हनुमान बाहुक एक लघु काव्यग्रंथ है जिसमें केवल 44 पद हैं। आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने इसे गोस्वामी तुलसीदासजी की अत्यंत प्रौढ़ रचना माना है। अवधी एवं ब्रज शब्दावली में लिखी गई इस ग्रंथ की भाषा इतनी प्रांजल है कि इसकी तुलना किसी अन्य ग्रंथ से की जानी कठिन है। इस ग्रंथ में गेयता के विलक्षण गुण उपलब्ध हैं, अर्थात् इसे कई राग-रागिनियों में गाया जा सकता है।
मान्यता है कि रामचरित मानस का लेखन पूरा होने के बाद गोस्वामी तुलसीदास की बाहुओं में अपार पीड़ा हुई। जब विविध प्रकार के उपचारों से भी वह पीड़ा दूर नहीं हुई तो गोस्वामीजी ने हनुमानजी से प्रार्थना करने के निमित्त हनुमानबाहुक नामक ग्रंथ की रचना की। आज भी करोड़ों भारतीय अपने जीवन की बाधाओं को दूर करने के लिए इस ग्रंथ का पाठ करते हैं।
भारतीय धर्मशास्त्रों में काल शब्द का प्रयोग कई अर्थों में होता है, यथा- समय, मृत्यु, ईश्वर, यमराज आदि। हनुमान बाहुक को पढ़ने से ऐसा लगता है कि गोस्वामीजी ने अपनी शरीरिक व्याधि के लिए अपने पूर्वजन्मों में किए गए किन्हीं कर्मों के पापों, दैवीय प्रकोपों, भूत-प्रेत बाधाओं, पितरों के दोषों तथा दुष्टग्रहों के प्रभावों के साथ-साथ काल की विकरालता को भी बड़ा कारण माना है। इस कारण हनुमानबाहुक में ‘काल’ शब्द का कई अर्थों में प्रयोग हुआ है।
गोस्वामीजी ने हनुमानजी से प्रार्थना करते हुए बार-बार लिखा है कि दैवीय कोप, कर्मफल, भाग्य, ग्रह, बुरे काल आदि शक्तिशाली शत्रुओं पर विजय प्राप्त करना मेरे वश की बात नहीं है, इन्हें आप ही नियंत्रित कर सकते हैं क्योंकि आप काल के भी काल हैं।
इस ग्रंथ के अंतिम पद में गोस्वामीजी ने लिखा है कि काल का निर्माण विधाता ने नहीं अपितु रामजी ने किया है। यह जानकर मैं मौन धारण कर लेता हूँ। इस आलेख में हनुमान बाहुक में आए ‘काल’ शब्द के विविध संदर्भों की चर्चा करना है।
हनुमान बाहुक के पहले पद में गोस्वामीजी ने लिखा है- ‘भुज बिसाल, मूरति कराल कालहु को काल जनु।’ यहाँ हनुमानजी को काल का भी काल बताया गया है, इसका आशय यह है कि हनुमानजी काल के स्वामी हैं अथवा काल से अधिक शक्तिशाली हैं। अथवा वे काल को भी मृत्यु देने वाले हैं।
हनुमान बाहुक के पद संख्या 7 में गोस्वामीजी ने लिखा है- ‘भीषम कहत मेरे अनुमान हनुमान सारिखो त्रिकाल न त्रिलोक महाबल भो।’ इस पद में काल का उल्लेख तीन रूपों में उपलब्ध ‘त्रिकाल’ के रूप में हुआ है। तथा कहा गया है कि भीष्म पितामह कहते हैं कि मेरे अनुमान से तीनों कालों में तथा तीनों लोकों में हनुमानजी जैसा महाबली और कोई नहीं है।
पद संख्या 10 में लिखा है- ‘दुर्जन को काल सो कराल पाल सज्जन को।’ यहाँ काल का आशय यमराज से है। अर्थात् हनुमानजी बुरे लोगों के लिए यमराज के समान तथा सज्जन लोगों के लिए पालनकर्ता अर्थात् पिता के समान हैं।
पद संख्या 9 एवं 21 में तुलसीदासजी ने लिखा है- ‘बड़ो बिकराल कलि काको न बिहाल कियो ….. नाम कलि-कामतरु केसरी-किसोर को।’
इन पदों में काल शब्द का प्रत्यक्ष उल्लेख नहीं करके ‘कलि’ शब्द का प्रयोग किया गया है। ‘कलि’ भी काल की ही एक बड़ी इकाई है जिसमें धर्म का केवल एक ही चरण रहने के कारण इसे बुरे काल का पर्याय माना गया है। कलि रूपी ‘काल’ इतना विकराल है कि इसने संसार के प्रत्येक व्यक्ति को विकल कर रखा है। इस विकराल कलिकाल से पार पाने के लिए हनुमानजी का नाम कल्पवृक्ष के समान है।
पद संख्या 24 में गोस्वामीजी ने काल को मनुष्य के कर्मों, शक्तिशाली लोकपालों, सम्पूर्ण स्थावर पदार्थों एवं समस्त जीवों की श्रेणी में रखा है जो हनुमानजी के वशीभूत हैं-
कर्म काल लोकपाल अग-जग जीवजाल नाथ हाथ सब निज महिमा बिचारिए।
पद संख्या 26 में गोस्वामीजी ने काल को मनुष्य के बुरे कर्मों, बुरे भाग्य, वात, पित्त एवं कफ नामक त्रिदोषों, दैवीय कोपों, पाप के प्रभावों तथा छल भरी छायाओं की तरह मनुष्य को कष्ट देने वाला लिखा है-
भाल की कि काल की कि रोष की त्रिदोष की है बेदन विषम पाप-ताप छलछाँह की।
पद संख्या 30 में गोस्वामीजी ने लिखा है कि ब्रह्मा, विष्णु, महेश, कर्म तथा काल सहित, इस संसार रूपी जाल में कौन ऐसा है जो हनुमानजी का कहना नहीं मानता- ‘करतार भरतार हरतार कर्म काल को है जगजाल जो न मानत इताति है!’
