जलालुद्दीन मुहम्मद अकबर (1556-1605 ई.)
अकबर का साम्राज्य विस्तार
हुमायूँ द्वारा जीते गये भू-भाग तथा बैरमखाँ द्वारा विजित क्षेत्रों से आगे बढ़कर साम्राज्य विस्तार करने के लिये, अकबर को अफगानों तथा राजपूतों से लोहा लेना था। इसके लिये अकबर ने अलग-अलग नीतियों का निर्माण किया।
राजपूतों तथा अफगान राज्यों के साथ अलग-अलग नीतिइन दो शक्तियों के साथ संघर्ष करने में अकबर ने दो अलग प्रकार की नीतियों का अनुसरण किया। उसने जिन अफगान राज्यों पर आक्रमण किया उन्हें जीत कर अपने राज्य में मिला लिया और वहाँ पर अपना प्रत्यक्ष शासन स्थापित कर लिया परन्तु जिनजपूत राज्यों ने उसके आधिपत्य को स्वीकार कर लिया, उनको उसने अभयदान देकर उनका राज्य उन्हीं को लौटा दिया और उनको अपना मित्र तथा सहयोगी बना लिया। इन नीति-वैषम्य के तीन प्रधान कारण बताये जाते हैं-
(1.) राजपूत अपने वचन के पक्के होते थे और संधि होने के बाद विश्वासघात नहीं करते थे परन्तु अफगान लोग संधि होने के बाद भी विश्वासघात करने में लेशमात्र संकोच नहीं करते थे।
(2.) राजपूत अपने राज्य का विस्तार नहीं करना चाहते थे। वे केवल इतना चाहते थे कि उन्हें उनके राज्य पर शासन करने दिया जाये। जबकि अफगान लोग, तृतीय अफगान साम्राज्य स्थापित करने का स्वप्न देख सकते थे।
(3.) मुगल साम्राज्य की स्थापना अफगान साम्राज्य के ध्वंसावशेषों पर की गई थी। इसलिये मुगल साम्राज्य को अफगानों की ओर से अधिक खतरा था और उनका अस्तित्त्व मुगल साम्राज्य के लिये कभी भी घातक सिद्ध हो सकता था। इसलिये अकबर ने अफगान राज्यों के अस्तित्त्व को समाप्त करने तथा राजपूतों को मित्र बनाने की नीति अपनाने का निर्णय लिया।
मालवा विजय
अकबर ने आधमखाँ तथा पीर मुहम्मद की अध्यक्षता में एक सेना मालवा विजय के लिए भेज दी। मालवा का शासक बाजबहादुर मुगल सेना का सामना नहीं कर सका और परास्त होकर बुरहानपुर की और भाग गया। आधमखाँ ने मालवा में युद्ध बंदियों के साथ बड़ा अत्याचार किया। उसने स्त्रियों तथा बच्चों पर भी अत्याचार किया तथा लूट का माल एवं बाजबहादुर की स्त्रियों को अपने पास रखकर बादशाह को भी अप्रसन्न कर दिया। उसने बादशाह के पास थोड़े से हाथी भेज दिये। इसलिये अकबर ने उसे दण्डित करने का निर्णय लिया। अकबर ने 27 अप्रैल 1561 को आखेट के बहाने मालवा के लिए प्रस्थान किया। आधम खाँ अत्यन्त भयभीत हो गया। उसने लूट का सारा माल और बाजबहादुर के हरम की स्त्रियों को बादशाह के समक्ष प्रस्तुत कर दिया। अकबर सन्तुष्ट होकर आगरा लौट आया। आगरा लौटने के बाद अकबर ने आधमखाँ को वापस बुला लिया और मालवा विजय का कार्य पीर मुहम्मद को सौंप दिया। पीर मुहम्मद ने बुरहानपुर तथा बीजागढ़ पर आक्रमण किया परन्तु उसके पास पर्याप्त सेना नहीं थी। इसलिये वह बाजबहादुर तथा खानदेश के शासक की संयुक्त सेनाओं के समक्ष नहीं ठहर सका और उसे पीछे हटना पड़ा। जब पीर मुहम्मद नर्मदा नदी पार करने का प्रयत्न कर रहा था तब वह अपने घोड़े से गिर पड़ा और पानी में डूबकर मर गया। बाजबहादुर ने मालवा पर अधिकार कर लिया। अकबर ने अब्दुल्लाखाँ उजबेग को मालवा विजय के लिये भेजा। उसने बाजबहादुर को पुनः मालवा से मार भगाया। बाजबहादुर ने भागकर मेवाड़ की पहाड़ियों में शरण ली।
बिहार विजय
बैरमखाँ के मरने के बाद बिहार के अफगानों ने एक बार पुनः अपने भाग्य की परीक्षा लेने का निश्चय किया। उन्होंने आदिलशाह के पुत्र शेरखाँ को अपना शासक घोषित करके एक विशाल सेना के साथ जौनपुर पर आक्रमण कर दिया। खानेजमाँ ने अफगानों पर पीछे से आक्रमण करके उन्हें मार भगाया। खानेजमाँ ने भी आधमखाँ की भाँति लूट का सारा माल अपने पास रख लिया। यह भी खबर फैल गई कि वह बिहार में अपना स्वतन्त्र राज्य स्थापित करने की योजना बना रहा है। जब अकबर को इसकी जानकारी मिली तब 17 जुलाई 1561 को उसने मुनीमखाँ के साथ पूर्व के लिये प्रस्थान किया। खानेजमाँ अपने भाई बहादुरखाँ के साथ कड़ा पहुँचा। उसने बहुत से हाथियों तथा मूल्यवान् उपहारों के साथ अकबर का अभिनन्दन किया। अकबर ने उन दोनों भाइयों के साथ उदारता का व्यवहार किया और 21 अगस्त 1561 को आगरा लौट आया किंतु खानेजमाँ तथा बहादुरखाँ शान्त नहीं बैठे। वे अवसर पाते ही विद्रोह करते रहे। अकबर ने दृढ़तापूर्वक उनके विद्रोहों का दमन किया और मुनीमखाँ को बिहार का शासक नियुक्त कर दिया।
बंगाल विजय
बंगाल के शासक सुलेमान ने अकबर की अधीनता स्वीकार कर ली थी परन्तु 1572 ई. में उसका निधन हो गया और उसका पुत्र दाऊद बंगाल का शासक बना। वह स्वतन्त्र रूप से शासन करने लगा। जब अकबर को इसकी सूचना मिली तब उसने मुनीमखाँ को बंगाल पर आक्रमण करने का आदेश दिया। मुनीमखाँ ने पहले तो समझौते की बातचीत की परन्तु इसमें सफल नहीं रहने पर पटना पर आक्रमण कर दिया। दाऊद एक दुर्ग में बंद हो गया। बहुत प्रयास करने पर भी मुनीमखाँ दुर्ग को नहीं ले सका। तब उसने अकबर से निवेदन किया कि वह स्वयं आकर समस्या को सुलझाये। 20 जून 1578 को अकबर ने आगरा से पटना के लिये प्रस्थान किया और 8 अगस्त को वहाँ पहुँच गया। दाऊद भयभीत होकर रात्रि में दुर्ग से भाग खड़ा हुआ। पटना पर अकबर का अधिकार हो गया। अकबर ने अफगानों का पीछा किया। अकबर की सेनाएँ बंगाल की राजधानी गौड़ तक पहुँच गईं। दाऊद भयभीत होकर उड़ीसा की तरफ भागा परन्तु राजा टोडरमल तथा मुनीमखाँ ने वहाँ भी उसका पीछा किया। अन्त में दाऊद ने परास्त होकर अकबर की अधीनता स्वीकार कर ली और उसे वार्षिक कर देने का वचन दिया। कुछ दिन बाद दाउद ने संधि तोड़ दी। मुगलों ने फिर से उस पर आक्रमण किया और उसका सिर काट डाला। इस प्रकार बंगाल मुगल साम्राज्य का अंग बन गया। कुछ दिन बाद उड़ीसा भी मुगल साम्राज्य में सम्मिलित कर लिया गया।
