प्रत्येक भाषा में कुछ शब्द ऐसे होते हैं जिनके एक से अधिक अर्थ होते हैं। ऐसे शब्दों को अनेकार्थक शब्द कहा जाता है। यदि अनेकार्थक शब्दों को समुचित संदर्भ में ग्रहण नहीं किया जाए तो अर्थ का अनर्थ हो जाता है। तेतीस करोड़ देवताओं के होने का मिथक भी ऐसा ही अनर्थ है।
बृहदारण्यकोपनिषद में आए एक श्लोक में कहा गया है-
स होवाच महिमान एवैषामेते त्रयस्त्रिंशत्त्वेव देवा इति कतमे ते त्रयस्त्रिशदित्यष्टी वसव एकादश रुद्रा द्वादशादित्यास्त एकत्रिशदिन्द्रश्चैव प्रजापतिश्च त्रयस्त्रिशाविति ।। कतमे वसव इत्यग्निश्च पृथिवी च वायुश्चान्तरिक्षं चादित्यश्च द्यौश्च चन्द्रमाश्च नक्षत्राणि चैते वसव एतेषु हीदं सर्व वसु हितमिति तस्माद्वसव इति।। कतमे रुद्रा इति दशेमे पुरुषे प्राणा आत्मैकादशस्ते यदाऽस्मान्च्छरीरान्मर्त्यादुत्क्रा मन्त्यथ रोदयन्ति तद्यद्रोदयन्ति तस्माद्रुद्रा इति।। कतम अदित्या इति द्वादश वै मासाः संवत्सरस्यैत आदित्या एते हीदं सर्वमाददाना यन्ति ते यदिदं सर्वमाददाना यन्ति तस्मादादित्या इति ।।
यह श्लोक बृहदारण्यकोपनिषद के तृतीय अध्याय के नवम ब्राह्मण में आया है। इस श्लोक में शाकल्य नामक एक ब्राह्मण द्वारा ब्रह्म के विषय में महर्षि याज्ञवलक्य से पूछे गए कुछ प्रश्नों तथा महर्षि याज्ञवल्क्य द्वारा दिए गए उत्तरों का उल्लेख किया गया है।
शाकल्य पूछता है कि वेदों में देवताओं के अनेक दिव्य स्वरूपों एवं शक्तियों का वर्णन किया गया है। क्या वास्तव में इतने सारे देवता हैं?
इस पर याज्ञवलक्य ऋषि शाकल्य को 33 कोटि देवताओं के बारे में बताते हैं। पाठकों की सुविधा के लिए हमने बृहदारण्यकोपनिषद के इस वर्णन को संवाद के रूप में प्रस्तुत किया है।
याज्ञवल्क्य : ये तो इनकी महिमाएं ही हैं। देवगण तो तैंतीस ही हैं।
शाकल्य : वे तेतीस देव कौन-कौन से हैं?
याज्ञवल्क्य : आठ वसु, ग्यारह रूद्र, बारह आदित्य, ये इकत्तीस देवगण हैं। इंद्र और प्रजापति सहित कुल तेतीस देवता हैं।
शाकल्य : वसु कौन हैं?
याज्ञवल्क्य : इस सृष्टि में अग्नि, पृथ्वी, वायु, अंतरिक्ष, आदित्य, द्युलोक, चंद्रमा और नक्षत्र नामक आठ वसु हैं।
टिप्पणी : ज्ञातव्य है कि इनमें से प्रथम चार (अग्नि, पृथ्वी, वायु, अंतरिक्ष) को पंचभूतों में भी सम्मिलित किया गया है, जल पांचवा पंचभूत है।
शाकल्य : रूद्र कौन हैं?
