःसाहसी शहजादा था। उसके स्वभाव में उत्साह, धैर्य तथा दृढ़ता कूट-कूट कर भरी हुई थी। जब औरंगजेब की अवस्था केवल पन्द्रह वर्ष थी तब एक उन्मत्त हाथी उस पर टूट पड़ा। औरंगजेब ने बड़ी निर्भीकता से अपने भाले से उस हाथी पर प्रहार करके उसे अपने नियंत्रण में कर लिया। औरंगजेब की इस बहादुरी से प्रसन्न होकर शाहजहाँ ने उसे ‘बहादुर’ की उपाधि दी।
सूबेदार के पद पर नियुक्ति
1634 ई. में शाहजहाँ ने औरंगजेब को दस हजार जात और चार हजार सवार का मनसबदार नियुक्त किया गया। 1635 ई. में उसे बुन्देला विद्रोह के दमन का कार्य सौंपा। इस प्रकार व्यावहारिक जीवन में औरंगजेब का प्रवेश हुआ। औरंगजेब बुन्देला विद्रोह का दमन करने में सफल रहा। उसने सैन्य-संचालन तथा संगठन क्षमता का अच्छा परिचय दिया। औरंगजेब की सैनिक प्रतिभा से प्रसन्न होकर शाहजहाँ ने उसे 14 जुलाई 1636 को दक्षिण का सूबेदार नियुक्त किया। 18 मई 1637 को फारस के राजपरिवार के शाहनवाज की पुत्री दिलरास बानो बेगम से औरंगजेब का विवाह हुआ।
औरंगजेब की प्रतिष्ठा तथा प्रभाव को बढ़ता हुआ देखकर उसके बड़े भाई दारा के मन में द्वेष की भावना जागृत होने लगी और वह उसे अपना प्रतिद्वन्द्वी मानने लगा। 1644 ई. में दारा के कहने पर औरंगजेब को दक्षिण से वापस बुला लिया गया और 1645 ई. में गुजरात का सूबेदार बनाकर भेज दिया गया। यहाँ पर भी औरंगजेब ने अपनी सैनिक तथा प्रशासकीय प्रतिभा का अच्छा परिचय दिया। दो वर्ष बाद 1647 ई. में औरंगजेब बल्ख तथा बदख्शाँ का गवर्नर तथा प्रधान सेनापति बनाकर भेजा गया किंतु ट्रांस ऑक्सियाना क्षेत्र में औरंगजेब को सफलता नहीं मिल सकी।
1648 ई. से 1652 ई. तक औरंगजेब मुल्तान तथा सिन्ध का सूबेदार रहा। उसने बड़ी योग्यता के साथ शासन किया। वह इस क्षेत्र में शान्ति तथा व्यवस्था स्थापित करने तथा प्रान्त की व्यापारिक उन्नति करने में सफल रहा। इस बीच 1649 ई. एवं 1652 ई. में उसे दो बार कन्दहार पर आक्रमण करने भेजा गया। दोनों ही बार औरंगजेब कन्दहार को जीतने में सफल नहीं हुआ परन्तु इन युद्धों में उसे बहुत बड़ा सैनिक अनुभव प्राप्त हो गया।
औरंगजेब को कन्दहार में मिली असफलता के कारण उसे 1652 ई. में दूसरी बार दक्षिण का गवर्नर नियुक्त किया गया। इस पद पर वह 1658 ई. तक रहा। इन 6 वर्षों में उसने कई प्रशंसनीय कार्य किये। उसने अपनी मन्त्री मुर्शिदकुली खाँ की सहायता से भूमि का प्रबन्घ किया जिससे इस प्रान्त में समृद्धि आई। औरंगजेब ने अपनी सेना में कई सुधार किये और उसे रण-कौशल बना दिया। इस सेना की सहायता से उसने बीजापुर तथा गोलकुण्डा के राज्यों पर विजय प्राप्त की। औरंगजेब इन राज्यों को मुगल सल्तनत में सम्मिलित करके उनका अस्तित्त्व समाप्त करना चाहता था किन्तु शाहजहाँ के हस्तक्षेप के कारण वह ऐसा नहीं कर सका।
तख्त की प्राप्ति
1657 ई. में शाहजहाँ बीमार पड़ा। 1658 ई. में उसकी मृत्यु की अफवाह फैल गई। औरंगजेब अपने भाइयों में सर्वाधिक महत्त्वाकांक्षी था। उसने स्थिति का आकलन करके आगरा के लिए प्रस्थान कर दिया। उसने अपने समस्त प्रतिद्वन्द्वियों को परास्त करके अपने बूढ़े पिता शाहजहाँ को बन्दी बना लिया और उसके तख्त पर बैठ गया। 