गुजरात विजय
बंगाल, बिहार तथा उड़ीसा को जीतने के बाद अकबर ने अफगानों के अन्तिम केन्द्र गुजरात पर आक्रमण करने का निश्चय किया। अकबर गुजरात को अपनी पैतृक सम्पत्ति समझता था क्योंकि उसके पिता हुमायूँ ने एक बार गुजरात को जीता था। गुजरात विद्रोही मिर्जाओं की भी शरणस्थली बन गया था। इन दिनों गुजरात की दशा बड़ी शोचनीय थी क्योंकि बहादुरशाह के बाद उसके समस्त उत्तराधिकारी अयोग्य निकले। उनके शासन में त्राहि-त्राहि मची हुई थी। गुजरात के अमीर एतमाद खाँ ने अकबर के पास निमन्त्रण भेजा कि वह गुजरात की प्रजा को इस संकट से मुक्त करे। अकबर ने गुजरात जाने का निश्चय किया और 4 जनवरी 1572 को सेना के साथ गुजरात के लिये प्रस्थान कर दिया। 20 नवम्बर को अकबर अहमदाबाद पहुँच गया। दक्षिण गुजरात में विद्रोही मिर्जा विद्यमान थे। इसलिये अकबर खम्भात होता हुआ सूरत पहुँचा तथा दुर्ग का घेरा डाल दिया। दुर्ग का घेरा लगभग डेढ़ महीने तक चलता रहा। इसी बीच अहमदाबाद के गवर्नर अजीज कोका ने मिर्जाओं को बुरी तरह परास्त किया। 26 फरवरी 1573 को सूरत के दुर्ग पर भी अकबर का अधिकार हो गया। गुजरात का शासक मुजफ्फरशाह (तृतीय) कैद कर लिया गया तथा गुजरात मुगल साम्राज्य का प्रान्त बन गया। अकबर ने अजीज कोका को गुजरात का गवर्नर बना दिया। मिर्जाओं ने उपद्रव करने का प्रयत्न किया परन्तु उन्हें नष्ट कर दिया गया।
अकबर की राजपूत नीति
अकबर अशिक्षित था किंतु संघर्षों ने उसे चतुर राजनीतिज्ञ बना दिया था। कामरान की निर्दयता, बैरमखाँ की संगति, हरम के कुचक्रों तथा मिर्जाओं के षड़यंत्रों ने अकबर को अपनी तथा अपने साम्राज्य की रक्षा के लिये विशेष रूप से सतर्क कर दिया था। इसलिये अकबर ने अफगानों के साथ विजय तथा उन्मूलन की नीति का अनुसरण किया परन्तु राजपूतों के साथ उसने क्षमा, मित्रता तथा सहयोग की नीति को अपनाया। डॉ. ईश्वरी प्रसाद के शब्दों में- ‘बिना राजपूतों के सहयोग के भारतीय साम्राज्य सम्भव नहीं था और बिना उनके विवेकपूर्ण तथा सक्रिय सहयोग के सामाजिक तथा राजनीतिक एकता स्थापित नहीं हो सकती थी। नई राज-संस्था हिन्दुओं तथा मुसलमानों दोनों को मिलाकर बनानी थी और दानों ही का कल्याण करना था।’
अकबर की राजपूत नीति के प्रमुख कारण
अकबर द्वारा अपनाई गई राजपूत नीति के कई कारण कारण थे-
(1.) मुस्लिम अमीरों पर नियन्त्रण रखने में सुविधा: अकबर को मुगल, तुर्क, अफगान तथा चगताई अमीरों और मिर्जाओं पर विश्वास नहीं था, क्योंकि वे प्रायः विद्रोह करके तख्त हड़पने का प्रयास करते थे। वे लोग प्रायः विद्रोही अमीरों एवं बादशाह के शत्रुओं से मिल जाते थे और उनकी शक्ति को प्रबल बना देते थे। ऐसी स्थिति में अकबर को ऐसे नये अमीरों की आवश्यकता थी, जो अकबर के प्रतिद्वंद्वी न हों, जिनकी स्वामिभक्ति अटल हो और जिनकी सहायता से अकबर विश्वासघाती तथा विद्रोही मुस्लिम अमीरों पर नियंत्रण रख सके। अकबर की इस आवश्यकता की पूर्ति राजपूतों की वीर, विश्वसनीय तथा स्वाभिमानी जाति ही कर सकती थी। इसलिये अकबर ने राजपूत अमीरों का एक प्रबल दल बनाने का निश्चय किया।
(2.) अलोकप्रियता का निवारण: मुगल भारत में बर्बर तथा विदेशी समझे जाते थे। बाबर अपनी अकाल मृत्यु के कारण और हुमायूँ अपने संघर्षमय जीवन के कारण इस अलोकप्रियता को दूर नहीं कर सका था। अकबर चाहता था कि भारतीय प्रजा उसे भयवश नहीं वरन् प्रेम तथा श्रद्धा से अपना शासक स्वीकार करे। चूँकि मुगलों ने अफगानों से राज्य छीना था, इसलिये अफगानों के हृदय पर इतनी जल्दी विजय प्राप्त करना सम्भव नहीं था जबकि राजपूतों की स्वतंत्र सत्ता को समाप्त हुए समय हो चुका था इसलिये उन्हें अधिक सरलता से अपनी तरफ किया जा सकता था।
(3.) राजपूतों के प्रति कृतज्ञता: अकबर का जन्म एक राजपूत राजा के संरक्षण में तथा उसके महल में हुआ था जबकि अकबर के अपने चाचा ने अकबर के प्राण लेने में कोई कसर नहीं रख छोड़ी थी। इसलिये अकबर राजपूतों की उदारता का जवाब उनके साथ उदारता व्यवहार करके देना चाहता था। अपने हिन्दू शिक्षकों के उदार स्वभाव तथा उनके प्रभाव के कारण भी अकबर ने हिन्दुओं, विशेषकर राजपूतों के साथ उदारता का व्यवहार किया।
(4.) राजपूतों के गुणों का उपयोग: अकबर राजपूतों के विलक्षण गुणों के कारण भी उन्हें अपना मित्र बनाने के लिए उत्सुक था। वह राजपूतों की वीरता तथा साहस से प्रभावित था। वह जानता था कि राजपूत अपने वचन के पक्के होते हैं और कभी विश्वासघात नहीं करते। अकबर को इस वीर जाति की सहायता की बड़ी आवश्यकता थी। इसलिये उसने राजपूतों से मैत्री करने का निश्चय कर लिया।
(5.) सैनिक आवश्यकता की पूर्ति: अकबर को अपने उद्देश्यों को पूर्ण करने के लिए एक विशाल सेना की आवश्यकता थी। उसे अपने पूर्वजों के प्रदेश से सैनिक सहायता प्राप्त होने की आशा नहीं थी वरन् उस ओर से संकट की ही संभावना बनी रहती थी। उसे भारत में योग्य तथा कुशल सैनिक राजपूताने से ही प्राप्त हो सकते थे जिन्हें अपनी सेना में भर्ती करके अकबर अपनी शक्ति में वृद्धि कर सकता था।