याज्ञवल्क्य : पुरुष में दस प्राण और ग्यारहवां मन रूद्र हैं। चूंकि मरणशील शरीर से उत्क्रमण करते समय ये मनुष्य तथा उसके सम्बन्धियों को रोदन करवाते (रुलाते) हैं, इसलिए इन्हें रूद्र कहते हैं।
टिप्पणी : ज्ञातव्य है कि उपनिषदों में मनुष्य शरीर में स्थित पांच ज्ञानेन्द्रियों (आंख, कान, नाक, त्वचा और जीभ) तथा पांच कर्मेन्द्रियों (हाथ, पैर, वाणी, मलद्वार तथा प्रजनन इन्द्रिय) को दस प्राण कहा जाता है। मन को ग्यारहवां प्राण माना जाता है।
शाकल्य : आदित्य कौन हैं?
याज्ञवल्क्य : संवत्सर के अवयवभूत ये बारह मास ही आदित्य हैं, क्योंकि ये सबका आदान करते हुए चलते हैं।
टिप्पणी : जहाँ उपनिषदों में बारह मास को बारह आदित्य कहा गया है, वहीं पुराणों में अदिति के पुत्रों को आदित्य कहा गया है। जिनके नाम मित्र, वरुण, धाता, अर्यमा, अंश, विवस्वान्, भग-आदित्य, इन्द्र, विष्णु, पर्जन्य, पूषा तथा त्वष्टा हैं। इस प्रकार स्वयं भगवान विष्णु भी अदिति के पुत्र हैं। वामन बारहवें ‘आदित्य’ माने जाते हैं। अदितेः अपत्यं पुमान् आदित्यः। अदिति को देवमाता तथा आदित्यों को देवता कहा जाता है। संस्कृत भाषा में अदिति का अर्थ होता है ‘असीम’ अर्थात् जिसकी कोई सीमा न हो। पुराणों के अनुसार अन्तरिक्ष में द्वादश आदित्य भ्रमण करते हैं, वे अदिति के पुत्र हैं। अदिति के पुण्यबल से ही उसके पुत्रों को देवत्व प्राप्त हुआ। यह आख्यान इस ओर संकेत करता है कि विश्व की समस्त नियामक एवं निर्माणकारी शक्तियाँ एक ही माता से उत्पन्न हुई हैं जिसे ‘अदिति’ कहा गया है।
निष्कर्ष
निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि उपनिषदों में जिन तेतीस कोटि देवताओं का उल्लेख हुआ है, उनका आशय 33 प्रकार अथवा 33 श्रेणी के देवताओं से है। कोटि का अर्थ ‘करोड़’ ही नहीं होता, ‘प्रकार’ अथवा ‘श्रेणी’ भी होता है। जैसे कि ‘उच्चकोटि’ का अर्थ है ‘उच्चश्रेणी’। कुछ लोग भ्रमवश तेतीस कोटि को तेतीस करोड़ मान लेते हैं। उपनिषद में आए ये तेतीस कोटि देवता अंतरिक्ष से लेकर हमारे शरीर के भीतर व्याप्त हैं। अर्थात् आठ वसु सम्पूर्ण सृष्टि में व्याप्त हैं। ग्यारह रूद्र हमारे शरीर में स्थित हैं। बारह आदित्य सृष्टि को संचालित करने वाला समय है जो बारह महीनों के रूप में हमारे अनुभव में आता है। इंद्र और प्रजापति को मिलाकर कुल 33 कोटि देवता होते हैं।
मंत्र का गूढ़ार्थ
यदि इस मंत्र में छिपे गूढ़ आशय को और अधिक स्पष्ट करें तो हम पाते हैं कि महर्षि याज्ञवलक्य कहते हैं कि 8 वसुओं से सम्पन्न सृष्टि के भीतर रहने वाला 11 प्राणों (इंद्रियों) वाला शरीर 12 मास के समय चक्र से बंधा हुआ रहकर कर्म करता है और अपने कर्मों के अनुसार इंद्र एवं प्रजापति द्वारा प्रदत्त कर्मफल भोगता है।
– डॉ. मोहनलाल गुप्ता