16 जुलाई 1658 को औरंगजेब ने स्वयं को बादशाह घोषित कर दिया। उसने अबुल मुजफ्फर मुहीउद्दीन मुहम्मद औरंगजेब बहादुर आलमगीर बादशाह गाजी की उपाधि धारण की। औरंगजेब का औपचारिक राज्याभिषेक 5 जून 1659 को दिल्ली में बड़े समारोह के साथ हुआ। औरंगजेब ने वृद्ध शाहजहाँ को कारागार में डाल दिया। लोगों का विश्वास जीतने के लिये औरंगजेब ने अपने राज्याभिषेक के अवसर पर लोगों को खूब धन बाँटा और पुरस्कार दिये। सिंहासन पर बैठने के बाद उसने ‘अब्दुल मुजफ्फर मुहीउद्दीन’ और ‘औरंगजेब बहादुर आलमगीर बादशाह गाजी’ की उपाधि धारण की। औरंगजेब ने लगभग पचास वर्ष तक शासन किया। उसके शासन के प्रथम पच्चीस वर्ष, उत्तरी भारत में सीमा की सुरक्षा करने तथा विद्रोहों का दमन करने में व्यतीत हुए जबकि शासन के अन्तिम पच्चीस वर्ष दक्षिण के राज्यों को विध्वंस करने में व्यतीत हुए। औरंगजेब ने अपने शासन काल में जिस नीति का अनुसरण किया वह मुगल सल्तनत के लिए बड़ी घातक सिद्ध हुई और अन्त में उसके विनाश का कारण बन गई।
औरंगजेब द्वारा किये गये सुधार कार्य
बादशाह बनते ही औरंगजेब ने अपनी नीति को कार्यान्वित करना आरम्भ कर दिया। उसके द्वारा किये गये मुख्य सुधार इस प्रकार से थे-
(1.) मुहतासिबों की नियुक्ति: औरंगजेब ने प्रत्येक बड़े नगर में मुहतासिब अर्थात् आचरण के निरीक्षक निुयक्त किये। इन अधिकारियों का कर्त्तव्य था कि वे यह देखें कि प्रजा, इस्लाम के सिद्धान्तों के अनुसार जीवन व्यतीत करती है या नहीं! अर्थात् प्रजा मद्यपान तो नहीं करती! कोई जुआ तो नहीं खेलता! लोग चरित्र-भ्रष्ट तो नहीं हो रहे! लोग नियमित रूप से दिन में पाँच बार नमाज पढ़ते हैं और मोहर्रम में रोजा रखते हैं या नहीं!
(2.) कलमा लिखने पर रोक: औरंगजेब ने मुद्राओं पर कलमा लिखवाना बन्द कर दिया क्योंकि वह गैर-मुसलमानों के हाथों में जाने से अपवित्र हो जाता था।
(3.) नौरोजे की समाप्ति: औरंगजेब ने नौरोज के त्यौहार को बन्द कर दिया, जिसे उसके पूर्वज मनाया करते थे।
(4.) संगीतकारों का दरबार से निष्कासन: औरंगजेब की धारणा थी कि संगीत इस्लाम के विरुद्ध है। अतः उसके पूर्वजों के काल के जितने प्रसिद्ध संगीतज्ञ थे और जिन्हें मुगल सल्तनत का आश्रय प्राप्त था, उन सबको उसने मार भगाया।
(5.) झरोखा दर्शन पर रोक: अकबर, जहाँगीर तथा शाहजहाँ, प्रतिदिन प्रातःकाल में अपनी प्रजा को झरोखा दर्शन, दिया करते थे। इस प्रथा को औरंगजेब ने बन्द करवा दिया क्योंकि यह हिन्दुओं की प्रथा के अनुरूप थी।
(6.) इस्लाम का विरोध करने वालों को दण्ड: औरंगजेब ने इस्लाम के विद्धान्तों का विरोध करने वालों तथा सूफी मत को मानने वाले को दण्डित किया। सरमद को, जो सूफी मत का अनुयाई और दारा का पक्षपाती था, मरवा दिया गया।
(7.) सती प्रथा का निषेध: औरंगजेब ने 1664 ई. में सती प्रथा पर रोक लगा दी।
(8.) बादशाह को उपहारों पर रोक: बादशाह की वर्षगाँठ तथा अन्य अवसरों पर राज्याधिकारी तथा प्रजा द्वारा उपहार तथा भेंट दिये जाते थे। औरंगजेब ने इस प्रथा पर रोक लगा दी। इससे राजकोष को बहुत नुकसान हुआ।
(9.) अनुचित चुंगियों तथा करों की समाप्ति: औरंगजेब ने मुगल सल्तनत में प्रचलित बहुत-सी अनुचित चुंगियों तथा करों को हटा दिया। आंतरिक चुंगी को समाप्त कर दिया क्योंकि इससे व्यापार में बाधा पड़ती थी। जो माल नगरीय बाजारों में बिकने आता था उस पर विक्रय-कर लगता था। इसे भी औरंगजेब ने हटा दिया।
(10.) मालगुजारी वसूलने वालों पर निगरानी: औरंगजेब ने मालगुजारी वसूल करने वालों पर निगरानी की व्यवस्था की। जो लोग इस कार्य में अत्याचार करते थे, उन्हें कठोर दण्ड दिये गये। अधिकारी घूस या नजराना नहीं ले सकते थे। बादशाह स्वयं भी समस्त कागजों को ध्यान से देखता था।
(11.) मुस्लिम प्रजा के हितों की चिंता: औरंगजेब स्वयं को अपनी प्रजा का सेवक कहता था और उसके जीवन को सुखी बनाने के लिये प्रयत्नशील रहता था। प्रजा का तात्पर्य मुस्लिम-प्रजा से था, हिन्दू-प्रजा से नहीं। हिन्दुओं को वह काफिर समझता था और उनके प्रति बड़ा अनुदार था।