(6.) राजपूताने का भौगोलिक महत्त्व: राजपूताना दिल्ली तथा आगरा के अत्यन्त निकट स्थित था। इसलिये राजपूत मुगल साम्राज्य तथा उसकी राजधानी के लिए कभी भी खतरनाक अथवा उपयोगी सिद्ध हो सकते थे। ऐसी स्थिति में अकबर के पास दो मार्ग थे- या तो वह राजपूतों को अपना मित्र बना ले या उनसे युद्ध करके उन्हें समाप्त कर दे। अकबर जानता था कि राजपूतों को समाप्त करना सम्भव नहीं था। यदि वह उनके साथ उलझ जाता तो उसकी दक्षिण विजय तथा अन्य योजनाएँ सफल नहीं हो पातीं। इसलिये उसने राजपूतों को अपना सहायक बनाकर उनकी सहायता से अपने उद्देश्यों की पूर्ति का प्रयत्न किया।
(7.) साम्राज्य की सुरक्षा तथा स्थायित्व में सहयोग: अकबर समझ गया था कि बहुसंख्यक हिन्दुओं, विशेषकर स्थानीय राजपूत शासकों की सहायता के बिना उसका साम्राज्य सुरक्षित नहीं रहेगा और न उसे स्थायित्व प्राप्त होगा। साम्राज्य को आमूलचूल सुदृढ़ बनाने के लिए स्थानीय शासन का समर्थन प्राप्त करना आवश्यक था। चूँकि राजपूत लोग ही हिन्दू जाति के नेता थे, इसलिये उनका समर्थन प्राप्त करने का तात्पर्य सम्पूर्ण हिन्दू जाति का समर्थन तथा सहयोग प्राप्त करना था। अतः अकबर ने राजपूतों के साथ उदारता का व्यवहार करके उनके हृदय पर विजय प्राप्त करने तथा साम्राज्य निर्माण में उनकी सहायता प्राप्त करने का निर्णय लिया।
(8.) साम्राज्य विस्तार में सहायता: साम्राज्य विस्तार के कार्य में भी राजपूत सहायक सिद्ध हो सकते थे। अकबर न केवल मुसलमान राज्यों अपितु स्वतंत्रता प्रेमी राजपूत राज्यों का विध्वंस करने में मित्र राजपूत राज्यों की सहायता ले सकता था। राजपूतों को राजपूतों की ही तलवार से नष्ट करने में अधिक आसानी रहने की संभावना थी।
(9.) सुलह-कुल की भावना: कुछ इतिहासकारों का मानना है कि अकबर सुलह-कुल की भावना से प्रेरित था। इसलिये वह उदारता तथा धार्मिक सहिष्णुता की नीति का अनुसरण करके समस्त प्रजा को प्रसन्न रखना चाहता था। इस प्रकार न केवल उपयोगिता की दृष्टि से अपितु सुलह-कुल की नीति के कारण भी अकबर ने राजपूतों को अपना मित्र बनाने का निश्चय किया था।
राजपूत नीति का क्रियात्मक स्वरूप
अकबर की राजपूत नीति का क्रियात्मक स्वरूप इस प्रकार से था-
(1.) राजपूतों की सैनिक क्षमता का उपयोग: अकबर ने राजपूत सैनिकों को अपनी सेना में भरती किया और राजपूत राजाओं को मुगल सेना में उच्च पद दिये। इससे अकबर को अपने साम्राज्य का विस्तार करने में बड़ी सहायता मिली। उसने राजपूतों को न केवल शत्रु मुस्लिम राज्यों के विरुद्ध अपितु शत्रु राजपूत राज्यों के विरुद्ध भी प्रयोग किया।
(2.) राजपूतों की शासन क्षमता का उपयोग: अकबर ने शासकीय विभाग में भी राजपूतों को उच्च पद दिये। उसने राजपूत राजाओं को बड़े-बड़े प्रान्तों का शासक बनाया और केन्द्रीय सरकार में उच्च पद दिये। इस प्रकार उसने राजपूतों की शासकीय प्रतिभा का लाभ उठाकर अपने साम्राज्य की नींव को सुदृढ़ बनाया।
(3.) राजपूतों की स्वामिभक्ति का उपयोग: अकबर ने राजपूत राजाओं एवं राजकुमारों को अपने दरबार में उच्च पद दिये और राजपूत मनसबदारों का एक प्रबल दल खड़ा कर लिया। स्वामिभक्त मनसबदारों का यह दल विद्रोही अमीरों के विरुद्ध बादशाह की ढाल बनकर खड़ा हो गया। जब भी कोई तुर्की, चगताई, अफगान अथवा मंगोल अमीर बादशाह के विरुद्ध विद्रोह करता था, अकबर राजपूत मनसबदारों को उसके विरुद्ध झौंक देता था।
(4.) राजपूतों की प्रतिष्ठा का दमन: राजपूत राजाओं तथा राजुकमारों ने मुगल सेना में भर्ती होकर, शासकीय पदों पर काम करके तथा मुगल दरबार में मनसबदारी स्वीकार करके मुगल साम्राज्य की जितनी सेवा की, वैसा उदाहरण विश्व इतिहास में अन्यत्र देखने को नहीं मिलता। इस मुगल भक्ति के कारण जनता की दृष्टि में राजपूतों की प्रतिष्ठा तथा गौरव पहले जैसा नहीं रहा। प्रजा अब उन्हें राष्ट्र का रक्षक न मानकर मुगलों का चाकर मानने लगी। मुगल दरबार में उन्हें चाहे जो सम्मान मिला हो परन्तु देशवासियों की दृष्टि में वे गिर गये और उनका जातीय अभिमान कमजोर पड़ गया। केवल राणा प्रताप जैसे कुछ राजपूत शासक ही मुगलों के विरुद्ध टिके रहकर अपनी गौरव पताका को गिरने से बचा सके थे।
(5.) राजपूतों की राज्य लक्ष्मी का हरण: मुगलों के भारत में आने से पहले राजपूतों ने मुसलमान शासकों की अधीनता अथवा मित्रता स्वीकार नहीं की थी। वे लगातार लड़ते रहे और अपनी खोई हुई राज्यसत्ता को प्राप्त करने का प्रयास करते रहे। अकबर ने सुलह-कुल की नीति के तहत उन्हें मित्रता के बहाने से अधीन बनाया। वही राजपूत अपनी रियासत पर शासन कर सकता था जो बादशाह की चाकरी स्वीकार करे। यदि कोई राजपूत शासक अथवा राजकुमार ऐसा नहीं करता था तो उसका राज्य उसके किसी भाई को दे दिया जाता था। इस प्रकार राजपूत अपनी रियासत के वास्तविक स्वामी नहीं रहकर मुगलों के प्रतिनिधि बन गये।
(6.) राजपूतों की कुलीय उच्चता पर प्रहार: अकबर ने मुगल राजकुमारों से राजपूत राजकन्याओं के विवाह करवाकर राजपूतों की कुलीय उच्चता एवं मर्यादा को नष्ट करने का प्रयास किया। उसने राजपूत कन्याओं के विवाह तो मुसलमान शहजादों के साथ करवाये परन्तु किसी मुगल शहजादी का हाथ किसी हिन्दू राजा के हाथ में नहीं दिया। यहाँ तक कि मुगलों ने शहजादियों के विवाह की परम्परा ही समाप्त कर दी ताकि भारत में कोई भी राजवंश, मुगलों की बराबरी अथवा उच्चता का दावा न कर सके। जब कोई मुगल शहजादा, बादशाह के विरुद्ध विद्रोह करता था तो उसे पकड़कर लाने वाले राजपूत सेनापति अथवा मनसबदार को यह अधिकार नहीं होता था कि वह विद्रोही मुगल शहजादे को अपमानित करे, उसका अंग-भंग करे, उसे मृत्यु दण्ड दे अथवा उसे किसी भी तरह नीचा दिखाये। राजपूत राजाओं को युद्ध क्षेत्र में लाल रंग के तम्बू लगाकर रहने की अनुमति नहीं थी। ऐसा करने पर उन्हें दण्डित किया जाता था।
