महाराजा अग्रसेन का इतिहास पाँच हजार साल से भी अधिक पुराना है। वे भगवान श्रीकृष्ण के समकालीन थे। उनका जन्म द्वापर के अंतिम चरण में हुआ था। इस काल में भारत भूमि पर दुष्ट राजाओं का बोलबाला था और उनके दमन के लिए बड़ी तैयारियां चल रही थीं। यदुवंशी श्रीकृष्ण भारत भूमि से कंस, जरासंध, शिशुपाल तथा कालयवन जैसे पापी राजाओं का सफाया कर रहे थे और चंद्रवंशी पाण्डव, अपने ही कुल के कुरु राजकुमारों से अंतिम युद्ध की तैयारी कर रहे थे। पापात्मा दुर्योधन, दुःशासन, शकुनि, जयद्रथ तथा कर्ण आदि मलिन बुद्धि के राजा भगवान श्रीकृष्ण तथा पाण्डवों के विरोध में खड़े थे। इस कारण भारत भूमि पर एक महान युद्ध के बादल मण्डरा रहे थे जिसमें बड़ी संख्या में योद्धाओं का विनाश होना निश्चित था।
ऐसे घनघोर समय में आगरा तथा वल्लभगढ़ के आसपास सूर्यवंशियों के प्रतापनगर राज्य के राजा वल्लभसेन के ज्येष्ठ पुत्र के रूप में अग्रसेन का जन्म हुआ। उस दिन अश्विन मास के शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा थी। इसी दिन से आश्विन मास की नवरात्रियों का आरम्भ होता है।
जब अग्रसेन राजा बने तो उन्होंने द्वापर और कलियुग के संधिकाल के क्षत्रिय राजा होते हुए भी युगीन मान्यताओं को अस्वीकार करके समाज में समृद्धि, सहयोग, शांति तथा अहिंसा की स्थापना के लिए कार्य किया। उन्होंने यज्ञों में पशु-बलि की प्रथा को बंद करवाया तथा समाज को उच्च आदर्शों पर चलने के लिए प्रेरित किया।
उन्होंने भारत भूमि से जातीय उच्चता के दंभ का मिथक तोड़ने के लिए तथा विभिन्न समुदायों के बीच वैमनस्य समाप्त करके भाईचारा स्थापित करने के लिए स्वयं सूर्यवंशी आर्यराजा होते हुए भी नाग कन्याओं से विवाह किए तथा अपने पुत्रों को युद्धों का हिंसक मार्ग छोड़कर अहिंसक वणिक कर्म अपनाने को कहा।
महाराजा अग्रसेन सूर्यवंशी राजा रामचंद्र को अपना आदर्श मानते थे तथा समाज के प्रत्येक व्यक्ति के अभ्युदय के लिए संकल्पित थे। उनका मानना था कि उच्च आदर्शों से प्रेरित समृद्ध समाज ही सुखी हो सकता है। इसलिए अग्रसेन ने अपनी प्रजा को कृषि, व्यापार तथा गौपालन के लिए प्रेरित किया ताकि समाज में समृद्धि आ सके। अपने गुणों के कारण अग्रसेन प्रजाप्रिय राजा बन गए। ऐसे व्यक्तियों के साथ कई तरह के मिथक एवं दंतकथाएं स्वतः ही जुड़ जाया करती हैं। महाराजा अग्रसेन के साथ भी ऐसा ही हुआ है।
कुछ मिथकों में कहा गया है कि जिस राजकन्या माधवी से महाराज अग्रसेन ने विवाह किया, उस राजकुमारी से स्वयं इन्द्र विवाह करना चाहता था किंतु राजकुमारी ने इंद्र की जगह अग्रसेन को चुना। इस पर इंद्र ने अग्रसेन पर आक्रमण कर दिया। दोनों के बीच युद्ध हुआ। अंत में देवर्षि नारद ने इस युद्ध को बंद करवाया।