औरंगजेब की नीतियाँ तथा उनके परिणाम
औरंगजेब कट्टर सुन्नी बादशाह था। वह भारत से काफिरों को समाप्त करके दारूल-इस्लाम अर्थात् मुस्लिम राज्य की स्थापना करना चाहता था। उसकी नीतियों को तीन भागों- (1.) धार्मिक नीति, (2.) राजपूत नीति तथा (3.) साम्राज्यवादी नीति में विभक्त किया जा सकता है। उसकी इन तीनों नीतियों के मूल में उसकी धार्मिक कट्टरता काम कर रही थी। वह जीवन भर हिन्दू प्रजा को बलपूर्वक मुसलमान बनाकर, जाटों, राजपूतों, सिक्खों तथा अन्यान्य हिन्दू शासकों का नाश कर, मंदिरों तथा तीर्थों को नष्ट कर तथा मुगल साम्राज्य से बाहर के राज्यों को अपनी सल्तनत में मिलाकर, दारूल-इस्लाम की स्थापना में लगा रहा।
औरंगजेब की धार्मिक नीति
औरंगजेब कट्टर सुन्नी मुसलमान था। इस्लाम में उसकी बड़ी अनुरक्ति थी। वह स्वयं को इस्लाम का रक्षक तथा पोषक समझता था। इसलिये राज्य के समस्त साधनों को इस्लाम की सेवा में लगा देना अपना कर्त्तव्य समझता था। इस्लाम के लिए वह अपना राज्य, वैभव, सुख तथा जीवन तक न्यौछावर कर सकता था। अतः उसके जीवन में न तो जहाँगीर की विलासिता के लिए कोई स्थान था और न शाहजहाँ की शान-शौकत के लिए। उसने इस्लाम के आदेशों के अनुसार फकीर का जीवन व्यतीत करने का मार्ग चुना। राजकोष को वह प्रजा की सम्पत्ति समझता था और उस धन को अपने ऊपर व्यय करना महापाप समझता था। राज-काज से जब उसे अवकाश मिलता था तब वह कुरान की आयतों की नकल करता था और टोपियाँ सिला करता था जिन्हें उसके दरबारी और अमीर खरीदते थे। इसी धन से वह अपना व्यय चलाता था। उसका जीवन पैगम्बर मुहम्मद के आदेशों के अनुकूल था। उसकी दृष्टि में राज्य का तात्पर्य मुस्लिम राज्य और प्रजा का तात्पर्य मुस्लिम प्रजा से था। डॉ. ईश्वरी प्रसाद ने लिखा है- ‘राज्य की नीति धार्मिक विचारों से रंजित थी और बादशाह ने एक कट्टरपंथी की भाँति शासन करने का प्रयत्न किया। प्रत्येक बात में वह शरीयत का अनुसरण करता था।’
सूफियों से घृणा
औरंगजेब सूफी धर्म मानने वालों को घृणा की दृष्टि से देखता था और उनका क्रूरता से दमन करता था। अपने भाई दारा को भी वह दारा की धार्मिक सहिष्णुता के कारण घृणा से देखता था।
शियाओं का दमन
औरंगजेब शिया मुसलमानों से अत्यंत घृणा करता था। उसने दक्षिण के शिया राज्यों को उन्मूलित कर दिया जिन्हें वह दारूल-हार्श अर्थात् काफिर राज्य कहता था। जो शिया मुसलमान तबर्रा बोलते थे, औरंगजेब उनकी हत्या करवा देता था।
सुलह-कुल की नीति का त्याग
औरंगजेब ने अकबर द्वारा स्थापित सहिष्णुता तथा सुलह-कुल की नीति को छोड़ दिया और हिन्दू प्रजा पर तरह-तरह के अत्याचार किये जिनके माध्यम से उसने हिन्दू धर्म, हिन्दू सभ्यता, हिन्दू संस्कृति तथा हिन्दू जाति को समाप्त करने का प्रयास किया।
औरंगजेब के हिन्दू विरोधी कार्य
औरंगजेब ने निम्नलिखित हिन्दू विरोधी कार्य किये-
(1.) हिन्दू पूजा स्थलों तथा देव मूर्तियों का विध्वंस: बादशाह बनने से पहले ही औरंगजेब ने हिन्दू पूजा स्थलों को गिरवाना तथा देव मूर्तियों को भंग करना आरम्भ कर दिया था। जब वह गुजरात का सूबेदार था तब अहमदाबाद में चिन्तामणि का मन्दिर बनकर तैयार ही हुआ था। औरंगजेब ने उसे ध्वस्त करवाकर उसके स्थान पर एक मस्जिद बनवा दी। तख्त पर बैठते ही उसने बिहार के अधिकारियों को निर्देश दिये कि कटक तथा मेदिनीपुर के बीच में जितने हिन्दू मन्दिर हैं उन सबको गिरवा दिया जाये। औरंगजेब के आदेश से सोमनाथ का दूसरा मन्दिर भी ध्वस्त करवा दिया गया। बनारस में विश्वनाथ के मन्दिर को गिरवाकर वहाँ विशाल मस्जिद का निर्माण करवाया गया, जो आज भी विद्यमान है। मथुरा में केशवराय मन्दिर की भी यही दशा की गई। मथुरा का नाम बदलकर इस्लामाबाद रख दिया। 