(7.) राजपूतों की सामरिक क्षमताओं का दमन: अकबर ने राजपूतों की सामरिक शक्ति को यथा सम्भव निर्बल बनाने का प्रयत्न किया। जिन राजपूत राजाओं अथवा राजकुमारों ने अकबर का विरोध किया उन्हें नष्ट कर दिया गया। जिन राजपूतों ने उसके आधिपत्य को स्वीकार कर लिया, उन्हें भी यथासम्भव निर्बल बनाकर रियासत दी गई। राजपूतों के अत्यन्त प्रबल तथा महत्त्वपूर्ण दुर्ग उनसे छीन लिये गये और उन्हें किसी अन्य स्थान पर जागीर दे दी गई। बड़ी रियासतों में से छोटी-छोटी रियासतें बनाकर उसी वंश के राजकुमारों में बांट दी गईं। राजपूत राजा, अकबर की अनुमति के बिना अपने दुर्ग में जीर्णोद्धार अथवा नवीन निर्माण नहीं करवा सकते थे।
(8.) राजपूतों का अपनी प्रजा से अलगाव: अकबर राजपूत राजाओं एवं राजकुमारों को गुजरात, दक्षिण भारत अथवा काबुल आदि देशों में नियुक्त करके लम्बे समय के लिये उनकी रियासत से दूर भेज देता था जिससे रियासत में उसका प्रभाव तथा महत्त्व कम हो जाये और प्रजा से उनका सीधा सम्पर्क कट जाये। राजा के रियासत से दूर होने के कारण सरकारी कारिंदे अपनी मनमानी करते थे तथा उनकी शिकायतों को सुनने वाला भी कोई उपलब्ध नहीं होता था।
(9.) राजपूत राजाओं तथा उनके सामंतों के बीच अलगाव: अकबर ने राजपूत शासकों की शक्ति के स्रोत पर चोट की। उसने राजपूत शासकों एवं उनके सामंतों के बीच अलगाव उत्पन्न करने के लिये राजपूत राज्यों के सामन्तों को भी सीधे अपने अधीन करके उन्हें मनसब दिये। इससे बड़े-बड़े राजपूत राजाओं की प्रतिष्ठा तथा उनका प्रभाव कम हो गया। अनेक शक्तिशाली सामंत अब राजा के सेवक न रहकर उनके प्रतिद्वंद्वी बन गये। इस प्रकार अकबर ने एक कुशल राजनीतिज्ञ की भाँति राजपूतों की शक्ति को जड़ से काट दिया।
(10.) राजपूत राजाओं का परस्पर अलगाव: अकबर ने प्रयास किया कि राजपूत राजा बिना उसकी अनुमति के एक दूसरे से नहीं मिलें, ताकि राजपूत राजा एवं राजकुमार अपना कोई संगठन खड़ा नहीं कर सकें।
राजपूत नीति के परिणाम
अकबर की राजपूत नीति के परिणाम व्यापक तथा दूरगामी थे। इस नीति के भारत के राजनीतिक, सामाजिक, धार्मिक, आर्थिक तथा सांस्कृतिक परिवेश पर गहरे प्रभाव हुए-
(1.) मुगलों की सैनिक शक्ति में वृद्धि: राजपूत सैनिक युद्ध क्षेत्र में तब तक लड़ते रहते थे जब तक कि या तो विजय प्राप्त हो जाये या प्राण चले जायें। वे अंतिम समय तक शत्रु सेना का संहार करते थे। ऐसे समर्पित योद्धाओं के मुगल सेना में भर्ती हो जाने तथा उच्च पदों पर पहुँच जाने से मुगल साम्राज्य की सैनिक शक्ति में बड़ी वृद्धि हुई।
(2.) मुगल साम्राज्य को स्थायित्व: राजपूत केवल बादशाह के प्रति स्वामिभक्त थे। उन्हें मुस्लिम अमीरों के कुचक्रों से कोई लेना-देना नहीं था। इन स्वामिभक्त राजपूतों की मुगल दरबार में उपस्थिति हो जाने से बादशाह की स्थिति बहुत मजबूत हो गई तथा मुगल साम्राज्य को दृढ़ता तथा स्थायित्व प्राप्त हो गया।
(3.) मुगल साम्राज्य में शांति एवं सुव्यवस्था की स्थापना: प्रांतीय एवं स्थानीय शासन में हिन्दू शासकों की सहायता उपलब्ध हो जाने से अकबर को अपने साम्राज्य में आन्तरिक विद्रोहों का दमन करने तथा दूरस्थ प्रांतों में शान्ति एवं व्यवस्था स्थापित करने में सफलता मिल गई।
(4.) मुगल साम्राज्य के विस्तार में तेजी: अकबर का सैनिक बल बढ़ जाने से मुगल साम्राज्य के विस्तार का कार्य सरल हो गया। इससे सम्पूर्ण उत्तर भारत और दक्षिण का बहुत बड़ा भाग मुगल साम्राज्य के प्रत्यक्ष एवं परोक्ष नियंत्रण में हो गया। राजपूतों तथा मुगलों की संयुक्त सेनाओं ने न केवल अफगानों अपितु स्वतन्त्र राजपूत राज्यों की शक्ति को नष्ट प्रायः कर दिया।
(5.) हिन्दुओं तथा मुसलमानों के बीच घृणा में कमी: अपने अपने धर्म में आस्था रखने के कारण हिन्दू तथा मुलसमान एक दूसरे से घृणा करते थे। अकबर की उदार राजपूत नीति के कारण हिन्दू तथा मुसलमान एक-दूसरे के निकट सम्पर्क में आ गये और उनमें विचार-विनिमय बढ़ गया। इससे परस्पर घृणा में कमी आ गई।
(6.) हिन्दुओं को धार्मिक अधिकार: राजपूतों का विश्वास जीतने के लिये अकबर को धार्मिक सहिष्णुता की नीति अपनानी पड़ी जिससे हिन्दुओं को भी धार्मिक स्वतन्त्रता प्राप्त हो गई। मन्दिरों तथा मूर्तियों का तुड़वाया जाना बंद हो गया और नये मन्दिर बनवाने की स्वतंत्रता मिल गई। हिंदुओं को जजिया तथा अन्य प्रकार के करों से मुक्ति मिल गई।
(7.) हिन्दुओं को सरकारी नौकरियाँ: चूँकि सरकारी नौकरियों के द्वार हिन्दुओं के लिए भी खोल दिये गये इसलिये हिन्दुओं को भी अपनी प्रतिभा का प्रदर्शन करने एवं आगे बढ़ने के अवसर प्राप्त हो गये।
(8.) जन जीवन में आर्थिक सुधार: अकबर की राजपूत नीति का भारतीयों के आर्थिक जीवन पर गहरा प्रभाव पड़ा। हिन्दुओं को जजिया तथा अन्य कई करों से मुक्ति मिल गई। इससे उनकी आर्थिक स्थिति में सुधार आने लगा। राजा टोडरमल ने जो भूमि सुधार किये, उससे सरकारी कर्मचारियों की लूट में कमी आई तथा राजकीय कोष के साथ-साथ प्रजा को भी आर्थिक लाभ हुआ।