अर्थात् यहाँ गोस्वामीजी ने ब्रह्मा, विष्णु, शिव एवं कर्म की भांति काल को भी संसार का नियंता बताया है। संसार के ये समस्त नियंता हनुमानजी का प्रभाव मानते हैं।
पद संख्या 37 में गोस्वामीजी ने लिखा है कि न जाने काल की भयानकता है, कि कर्मों की कठिनता है, पाप का प्रभाव है, कि स्वाभाविक वात (रोग) की उन्मत्तता है जिसके कारण रात-दिन बुरी तरह की पीड़ा हो रही है, यह सही नहीं जाती और इन सब कठिन शक्तियों ने मेरी उसी बाँह को पकड़ लिया है जिस बांह को कभी पवनकुमार ने पकड़ा था।
अर्थात् यहाँ भी काल को कठोर शक्ति के रूप में प्रदर्शित किया गया है और हनुमानजी से प्रार्थना की गई है कि वे इन प्रकोपों के दुस्साहस को तो देखें।
काल की करालता करम कठिनाई कीधौं, पाप के प्रभाव की सुभाय बाय बावरे।
बेदन कुभाँति सो सही न जाति राति दिन, सोई बाँह गही जो गही समीर डाबरे।
पद संख्या 38 में गोस्वामीजी ने लिखा है कि पाँव की पीड़ा, पेट की पीड़ा, बाहु की पीड़ा और मुख की पीड़ा से मेरा सारा शरीर पीड़ामय होकर जीर्ण-शीर्ण हो गया है। देवता, प्रेत, पितर, कर्म, काल और दुष्टग्रह सब एक साथ ही दौड़कर मुझ पर तोपों की मार कर रहे हैं। अर्थात् यहाँ भी काल को दुष्टग्रहों आदि की तरह कष्टदायी शक्ति के रूप में दर्शाया गया है-
पाँय पीर पेट पीर बाँह पीर मुँह पीर, जरजर सकल सरीर पीर मई है।
देव भूत पितर करम खल काल ग्रह, मोहि पर दवरि दमानक सी दई है।
पद संख्या 39 में तुलसीदासजी ने लिखा है- बाँह की पीड़ा रूपी नीच सुबाहु, देह की अशक्ति रूपी राक्षस मारीच, ताड़का रूपिणी मुख की पीड़ा एवं अन्यान्य बुरे रोग रूपी राक्षसों से मिले हुए हैं। मैं रामनाम का जप रूपी यज्ञ प्रेम के साथ करना चाहता हूँ, पर काल (यमराज) के दूतों के समान ये भूत क्या मेरे वश में हैं, कदापि नहीं-
बाहुक-सुबाहु नीच लीचर-मरीच मिलि, मुँहपीर केतुजा कुरोग जातुधान हैं।
राम नाम जगजाप कियो चहों सानुराग, काल कैसे दूत भूत कहा मेरे मान हैं।
पद संख्या 44 में गोस्वामीजी ने लिखा है कि विधाता ने संसार को हर्ष-विषाद, राग-द्वेष, एवं गुण-दोष युक्त बनाया है किंतु माया, जीव, काल, मनुष्य के कर्म तथा स्वभाव रामचंद्रजी ने बनाए हैं-
हरष बिषाद राग रोष गुन दोष मई, बिरची बिरंचि सब देखियत दुनिये।
माया जीव काल के करम के सुभाय के, करैया राम बेद कहैं साँची मन गुनिये।
इस पद का आशय इस प्रकार निकाला जा सकता है कि माया, जीव, काल, कर्म और स्वभाव विधाता की बनाई सृष्टि के अधीन नहीं हैं, अपितु विधाता की बनाई हुई यह दुनिया रामजी द्वारा बनाए गए माया, जीव, काल, कर्म और स्वभाव से संचालित होती है।
-डॉ. मोहनलाल गुप्ता