1680 ई. में औरंगजेब की आज्ञा से आम्बेर के समस्त हिन्दू मन्दिरों को गिरवा दिया गया। आम्बेर के राजपूतों ने अकबर के शासन काल से ही मुगलों की बड़ी सेवा की थी। इस कारण आम्बेर के कच्छवाहों को औरंगजेब के इस कुकृत्य से बहुत ठेस लगी। यह औरंगजेब की धार्मिक असहिष्णुता की पराकाष्ठा थी। औरंगजेब ने आदेश जारी किया कि हिन्दू अपने पुराने मन्दिरों का जीर्णोद्धार नहीं करें तथा नये मंदिर नहीं बनवायें। उसने हिन्दू देवी-देवताओं की मूर्तियों को तुड़वाकर दिल्ली तथा आगरा में मस्जिदों की सीढ़ियों तथा मार्गों में डलवा दिया जिससे वे मुसलमानों के पैरों से कुचली तथा ठुकराई जायें और उनका घोर अपमान हो। इस प्रकार औरंगजेब ने हर प्र्रकार से हिन्दुओं की भावनाओं को कुचलने का काम किया।
(2.) हिन्दू पाठशालाओं का विध्वंस: औरंगजेब ने हिन्दुओं के धर्म के साथ-साथ उनकी संस्कृति को भी उन्मूलित करने का प्रयत्न किया। उसके आदेश से थट्टा, मुल्तान तथा बनारस में स्थित समस्त हिन्दू शिक्षण संस्थाओं को नष्ट कर दिया गया। मुसलमान विद्यार्थियों को हिन्दू पाठशालाओं में पढ़ने की अनुमति नहीं थी। हिन्दू पाठशालाओं में न तो हिन्दू धर्म की कोई शिक्षा दी जा सकती थी और न इस्लाम विरोधी बात कही जा सकती थी।
(3.) हिन्दुओं पर जजिया कर: अकबर ने हिन्दुओं पर से जजिया समाप्त कर दिया था। औरंगजेब ने फिर से हिन्दुओं पर जजिया कर लगा दिया। इस्लाम का नियम था कि जो लोग इस्लाम को स्वीकार न करें उनके विरुद्ध जेहाद या धर्मयुद्ध किया जाये परन्तु यदि वे जजिया देने को तैयार हों तो उनकी जान बख्श दी जाये। यहूदियों तथा ईसाइयों के साथ भी यही व्यवहार किया जाता था। हिन्दुओं को जजिया से बहुत घृणा थी। इस कर को फिर से लगाकर औरंगजेब ने हिन्दुओं, विशेषकर राजपूतों की भावना को बड़ा आघात पहुँचाया।
(4) हिन्दुओं पर अधिक चुंगी का आरोपण: औरंगजेब के शासन में हिन्दू व्यापारियों को अपने माल पर पाँच प्रतिशत चुंगी देनी पड़ती थी परन्तु मुसलमान व्यापारियों को इसकी आधी चुंगी देनी पड़ती थी। बाद में उसने मुसलमान व्यापारियों पर चुंगी बिल्कुल हटा दी। इस पक्षपात पूर्ण नीति से हिन्दुओं को व्यापार में कम लाभ होता था। इससे एक ओर तो हिन्दुओं की आर्थिक स्थिति गिर गई तथा दूसरी ओर मुसलमानों से चुंगी नहीं लेने से राजकोष को बड़ी क्षति हुई।
(5) सरकारी नौकरियों से हिन्दुओं का निष्कासन: जब से मुसलमानों ने हिन्दुस्तान में अपनी राजसत्ता स्थापित की थी तभी से माल-विभाग के अधिकांश कर्मचारी हिन्दू हुआ करते थे। अकबर ने तो समस्त सरकारी नौकरियों के द्वार हिन्दुओं के लिये खोल दिये थे। 1670 ई. में औरंगजेब ने आदेश जारी किया कि माल-विभाग से समस्त हिन्दुओं को निकाल दिया जाये। हिन्दू इस कार्य में बड़े कुशल थे। उनके रिक्त स्थान की पूर्ति के लिए मुसलमान कर्मचारी नहीं मिल सके। इसलिये औरंगजेब ने दूसरा आदेश निकाला कि एक हिन्दू के साथ मुसलमान कर्मचारी भी रखा जाये।
(6.) मंदिरों में शंख एवं घण्टों पर रोक: औरंगजेब जिस मार्ग से गुजरता था तथा जहाँ उसका पड़ाव होता था, वहाँ दूर-दूर तक के मंदिरों में शंखध्वनि करने तथा घण्टे बजाने पर रोक होती थी।