(9.) सांस्कृतिक परिवेश में सुधार: अकबर की राजपूत नीति का देश के सांस्कृतिक परिवेश पर भी बहुत बड़ा प्रभाव पड़ा। राजपूतों के मुगल दरबार में सभासद बन जाने से हिन्दू उत्सवों, उनके आचार विचार तथा रीति रिवाजों का मुगल दरबार में प्रवेश हो गया। अकबर ने हिन्दी तथा संस्कृत को प्रश्रय दिया और हिन्दू भी फारसी का अध्ययन करने लगे। उस काल के स्थापत्य पर हिन्दू-मुस्लिम मिश्रित शैली की छाप दिखाई देती है।
(10.) राजपूतों के गौरव में कमी: अकबर की राजपूत नीति से राजपूतों के प्राचीन गौरव को भीषण आघात लगा। उनकी राजनीतिक स्वतन्त्रता समाप्त हो गई और वे मुगल शहजादों के सेवक बन गये। उन्होंने अपनी बेहिन-बेटियों को मुगलों को देकर अपने कुल की प्रतिष्ठा तथा मान-मर्यादा को धूल में मिला दिया। डॉ. अवध बिहारी पाण्डेय ने इस नीति के दुष्परिणाम पर प्रकाश डालते हुए लिखा है- ‘इससे राजपूत लोग उत्साहहीन तथा असन्तुष्ट हो गये। मुगल दरबार के अन्य अमीरों की संगति ने उन्हें दुर्गुणों का आखेट बना दिया और वे अपने पुराने गुणों को खोकर विलासप्रिय बन गये और अवसर मिलने पर धोखा तथा विश्वासघात करने लगे और पूर्ण रूप से विश्वास योग्य न रहे गये।’ अब राजपूत राजकुमार भी मुगल शहजादों की तरह राज्य प्राप्ति के लिये पिता, भाई तथा अन्य सम्बन्धियों की हत्याएँ करने लगे।
निष्कर्ष
अकबर ने राजपूतों के साथ जिस नीति का अनुसरण किया, उससे उसकी दूरदृष्टि तथा कूटनीति का परिचय मिलता है। उसने मुसलमानों तथा हिन्दुओं दोनों के विरुद्ध राजपूतों का सफल प्रयोग किया तथा अपने विरुद्ध अफगानों एवं राजपूतों का संयुक्त मोर्चा नहीं बनने दिया। यह उसकी बहुत बड़ी सफलता थी। अकबर की राजपूत नीति से देश के राजनीतिक, धार्मिक, सांस्कृतिक, सामाजिक एवं आर्थिक परिवेश पर गहरा प्रभाव पड़ा। राजपूतों को शासन में भागीदारी देने से शासकों एवं जनता के बीच पहले जैसी दूरी नहीं रही। जब तक अकबर की राजपूत नीति का अनुसरण किया गया तब तक मुगल साम्राज्य सुदृढ़ बना रहा और उसकी उत्तरोत्तर उन्नति होती गई परन्तु जब औरंगजेब के शासनकाल में अकबर द्वारा स्थापित नीति को त्याग दिया गया तब मुगल साम्राज्य पतनोन्मुख हो गया।
अकबर की राजपूत राज्यों पर विजय
आम्बेर के साथ मैत्री सम्बन्ध
राजपूताना में स्थित आम्बेर राज्य पर कच्छवाहा राजपूतों का शासन था। इन दिनों राजा भारमल वहाँ शासन कर रहा था जिसे बिहारीमल भी कहते हैं। भारमल का भतीजा सूजा, मेवात के गवर्नर मुहम्मद शरफुद्दीन हुसैन की सहायता से भारमल को आम्बेर से निकालकर स्वयं राजा बनने का प्रयास कर रहा था। जनवरी 1562 में जब अकबर ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती की दरगााह के दर्शन करने के लिए अजमेर जा रहा था तब आम्बेर से थोड़ी दूरी पर भारमल उससे भेंट करने के लिये उपस्थित हुआ। उसने अकबर का अभिनन्दन किया और अपने शत्रुओं के विरुद्ध उससे सहायता की याचना की। अकबर ने उसके साथ उदारता का व्यवहार किया और उसकी सहायता करने का वचन दिया। भारमल ने इस मैत्री सम्बन्ध को सुदृढ़ बनाने के लिए अपनी पुत्री हीराकंवर का विवाह अकबर के साथ कर दिया। अकबर ने राजा भारमल के पुत्र भगवानदास (इसे भगवंतदास भी कहते हैं) तथा पौत्र मानसिंह को भी शाही सेवा में रख लिया। इस प्रकार राजपूतों के साथ अकबर के सम्बन्धों की शुरुआत हुई।
गोंडवाना विजय
गोंडवाना का राजपूत राज्य आधुनिक मध्य प्रदेश के उत्तरी भाग में स्थित था। वह बड़ा ही सम्पन्न तथा सबल राजपूत राज्य था और बड़े आदर की दृष्टि से देखा जाता था। चौरागढ़ इस राज्य की राजधानी थी। इन दिनों गोंडवाना के सिंहासन पर वीर नारायण नामक एक अल्पवयस्क राजकुमार आसीन था और शासन का संचालन उसकी माता दुर्गावती के हाथों में था जो महोबा के चन्देल राजा की पुत्री थी। दुगार्वती न केवल रूप-लावण्य में वरन् वीरता तथा साहस में भी अद्वितीय थी। वह युद्ध कला में प्रवीण थी तथा बन्दूक एवं बाण चलाने में दक्ष थी। उसके बारे में कहा जाता था कि यदि वह सुन लेती थी कि कोई शेर दिखाई दिया है तो उसका शिकार किये बिना पानी नहीं पीती थी। उसने अपने पड़ौसी राज्यों को कई बार परास्त किया। अकबर के राज्य की सीमा, गोंडवाना राज्य की सीमा से मिल गई थी इसलिये गोंडवाना राज्य का मुगल साम्राज्य से संघर्ष होना अनिवार्य हो गया। कड़ा का मुगल सूबेदार आसफखाँ गोंडवाना की सम्पत्ति लूटने के लिये लालायित रहता था। उसने एक विशाल सेना के साथ गोंडवना पर आक्रमण किया। अफगानों ने भी राजपूतों का साथ दिया। राजपूतों ने तीन बार मुगलों को पीछे धकेला परन्तु दुर्भाग्वश राजा वीर नारायण घायल हो गया और उसे रणक्षेत्र से हटाकर सुरक्षित स्थान पर ले जाया गया। वीर नारायण को रणक्षेत्र में न देखकर उसकी सेना का साहस भंग हो गया और वह भाग खड़ी हुई परन्तु रानी दुर्गावती अपने कुछ सौ स्वामिभक्त सैनिकों के साथ मैदान में डटी रही और निर्भय होकर शत्रुओं का संहार करती रही। सहसा रानी की दाहिनी कनपटी में एक तीर आकर लगा। रानी ने तीर को निकाल फेंका परन्तु उसकी नोक कनपटी में ही रह गयी। इतने में दूसरा तीर रानी के गले में घुस गया। उसने उसे भी बाहर निकला फेंका परन्तु रानी को मूर्छा आने लगी। रानी को शत्रु के हाथों में पड़ने से बचने की कोई आशा न रही। इस पर रानी ने अपने मंत्री को अपना वध करने का आदेश दिया परन्तु राजपूत मंत्री को अपनी रानी पर तलवार चलाने का साहस नहीं हुआ। इस पर रानी दुर्गावती ने स्वयं अपनी कटार अपने सीने में भोंक ली। वीर नारायण फिर से रणक्षेत्र में आ डटा परन्तु वह भी मारा गया। राजपूतों ने ‘साका’ किया और हिन्दू ललनाओं ने जौहर का आयोजन किया। चौरागढ़ पर आसफखाँ का अधिकार हो गया तथा रानी दुर्गावती का कोष भी आसफखाँ के हाथ लग गया। रानी दुगार्वती तथा उसकी शौर्यगाथा भारत के इतिहास में अमर हो गई।