कुछ कथाओं में कहा गया है कि महाराजा अग्रसेन ने अपनी प्रजा की समृद्धि के लिए काशी में रहकर भगवान शिव की घोर तपस्या की। भगवान शिव ने प्रसन्न होकर उन्हें माँ लक्ष्मी की तपस्या करने के लिए कहा। महाराजा अग्रसेन ने माँ लक्ष्मी को भी तपस्या से प्रसन्न किया। लक्ष्मीजी ने उन्हें वरदान दिया कि आप एक नवीन राज्य की स्थापना करें। आपकी प्रजा कभी भी निर्धन नहीं होगी।
देवी लक्ष्मी के आदेश से महाराजा अग्रसेन ने सरस्वती नदी के किनारे ‘अग्रेयगण’ नामक नवीन राज्य की स्थापना की तथा अपनी राजधानी को ‘अग्रोहा’ नाम दिया। अग्रेयगण को ‘अग्रोदय’ राज्य के नाम से भी जाना गया। वर्तमान समय में यह स्थान हरियाणा प्रांत में स्थित है। महाराजा ने व्यवस्था बनाई कि जब कोई व्यक्ति अग्रोहा में आकर बसे तो अग्रोहा का प्रत्येक परिवार एक ईंट तथा एक रुपया देकर उसकी सहायता करे। इस व्यवस्था से उसे अपना घर बनाने तथा व्यवसाय आरम्भ करने में कोई कठिनाई नहीं होती थी। इस कारण अग्रोहा में कोई निर्धन नहीं रहा।
मान्यता है कि महाराजा अग्रसेन ने 108 वर्ष राज्य किया। महाराजा अग्रसेन के उन्नीस पुत्र हुए जिनमें से सबसे बड़ा पुत्र ‘विभु’ प्रजापालन के लिए अग्रसेन के बाद अग्रोहा का राजा बना। उसके वंशजों से क्षत्रिय राजाओं की परम्परा का निर्वहन होता रहा जबकि महाराजा अग्रसेन के शेष अठारह पुत्रों ने अहिंसक वणिक वृत्ति धारण करके अपने पिता के आदर्शों को आगे बढ़ाया। उन 18 पुत्रों के वंशज ही अब विश्वव्यापी अग्रवाल समाज के नाम से जाने जाते हैं।
महाराजा अग्रसेन के वंशजों में हजारों-लाखों नर-नारी ऐसे हुए हैं जिन्होंने महाराजा अग्रसेन के आदर्श पर चलकर प्रजा के कष्टों को हरने के लिए अनाथालय, धर्मशाला, चिकित्सालय, विद्यालय, कुएं, तालाब, प्याऊ, धर्मार्थ ट्रस्ट आदि बनवाए। भारत की आजादी में अग्रवाल समाज का बहुत बड़ा योगदान है। महाराजा के वंशज आज भी दुनिया भर में चिकित्सक, वैज्ञानिक, शिक्षक, लेखक, पत्रकार, सैन्य अधिकारी, लेखाकार आदि के रूप में मानव मात्र को अपनी सेवाएं दे रहे हैं। महाराजा अग्रसेन पर बहुत से ग्रंथ लिखे गए हैं। सुप्रसिद्ध लेखक भारतेंदु बाबू हरिश्चंद्र, जो स्वंय भी अग्रवाल समुदाय से थे, उन्होंने ई.1871 में ‘अग्रवालों की उत्पत्ति’ नामक प्रामाणिक ग्रंथ लिखा जिसमें उन्होंने महाराजा अग्रसेन के बारे में विस्तार से प्रकाश डाला।
भारत सरकार ने ई.1976 में महाराजा अग्रसेन पर 25 पैसे का डाकटिकट जारी किया। ई.1995 में भारत सरकार ने दक्षिण कोरिया से 350 करोड़ रूपये की लागत से एक विशेष तेल वाहक पोत खरीदा, जिसका नाम ‘महाराजा अग्रसेन’ रखा गया। इस पोत की तेल परिवहन क्षमता 1,80,0000 टन है। भारत सरकार ने राष्ट्रीय राजमार्ग संख्या 10 का नाम महाराजा अग्रसेन के नाम पर रखा।
- डॉ. मोहनलाल गुप्ता