(7.) बलात् धर्म परिवर्तन: हिन्दुओं को मुसलमान बनाने के लिए औरंगजेब ने अनेक हथकण्डों का प्रयोग किया। उसने विभिन्न प्रकार के प्रलोभन देकर हिन्दुओं को मुसलमान बनने के लिए प्रोत्साहित किया। जो हिन्दू मुसलमान बन जाते थे वे जजिया से मुक्त कर दिये जाते थे। उन्हें राज्य में उच्च पद दिये जाते थे और उन्हें सम्मान सूचक वस्त्रों से पुरस्कृत किया जाता था। हिन्दू बंदियों द्वारा इस्लाम स्वीकार कर लेने पर उन्हें कारावास से मुक्त कर दिया जाता था। जो हिन्दू इन प्रलोभनों में नहीं पड़ते थे उन्हें बलपूर्वक मुसलमान बनाने का प्रयत्न किया जाता था। मथुरा के गोकुल जाट के समस्त परिवार को इसी प्रकार मुसलमान बनाया गया था। जो हिन्दू, इस्लाम की निन्दा तथा हिन्दू धर्म की प्रशंसा करते थे उन्हें कठोर दण्ड दिये जाते थे। ऊधव बैरागी को हिन्दू धर्म का प्रचार करने के कारण मरवाया गया।
(8.) हिन्दुओं पर सामाजिक प्रतिबन्ध: 1665 ई. में औरंगजेब ने आदेश दिया कि राजपूतों के अतिरिक्त अन्य कोई हिन्दू हाथी, घोड़े अथवा पालकी की सवारी नहीं करेगा और न अस्त्र-शस्त्र धारण करेगा। हिन्दुओं को मेले लगाने तथा त्यौहार मनाने की भी स्वतंत्रता नहीं थी। 1668 ई. में आदेश निकाला गया कि हिन्दू अपने तीर्थ स्थानों के निकट मेले न लगायें। होली तथा दीपावली जैसे प्रमुख हिन्दू त्यौहारों को भी हिन्दू, बाजार के बाहर और कुछ प्रतिबन्धों के साथ मना सकते थे।
औरंगजेब की धार्मिक नीति के परिणाम
औरंगजेब ने देश की बहुसंख्यक हिन्दू प्रजा पर भयानक अत्याचार किये। इस कारण देश के विभिन्न भागों में औरंगजेब के विरुद्ध कड़ी प्रतिक्रिया हुई और देश के विभिन्न भागों में विद्रोह की चिन्गारी भड़क उठी। औरंगजेब को अपने जीवन का बहुत बड़ा समय इन विद्रोहों से निबटने में लगाना पड़ा। औरंगजेब के काल में हुए मुख्य विद्रोह इस प्रकार से हैं-
(1.) जाटों का विद्रोह: सबसे पहले आगरा के निकट निवास करने वाले जाटों ने गोकुल की अध्यक्षता में विद्रोह का झण्डा खड़ा किया। इस विद्रोह का प्रधान कारण औरंगजेब द्वारा केशवराय मन्दिर को तुड़वाना था। जाट इस अपमान को सहन नहीं कर सके और उन्होंने मुगल सूबेदार अब्दुल नबी की हत्या कर दी। औरंगजेब अपनी नाक के नीचे जाटों द्वारा की गई इतनी बड़ी कार्यवाही से तिलमिला गया। उसने बड़ी क्रूरता से इस विद्रोह का दमन किया। गोकुल तथा उसके परिवार के लोग कैद कर लिये गये। गोकुल के शरीर के टुकड़े-टुकड़े कर दिये गये और उसके परिवार को जबरदस्ती मुसलमान बनाया गया। गोकुल की हत्या से जाटों का विद्रोह और भी भयानक हो गया। 1686 ई. में राजाराम के नेतृत्व में फिर विद्रोह का झण्डा खड़ा किया गया। इस बार फिर जाट परास्त हो गये और उनका नेता राजाराम मारा गया परन्तु जाटों का आंदोलन शान्त नहीं हुआ। राजाराम का भतीजा चूड़ामणि औरंगजेब के अन्त तक मुगलों से लड़ता रहा और मुगलों को क्षति पहुँचाता रहा।
(2.) सतनामियों का विद्रोह: सतनामी, दिल्ली के दक्षिण-पश्चिम में स्थित नारनौल में निवास करते थे। सतनाम इनका धार्मिक उद्घोष था। ये लोग कृषि तथा व्यापार में संलग्न थे और सरल जीवन जीते थे। एक दिन एक मुगल सैनिक ने एक निरपराध सतनामी की हत्या कर दी। इससे क्षुब्ध होकर, शान्ति-प्रिय सतनामियों ने विद्रोह कर दिया। उन्होंने भी मुसलमानों की हत्या करना तथा मस्जिदों का विध्वंस करना आरम्भ कर दिया। सतनामियों ने नारनौल के हाकिम का वध कर दिया और लूटमार करने लगे। औरंगजेब ने सतनामियों के दमन का कार्य स्वयं अपने हाथ में लिया। पर्याप्त अस्त्र-शस्त्रों के न होते हुए भी सतनामी लोग वीरता तथा साहस के साथ लड़े परन्तु विशाल मुगल सेना के समक्ष अधिक दिनों तक नहीं ठहर सके। हजारों सतनामी मार डाले गये और उनसे नारनोल खाली करा लिया गया। इस प्रकार सतनामियों का आंदोलन क्रूरता के साथ कुचला गया।