मेवाड़ के विरुद्ध संघर्ष
मेवाड़ के शासकों के साथ मुगलों की शत्रुता मुगल साम्राज्य के संस्थापक बाबर के समय से चली आ रही थी। बाबर ने राणा सांगा को खनवा के मैदान में परास्त किया था। हुमायूँ ने मेवाड़ की राजमाता कर्णावती द्वारा राखी भिजवाये जाने पर भी उसे सहायता नहीं दी थी। यद्यपि बहुत से राजपूत राज्यों ने अकबर के प्रभुत्व को स्वीकार कर लिया था और मुगल दरबार में उच्च पद प्राप्त कर लिये थे परन्तु मेवाड़ के शासकों ने मुगलों के सामने सिर नहीं झुकाने का निर्णय लिया। उनका यह निर्णय अकबर की साम्राज्यवादी नीति के विरुद्ध था। मेवाड़ राजपूत राज्यों के लगभग मध्य में स्थित था, इसलिये मेवाड़ के स्वतंत्र रहने से अन्य राजपूत राज्यों को भी स्वतन्त्र रहने के लिये प्रोत्साहन प्राप्त हो रहा था। इस कारण अकबर को अन्य राजपूत राज्यों पर नियन्त्रण रखने में कठिनाई हो रही थी। अतः अकबर ने चित्तौड़ को परास्त कर अपने अधीन करने का निश्चय किया। 30 अगस्त 1567 को अकबर ने आगरा से मेवाड़ के लिये प्रस्थान किया। मुगल सेनाओं ने राजपूताने में प्रवेश करके शिवपुर, कोटा तथा मण्डलगढ़ के दुर्गों पर अधिकार कर लिया। अब मुगल सेना चित्तौड़ की ओर बढ़ी और उसका घेरा डाल दिया। चित्तौड़ के सरदारों ने मेवाड़ के राणा उदयसिंह को किसी सुरक्षित स्थान में भेजने का निर्णय लिया। राणा उदयसिंह ने सरदारों के निर्णय को स्वीकार कर लिया और जयमल तथा पत्ता को दुर्ग की सुरक्षा का भार देकर स्वयं उदयगिरि की पहाड़ियों की ओर चला गया।
अकबर ने चित्तौड़ दुर्ग पर भयानक प्रहार किया। राजपूतों ने भी उसी दृढ़ता से अकबर की तोपों तथा बंदूकों का जवाब दिया। राजपूतों की ओर से बहुत से अफगान भी दुर्ग की रक्षा करने में संलग्न थे, जो बन्दूक तथा तोप चलाने में दक्ष थे। दुर्ग को लेने में मुगलों के समस्त प्रयत्न निष्फल होते जा रहे थे। एक दिन अकबर ने बन्दूकचियों के प्रधान इस्माइल खाँ को देख लिया और उस पर बन्दूक से निशाना साधा। गोली इस्माइल खाँ को लगी और वह धरती पर गिरकर मर गया। अकबर के दूसरे निशाने ने जयमल को घायल कर दिया। इस्माइल खाँ के मर जाने और जयमल के घायल हो जाने से राजपूतों का उत्साह भंग हो गया। अकबर का दबाव बढ़ता ही गया। इस पर हिन्दू ललनाओं ने जौहर का आयोजन किया। राजपूतों ने ‘साका’ करने का निश्चय किया। वे केसरिया बाना धारण कर दुर्ग के द्वार खोलकर बाहर निकल आये। दोनों ओर से तुमुल युद्ध आरम्भ हो गया। जयमल तथा पत्ता ने अपने राजपूत वीरों के साथ शत्रुओं का संहार करना आरम्भ किया। अंत में वे दोनों ही रणखेत रहे। पत्ता की माता तथा पत्नी ने भी हाथ में तलवार लेकर शत्रु से युद्ध किया और अपने प्राणों को स्वतन्त्रता देवी की वेदी पर अर्पित कर दिया। चित्तौड़ के दुर्ग पर अकबर का अधिकार हो गया और उसका प्रबन्ध आसफखाँ को सौंप दिया गया। जब अकबर वापस आगरा लौटा तो उसने आगरा के दुर्ग के मुख्य द्वार के दोनों ओर पत्थर के हाथियों पर आसीन जयमल और पत्ता की मूर्तियाँ बनवाकर लगवाईं। चित्तौड़ दुर्ग अकबर के अधिकार में चला गया किंतु मेवाड़ ने अपनी स्वतंत्रता का त्याग नहीं किया। उदयसिंह ने पहाड़ों में उदयपुर नामक नगर बसाकर उसे अपनी राजधानी बनाया और वहीं से मेवाड़ पर शासन करने लगा।
रणथम्भौर विजय
चित्तौड़ विजय के बाद अकबर ने रणथम्भौर के अभेद्य दुर्ग को जीतने का निश्चय किया जो एक ऊँची पहाड़ी पर स्थित था। इन दिनों रणथम्भौर पर पृथ्वीराज चौहान के वंशज सुर्जन हाड़ा का अधिकार था। अकबर ने स्वयं अपनी सेना का नेतृत्व किया और किले पर भारी गोलीबारी की। सुर्जन हाड़ा ने कई दिनों तक अकबर की विशाल सेना का सामना किया किंतु अंत में विवश होकर अकबर के साथ सम्मानजनक शर्तों पर संधि कर ली और रणथम्भौर का दुर्ग अकबर को समर्पित कर दिया। अकबर ने सुर्जन हाड़ा को गढ़कण्टक का दुर्गपति बना दिया और बनारस तथा चुनार के सूबे भी उसे दे दिए।
कालिंजर विजय
कालिंजर राजपूतों के प्रसिद्ध दुर्गों में से था। अकबर ने मजनूखाँ को इस दुर्ग पर आक्रमण करने भेजा। कालिंजर के दुर्गपति रामचन्द्र ने शत्रु का सामना किया परन्तु जब उसे चित्तौड़ तथा रणथम्भौर के समर्पण की सूचना मिली तब उसका साहस भंग हो गया और उसने समर्पण कर दिया। अकबर ने रामचन्द्र से कालिंजर का दुर्ग लेकर उसे इलाहाबाद के निकट एक जागीर दे दी।
अन्य राजपूत राज्यों का समर्पण
चित्तौड़, रणथम्भौर तथा कालिंजर के प्रसिद्ध दुर्गों पर अधिकार करके अकबर ने अपनी शक्ति तथा प्रतिष्ठा में बड़ी वृद्धि कर ली। उसकी इन विजयों का अन्य राजपूत राज्यों के मनोबल पर बुरा प्रभाव पड़ा। जोधपुर के राजा चन्द्रसेन, बीकानेर के राजा कल्याणमल तथा जैसलमेर के महारावल ने युद्ध किये बिना ही अकबर की अधीनता स्वीकार कर ली। अकबर ने इन राजाओं के साथ अधीनस्थ मित्रता का व्यवहार किया और उन्हें उनके राज्यों में बने रहने दिया।
महाराणा प्रताप के साथ संघर्ष
यद्यपि राणा उदयसिंह के समय में चित्तौड़ पर अकबर का अधिकार हो गया था परन्तु उदयसिंह ने उसकी अधीनता स्वीकार नहीं की थी। वह उदयगिरि की पहाड़ियों में उदयपुर नामक नगर की स्थापना करके स्वतन्त्रतापूर्वक शासन करता रहा। फरवरी 1572 में उदयसिंह का निधन हो गया। वह अपने पुत्र जगमल को अपना उत्तराधिकारी नियुक्त कर गया था किंतु मेवाड़ के सरदारों ने उदयसिंह के बड़े पुत्र प्रतापसिंह को मेवाड़ के सिंहासन पर बैठाया। जगमल असंतुष्ट होकर अकबर की शरण में चला गया। अकबर ने उसे अपनी चाकरी में रख लिया तथा उसे एक जागीर दे दी।
1573 ई. में अकबर ने आम्बेर के राजकुमार कुंवर मानसिंह को महाराणा प्रतापसिंह से समझौता करने के लिए मेवाड़ भेजा। महाराणा ने मानसिंह का स्वागत किया और मानसिंह ने महाराणा को अकबर की ओर से भेजे गये वस्त्र दिये। महाराणा ने उन्हें भी स्वीकार कर लिया किंतु महाराणा अकबर के दरबार में उपस्थित होने के लिये सहमत नहीं हुआ। इससे मानसिंह विफल होकर लौट गया। सितम्बर 1573 में अकबर ने आम्बेर के राजा भगवानदास को उसी उद्देश्य से उदयपुर भेजा। महाराणा ने राजा भगवानदास का भी सम्मान पूर्वक स्वागत किया। महाराणा ने अपने पुत्र कुंवर अमरसिंह को राजा भगवानदास के साथ अकबर के दरबार में भेज दिया। नवम्बर 1573 में राजा भगवान दास अमरसिंह के साथ फतेहपुर पहुँच गया। थोड़े दिन बाद राजा टोडरमल भी महाराणा के राज्य से होकर गुजरा। उसके साथ भी महाराणा ने अच्छा व्यवहार किया।
यद्यपि राणा तथा अकबर दोनों ही मैत्री-भाव प्रकट कर रहे थे परन्तु अकबर इस बात पर जोर दे रहा था कि महाराणा स्वयं उसका अभिनन्दन करने के लिए उसके दरबार में आये किंतु महाराणा ऐसा करने के लिए तैयार नहीं था। महाराणा चाहता था कि अकबर मेवाड़ के विजित क्षेत्रों को फिर से लौटा दे परन्तु अकबर ऐसा करने के लिए तैयार नहीं था। महाराणा ने ऐसे कई राजपूत राजाओं तथा अफगानों के साथ मैत्री कर ली जिनसे अकबर की शत्रुता थी इसलिये अकबर को महाराणा की सद्भावना पर अधिक विश्वास नहीं था। जब जोधपुर तथा बूँदी के राजाओं ने विद्रोह का झण्डा खड़ा किया तब अकबर को लगा कि महाराणा प्रताप उनको उपद्रव करने लिए उकसा रहा है। इसलिये उसने महाराणा से युद्ध करने का निश्चय किया।
1576 ई. में अकबर ने कुंवर मानसिंह को पाँच हजार घुड़सवारों के साथ महाराणा पर आक्रमण करने भेजा। मानसिंह मण्डलगढ़ के मार्ग से हल्दीघाटी के पर्वतीय मार्ग के पास आ गया। महाराणा प्रताप भी तीन हजार घुड़सवारों के साथ वहाँ आ डटा। कई अफगान मित्र भी राणा की सेना से आ मिले। घमासान युद्ध आरम्भ हो गया। राजपूतों ने मुगलों के छक्के छुड़ा दिये। ऐसा लगने लगा कि विजयलक्ष्मी महाराणा प्रताप का आलिंगन करेगी। उसी समय यह सूचना फैला दी गई कि अकबर स्वयं विशाल सेना लेकर आ रहा है। तब राणा प्रताप ने अपनी सेना को पीछे हटा लिया और अरावली की पहाड़ियों में गोगुंदा की ओर चला गया। प्रताप ने पच्चीस वर्षों तक मेवाड़ पर शासन किया। 59 वर्ष की आयु में उसका निधन हो गया।
महाराणा प्रताप के शौर्य तथा त्याग की प्रशंसा करते हुए कर्नल टॉड ने लिखा है- ‘इस प्रकार उस राजपूत के जीवन का अन्त हुआ, जिसकी स्मृति की पूजा आज भी प्रत्येक सिसोदिया करता है और तब तक करता रहेगा जब तक नया अत्याचार देश प्रेम की भावना की अवशिष्ट चिनगारियों को बुझा न देगा। भगवान न करे कि ऐसा दिन आये परन्तु यदि उनके भाग्य में यही बदा है तो कम से कम ब्रिटेन अपने सैन्यबल से ऐसा न करे। अरावली की पहाड़ियों में कोई ऐसा पर्वतीय मार्ग नहीं है, जो प्रताप के किसी वीर कार्य, किसी महान् विजय अथवा विजय से भी अधिक श्लाघनीय पराजय से पवित्र न बना दिया गया हो। हल्दीघाटी मेवाड़ का थर्मापोली और देवेर का रणक्षेत्र उसका मराथान है।’
क्या राणा प्रताप तथा अकबर का संघर्ष दो जातियों का संघर्ष था
राणा प्रताप तथा अकबर के बीच के भयानक संघर्ष को कुछ इतिहासकारों ने दो जातियों तथा दो धर्मों का संघर्ष बताया है। उनके विचार से महाराणा प्रताप हिन्दू जाति तथा हिन्दू धर्म के गौरव की रक्षा के लिए मुगलों के विरुद्ध युद्ध कर रहे थे। जबकि कुछ इतिहासकार इस मत को स्वीकार नहीं करते तथा महाराणा पर आरोप लगाते हैं कि उन्होंने हिन्दू धर्म की रक्षा की बजाय अपने राज्य की रक्षा के लिये युद्ध किया। इन इतिहासकारों के अनुसार महाराणा प्रताप अव्यवहारिक तथा अदूरदर्शी थे इसलिये उन्होंने संधि का मार्ग न अपनाकर युद्ध का मार्ग अपनाया। इस मत के समर्थन तथा विरोध में दिये जाने वाले तर्क इस प्रकार से हैं-
महाराणा के समर्थन में दिये जाने वाले तर्क
(1.) निश्चित रूप से महाराणा प्रताप हिन्दू धर्म तथा हिन्दू जाति की रक्षा के लिये लड़ रहे थे न कि अपने राज्य के लिये।
(2.) यदि महाराणा प्रताप चाहते तो वे भी कुंवर मानसिंह तथा राजा भगवानदास के बहकावे में आकर अकबर की अधीनता स्वीकार करके सरलता से चित्तौड़गढ़ का दुर्ग प्राप्त कर सकते थे तथा उदयपुर को अपनी राजधानी बनाये रख सकते थे किंतु हिन्दुआनी आन, बान और शान ने उन्हें झुकने नहीं दिया।
(3.) यदि महाराणा प्रताप अपने राज्य तथा सिसोदिया कुल की राज्य सत्ता की रक्षा के लिये ही लड़ रहे थे तो यह कार्य वे अकबर की अधीनता स्वीकार करके भी बड़ी सरलता से कर सकते थे।