(3.) सिक्खों का विद्रोह: सिक्खों तथा मुगलों के संघर्ष का आरम्भ, जहाँगीर समय में हुआ। जहाँगीर ने शहजादा खुसरो की सहायता करने के आरोप में 1606 ई. में गुरु अर्जुनदेव की हत्या कर दी। शाहजहाँ का गुरु हरगोविंद से संघर्ष हुआ। जब गुरु तेगबहादुर सिक्खों के गुरु बने तब औरंगजेब ने हिन्दुओं के मन्दिरों की भाँति सिक्खों के गुरुद्वारों को भी तुड़वाना आरम्भ किया। गुरु तेगबहादुर ने विद्रोह का झण्डा खड़ा कर दिया। तेग बहादुर पकड़कर दिल्ली लाये गये तथा उन्हें इस्लाम स्वीकार करने के लिए कहा गया। गुरु ने इस्लाम स्वीकार करने से मना कर दिया। इस पर 1675 ई. में उनकी हत्या कर दी गयी। इससे सिक्खों की क्रोधाग्नि और भड़क उठी। गुरु तेग बहादुर के बाद उनके पुत्र गोविन्दसिंह गुरु हुए। उन्होंने सिक्खों को सैनिक जाति में परिवर्तित कर दिया। गुरु गोविन्दसिंह ने मुगलों का सामना किया और उन्हें कई बार परास्त किया। अन्त में औरंगजेब ने एक विशाल सेना गुरु के विरुद्ध भेजी। गुरु परास्त हो गये। उनके दो पुत्र बंदी बना लिये गये। उन बालकों से इस्लाम स्वीकार करने के लिये कहा गया परन्तु उन बालकों ने भी अपने दादा की भांति, इस घृणित प्रस्ताव को ठुकरा दिया। इस पर उन्हें जीवित ही दीवार में चुनवा दिया गया। औरंगजेब के इन अत्याचारों से सिक्खों का विद्रोह और भड़क गया जिससे विवश होकर औरंगजेब ने गुरु से सन्धि करने का निश्चय किया और उन्हें दिल्ली बुला भेजा। गुरु गोविंदसिंह के दिल्ली पहुँचने से पहले ही औरंगजेब का निधन हो गया।
(4.) राजपूतों का विरोध: औरंगजेब की हिन्दू विरोधी नीति के कारण राजपूत जाति भी उससे नाराज हो गई। राजपूतों के विरोध का वर्णन इस पुस्तक में औरंगजेब की राजपूत नीति का वर्णन करते समय किया गया है।
औरंगजेब की राजपूत नीति
औरंगजेब की हिन्दू विरोधी नीति के कारण राजपूत राज्यों के साथ उसका संघर्ष अनिवार्य हो गया।
बुंदेलों से युद्ध
सबसे पहले बुन्देलों ने विद्रोह का झण्डा खड़ा किया। इन लोगों ने अपने राजा चम्पतराय के नेतृत्व में औरंगजेब के शासन काल के प्रारम्भ में ही मुगल सल्तनत के साथ युद्ध छेड़ दिया। चम्पतराय को अपने सीमित साधनों के कारण औरंगजेब के विरुद्ध सफलता प्राप्त नहीं हुई। उसने आत्मघात कर लिया और स्वयं को मुगलों के हाथों में पड़ने से बचाया। चम्पतराय के बाद उसके पुत्र छत्रसाल ने मुगलों के विरुद्ध युद्ध जारी रखा। वह वीर तथा साहसी युवक था। उसने बुन्देलों के विद्रोह को बुंदेलों की स्वतंत्रता के लिये लड़े जा रहे संग्राम का रूप दे दिया। उसने कई बार शाही सेना को युद्धों में परास्त किया जिससे मुगल सल्तनत की प्रतिष्ठा को आघात पहुँचा। छत्रसाल ने पूर्वी मालवा को जीतकर अपना स्वतन्त्र राज्य स्थापित कर लिया और पन्ना को अपनी राजधानी बनाकर स्वतन्त्रतापूर्वक शासन करने लगा। वह मुगल सल्तनत को आतंकित करने का कोई अवसर हाथ से नहीं जाने देता था।
राठौड़ों से युद्ध