(4.) यदि महाराणा प्रताप एकदम अव्यवहारिक, कल्पनाशील तथा वास्तविकता को नहीं समझने वाले थे तो उन्होंने अकबर द्वारा भेजे गये उपहार क्यों स्वीकार किये? उन्होंने अपने कुंवर को अकबर के दरबार में भेजकर सद्भावना का परिचय क्यों दिया? स्पष्ट है कि महाराणा प्रताप अपनी ओर से अकबर से सद्भावना बनाये रखना चाहते थे। वे अकारण युद्ध खड़ा नहीं करना चाहते थे।
(5.) यदि महाराणा प्रताप अव्यवहारिक व्यक्ति होते तो वे अवश्य ही तलवार के बल पर अपने पूर्वजों के दुर्ग चित्तौड़ को लेने का प्रयास करते किंतु उन्होंने परिस्थितियों की वास्तविकता को समझते हुए, ऐसा करने का कभी भी प्रयास नहीं किया।
(6.) महाराणा ने अकबर पर आक्रमण नहीं किया अपितु अकबर ने ही महाराणा पर आक्रमण करके महाराणा को युद्ध करने के लिये विवश किया।
(7.) यदि महाराणा को हिन्दू धर्म की आन, बान और शान की चिंता नहीं होती तो वे अपने अंतिम दिनों में इस बात को लेकर दुखी क्यों होते कि उनका पुत्र अमरसिंह हिन्दुओं के गौरव की रक्षा नहीं कर सकेगा।
(8.) अकबर ने महाराणा पर निरंतर दबाव बनाया कि महाराणा, अकबर के दरबार में उपस्थित होकर उसे मुजरा करें किंतु महाराणा ने हिन्दू धर्म तथा हिन्दू जाति की मर्यादा तथा उसके गौरव की रक्षा के लिये अकबर के इस प्रस्ताव को स्वीकार नहीं किया।
(9.) यदि महाराणा को हिन्दू धर्म के गौरव की चिंता नहीं होती तो पीथल के एक पत्र लिखने पर ही महाराणा ने अकबर से संधि करने का विचार नहीं त्यागा होता।
(10.) यदि महाराणा हिन्दू धर्म के गौरव की रक्षा के लिये नहीं लड़ रहे होते तो महाराणा के समकालीन तथा बाद के समय में हुए चारणों, भाटों एवं स्थानीय कवियों ने महाराणा प्रताप की युद्ध गाथा को हिन्दू जाति के गौरव की रक्षा से जोड़कर नहीं लिखा होता।
(11.) सिसोदियों का इतिहास बताता है कि वे मुगलों से बराबरी के स्तर पर तो मित्रता कर सकते थे किंतु उनकी अधीनता स्वीकार करने को तैयार नहीं थे। प्रताप से पहले रानी कर्णवती ने भी हुमायूँ को राखी भेजकर मुगलों की तरफ मित्रता का हाथ बढ़ाया किंतु आम्बेर के राजा भारमल ने अकबर की अधीनता स्वीकार कर मुगलों की सहायता प्राप्त की।
(12.) वर्तमान राजनीतिक वातावरण में अधिकांश इतिहासकारों को हिन्दू धर्म के गौरव से अधिक चिंता स्वयं को धर्मनिरपेक्ष दिखाने की है। इसलिये वे महाराणा के महान त्याग एवं संघर्ष को तुच्छ राज्य के लिये किया गया संघर्ष बताते हुए नहीं हिचकिचाते।
विरोध में दिये जाने वाले तर्क
(1.) यदि महाराणा प्रताप हिंदू जाति तथा हिंदू धर्म की रक्षा के लिये संघर्ष करते तो महाराणा प्रताप को अफगानों की सहायता प्राप्त नहीं हुई होती।
(2.) ऐसी स्थिति में महाराणा प्रताप अपनी सेना के एक अंग का संचालन हकीम खाँ सूरी को न सौंपते।
(3.) दूसरी तरफ अकबर भी अपनी सम्पूर्ण सेना का संचालन कुंवर मानसिंह को न सौंपता।
(4.) यदि यह हिन्दू जाति, हिन्दू धर्म तथा देश की स्वतन्त्रता की रक्षा का युद्ध होता तो अन्य राजपूत राज्य महाराणा के साथ कन्धे से कन्धा मिलाकर अकबर से लड़े होते।
(5.) यह कहना कि समस्त राजपूत कायर हो गये थे और उनका इतना अधिक नैतिक पतन हो गया था कि वे अपने थोड़े से स्वार्थ के लिए अपनी स्वतन्त्रता, अपने धर्म तथा मान-सम्मान को मुगलों के हाथ बेच देने के लिए उद्यत हो गये थे, किसी भी प्रकार स्वीकार्य नहीं है।
(6.) वास्तविकता तो यह थी कि राणा प्रताप मेवाड़ राज्य तथा सिसोदिया वंश की राज्य सत्ता की रक्षा के लिये लड़ रहे थे। इसी कारण इस युद्ध से अन्य राजपूत राज्यों को विशेष उत्तेजना नहीं मिली।
(7.) राजपूताना के राजपूत राज्यों को मेवाड़ की साम्राज्यवादी नीति का अनुभव हो चुका था और मेवाड़़ के प्रतापी राजाओं ने उनके साथ जो व्यवहार किया था उनमें मेवाड़ के प्रति पहले जैसा उत्साह नहीं रह गया था। अब वे मेवाड़ के नेतृत्व में संगठित होने के लिए तैयार नहीं थे।
(8.) अकबर भी जातीयता अथवा धार्मिक भावना से प्रेरित होकर महाराणा से युद्ध नहीं कर रहा था। मेवाड़ पर आक्रमण उसकी साम्राज्यवादी नीति का एक अंग था। यदि मेवाड़ गैर हिन्दू राज्य होता तो भी अकबर उस पर उसी प्रकार आक्रमण करता, जिस प्रकार उसने अन्य हिन्दू अथवा मुसलमान राज्यों पर किया था। अकबर ने विशुद्ध राजनीतिक उद्देशय से मेवाड़ पर आक्रमण किया था।
निष्कर्ष
उपरोक्त तथ्यों के आलोक में हम इस निष्कर्ष पर पहुँच सकते हैं कि महाराणा प्रताप एक आदर्शवादी राजा थे। वे प्राचीन क्षत्रियों के आदर्श पर चलते हुए हिन्दू जाति तथा धर्म के गौरव को बनाये रखने के लिये जीवन भर संघर्ष करते रहे तथा उन्होंने राज्य को पाने के लिये अकबर की अधीनता स्वीकार नहीं की। उन्होंने अफगानों की सहायता केवल इसलिये स्वीकार की क्योंकि अफगान, मुगलों के सबसे बड़े शत्रु थे। यह भी स्पष्ट है कि महाराणा का हिन्दुत्व काल्पनिकता तथा कोरी भावुकता से प्रेरित नहीं था जिसमें हाकिम खाँ सूरी जैसे अफगान तोपचियों की सेवा लेने का भी साहस नहीं हो। हिन्दू जाति तथा हिन्दू गौरव की रक्षा का अर्थ यह कदापि नहीं हो सकता कि महाराणा के लिये अफगान मित्र भी अस्पर्श्य हो जाते। महाराणा पर थोथे आदर्श, काल्पनिकता तथा कोरी भावुकता का आरोप तभी लग सकता था जब वे मुगलों के साथ-साथ अफगानों को भी अपना शत्रु बना लेते। जब अकबर राजपूतों की तलवार से राजपूतों को मार सकता था तो महाराणा भी अफगानों की तोपों से मुगलों को मार सकते थे। इसमें कोई दो राय नहीं कि अकबर मुस्लिम राज्य की स्थापना के लिये लड़ रहा था तथा महाराणा प्रताप हिन्दू गौरव की रक्षा के लिये लड़ रहे थे।