मारवाड़ रियासत के राठौड़ राजा जसवंतसिंह, औरंगजेब की सेवा में थे। 1678 ई. में जमरूद के मोर्चे पर मुगलों की तरफ से लड़ते हुए उनकी मृत्यु हुई। जसवन्तसिंह की मृत्यु के बाद उनके पुत्र अजीतसिंह का जन्म हुआ। औरंगजेब ने मारवाड़ को खालसा घोषित करके मुगल सल्तनत में मिला लिया तथा शिशु राजा अजीतसिंह और उसकी माँ को दिल्ली बुलवाकर उन्हें बंदी बना लिया। औरंगजेब ने शिशु अजीतसिंह का मुसलमानी तरीके से पालन-पोषण करने की आज्ञा दी। राठौड़ सरदार, अजीतसिंह को दिल्ली से निकालकर राजपूताने में ले आये और उसे सिरोही राज्य के कालंद्री गांव में छिपा दिया। अजीतसिंह के बड़े होने तक राठौड़ सरदारों ने वीर दुर्गादास के नेतृत्व में मुगलों के विरुद्ध युद्ध किया जो तीस वर्ष तक चला। दुर्गादास को दण्डित करने के लिए औरंगजेब ने शाहजादा मुहम्मद अकबर की अध्यक्षता में एक सेना भेजी और स्वयं भी दिल्ली से अजमेर पहुँचा। दुर्गादास के लिए मुगल सेना का सामना करना अत्यंत दुष्कर कार्य था। मुगल सेना ने मारवाड़ के नगरों को बुरी तरह लूटा, मन्दिरों को तोड़ा और सारे प्रदेश को नष्ट-भ्रष्ट कर दिया। राठौड़ों का धैर्य भंग नहीं हुआ। वे छापामार पद्धति से युद्ध करने लगे और अपनी रियासत प्राप्त करने का प्रयास करते रहे। 1707 ई. में औरंगजेब की मृत्यु होने पर अजीतसिंह ने मारवाड़ रियासत पर अधिकार कर लिया। मुगल बादशाह बहादुरशाह ने अजीतसिंह को मारवाड़ का राजा स्वीकार कर लिया। इस प्रकार मुगलों तथा राठौड़ों के बीच तीस वर्ष से चल रहा युद्ध समाप्त हो गया।
सिसोदियों के विरुद्ध संघर्ष
औरंगजेब ने किशनगढ़ की राठौड़ राजकुमारी चारुमति से विवाह करने के लिये डोला भेजा। किशनगढ़ का राजा मानसिंह अल्पवयस्क था तथा किशनगढ़ राज्य इतना छोटा था कि वह मुगल सेना का सामना नहीं कर सकता था। चारुमति भगवान कृष्ण की परमभक्त थी। वह किसी भी कीमत पर मुसलमान बादशाह से विवाह नहीं करना चाहती थी। इसलिये चारुमति ने उदयुपर के महाराणा राजसिंह को संदेश भिजवाया कि उसने महाराणा को अपना पति स्वीकार कर लिया है, इसलिये वे उसे आकर ले जायें। शरण में आई हुई हिन्दू कन्या की प्रार्थना स्वीकर करके राजसिंह ने सेना लेकर किशनगढ़ को घेर लिया तथा राजकुमारी को अपने साथ मेवाड़ ले जाकर उससे विवाह कर लिया। इससे औरंगजेब महाराणा राजसिंह से अप्रसन्न हो गया। जब औरंगजेब ने हिन्दुओं पर जजिया लगाया तब भी राजसिंह ने औरंगजेब को फटकार लगाते हुए पत्र लिखा कि हिम्मत है तो मुझसे या अपने गुलाम आम्बेर के राजा मानसिंह से जजिया लेकर दिखाये। महाराणा राजसिंह ने मारवाड़ के शिशु राजा अजीतसिंह तथा उसके सरदारों को मेवाड़ में संरक्षण प्रदान किया था। इन समस्त कारणों से औरंगजेब ने मेवाड़ पर आक्रमण कर दिया। औरंगजेब ने स्वयं मुगल सेना का नेतृत्व किया। राणा राजसिंह अपने परिवार और सरदारों को लेकर अरावली की पहाड़ियों में चला गया। इस कारण मुगल सेना ने बिना अधिक कठिनाई के उदयपुर तथा चित्तौड़ पर अधिकार कर लिया। इसके बाद औरंगजेब ने मेवाड़ अभियान की कमान शाहजादे अकबर को सौंप दी और स्वयं अजमेर लौट गया। महाराणा राजसिंह पहाड़ियों में छिपे रहकर, छापामार युद्ध करके मुगलों को तंग करता रहा।
महाराणा राजसिंह तथा वीर दुर्गादास राठौड़ ने कूटनीति से काम लेते हुए मुगलों को खूब छकाया। इन लोगों ने शाहजादे अकबर को औरंगजेब के स्थान पर बादशाह बनाने का प्रलोभन देकर तहव्वरखाँ के माध्यम से उसे अपनी ओर मिला लिया। शहजादे को तीन बातें समझाई गईं- (1.) बादशाह औरंगजेब की कट्टर नीतियां ठीक नहीं हैं, जबकि अकबर से लेकर शाहजहाँ तक की नीतियां ठीक थीं। (2.) इसलिये अकबर को चाहिये कि वह अपने पिता औरंगजेब से राज्य छीनकर स्वयं बादशाह बन जाये। (3.) इस कार्य में उसे मेवाड़ तथा मारवाड़ राज्यों के साथ-साथ अन्य हिन्दू राज्यों तथा छत्रपति शिवाजी की भी पूरी सहायता मिलेगी।
अकबर को विश्वास हो गया कि उसके पिता औरंगजेब की नीतियां ठीक नहीं हैं, इसलिये उसे तख्त से हटाकर स्वयं बादशाह बन जाना चाहिये। राजपूतों ने अकबर को अपने साथ लेकर, औरंगजेब पर आक्रमण करने की योजना बनाई जो इस समय अजमेर में था। दुर्भाग्यवश अचानक महाराणा राजसिंह की मृत्यु हो गई जिससे इस योजना को कार्यान्वित करने में विलम्ब हो गया। राजसिंह के पुत्र राणा जयसिंह ने इस योजना को आगे बढ़ाया। राजपूत सरदार लगातार शाहजादे अकबर को प्रोत्साहन तथा आश्वासन देते रहे। 1681 ई. में अकबर ने स्वयं को बादशाह घोषित कर दिया तथा वह राजपूतों के साथ सेना लेकर अजमेर के निकट दौराई आ गया।
औरंगजेब को अकबर के विद्रोह की सूचना मिली तो उसने कूटनीति से काम लेते हुए तहव्वरखाँ को संदेश भेजा कि यदि वह विद्रोहियों का साथ छोड़ दे तो उसे क्षमा मिल जायगी अन्यथा उसके पूरे परिवार को समाप्त कर दिया जायगा। तहव्वरखाँ ने तुरन्त शाही कैम्प के लिए प्रस्थान कर दिया परन्तु जब वह औरंगजेब के शिविर के पास पहुँचा तो बादशाह के सरंक्षकों ने उसकी हत्या कर दी। औरंगजेब ने एक और चाल चली। उसने एक झूठी चिट्ठी लिखवाकर राठौड़ों के शिविर में डलवाई कि शाहजादे अकबर ने राजपूतों को धोखा देकर ठीक फँसाया है। यह पत्र दुर्गादास के हाथ में पड़ गया जिससे उसके मन में सन्देह पैदा हो गया। इस कारण राठौड़ रात्रि में ही युद्ध शिविर छोड़कर पीछे हट गये।
इस तरह औरंगजेब पर आक्रमण करने की योजना समाप्त हो गई और अकबर अकेला रह गया। उसने भी घबराकर युद्ध का मैदान छोड़ दिया और राजपूतों की तरफ चला। इस पर राजपूतों को उसकी ईमानदारी के बारे में विश्वास हो गया। उन्होंने अकबर की रक्षा करना अपना धर्म समझा तथा उसे सुरक्षित रूप से दक्षिण भारत में मरहठों के पास भेज दिया। मेवाड़ के विरुद्ध औरंगजेब का संघर्ष बहुत दिनों तक चलता रहा। अंत में 1684 ई. में मेवाड़ के साथ सन्धि हो गई। राणा जयसिंह को मेवाड़ का राजा स्वीकार कर लिया गया। उसे पाँच हजार का मनसब दिया गया। मेवाड़ ने अपने तीन परगने मुगलों को दे दिये। मुगल सेनाएँ मेवाड़ से हटा ली गईं।
औरंगजेब की राजपूत नीति के परिणाम
राजपूत युद्धों का मुगल सल्तनत के भविष्य पर गहरा प्रभाव पड़ा। अकबर ने इस बात को अनुभव किया था कि उसके चगताई, मुगल, ईरानी, अफगानी तथा तुर्की उमराव किसी भी तरह विश्वसनीय नहीं थे। वे हर समय बगावत का झण्डा बुलंद करने के लिये तैयार रहते थे ताकि अपनी स्वतंत्र सत्ता स्थापित कर सकें जबकि राजपूत लड़ाके यदि एक बार वचन दे देते थे तो फिर गद्दारी नहीं करते थे। इसलिये उसने राजपूतों की लड़कियों से विवाह स्थापित कर सुलह-कुल की नीति अपनाई तथा उन्हें शासन में कनिष्ठ भागीदार बनाया। इस कारण राजपूत लड़ाके और जागीरदार, अकबर से लेकर जहाँगीर तथा शाहजहाँ के समय तक मुगलों की अनन्य भक्ति भाव से सेवा करते रहे तथा राजपूत लड़ाकों ने मुगलों का राज्य लगभग पूरे भारत में विस्तारित कर दिया किंतु औरंगजेब ने धर्मान्धता के कारण राजपूतों को नष्ट करने के बड़े प्रयास किये। इससे राजपूत, मुगलों से विरक्त हो गये। बहुत से राजपूत मुगलों की सेवा छोड़कर अपने राज्यों के विस्तार में लग गये।
लेनपूल के अनुसार- ‘जब तक वह कट्टरपंथी औरंगजेब, अकबर के सिंहासन पर बैठा रहा, एक भी राजपूत उसे बचाने के लिए अपनी उँगली भी हिलाने को तैयार नहीं था। औरंगजेब को अपनी दाहिनी भुजा खोकर दक्षिण के शत्रुओं के साथ युद्ध करना पड़ा।’ मुगल सल्तनत रणप्रिय राजपूत जाति की सेवाओं से वंचित हो गई। राजपूतों की सहायता के बिना मुगल सल्तनत पतनोन्मुख हो गई।