डिसमिस दावा तोर है सुन उर्दू बदमास (15)
गोरखपुर मजिस्ट्रेट के न्यायालय में सोहन प्रसाद पर किया गया मुकदमा अधिक लम्बा नहीं खिंचा तथा नवम्बर में मुकदमे की वास्तविक सुनवाई आरम्भ होने से पहले ही गोरखपुर कचहरी के हाते में मुकदमे से जुड़े हिन्दू और मुसलमानों की एक बैठक हुई जिसमें कुछ शर्तों पर समझौता हो गया और मुसलमानों द्वारा न्यायालय से अभियोग वापस ले लिया गया।
30 नवम्बर 1885 को सोहन प्रसाद ने मुकदमे के अन्त के बारे में हिन्दी पत्र-पत्रिकाओं को जानकारी दी। 30 नवम्बर 1885 के भारत जीवन में छपे अपने पत्र में उन्होंने सूचित किया कि जब हमारा वकील अदालत में मुकदमा लड़ने की तैयारी करने लगा, तब यवन महाशयों के कमल मुख सूख गये और वे संधि करना चाहने लगे। जब हिन्दुओं ने उनसे कहा कि तुमने नालिश की थी, तुम्हीं वापस लो, तो मुसलमान बोले कि कुछ हम लोगों की भी खातिर होनी चाहिए, हमें और कुछ उज्र नहीं है, केवल यही प्रार्थना है कि उमर के निस्बत जो दोहे लिखे हैं, वह पांच-चार दोहे जब दूसरी बेर पुस्तक छपे, तो निकाल दिये जाएँ।
इस पर कचहरी में हिन्दू और यवनों की एक बड़ी कमेटी हुई। मुसलमानों के गिड़गिड़ाने और हाथ-पैर पकड़ने से हिन्दू भाइयों ने स्वीकार कर लिया कि अच्छा, पाँच-चार दोहे निकल दिये जायेंगे। संधि का एक मजमून तैयार किया गया। जब मजमून मुझे दिखाया गया तो मैंने कहा कि यह कभी न होगा। यदि उमर भी कब्र से निकल आयें और उन दोहों को निकाल देने की प्रार्थना करें, तो भी हमें स्वीकार नहीं।
सोहन प्रसाद ने इस सूचना में लिखा कि हिन्दुओं के समझाने पर कि ‘दस के बूझे कीजै काज, हारे जीते नहीं लाज’ मथुरा अखबार में भी सम्पादक के द्वारा ऐसी ही सलाह देने तथा चम्पारन हितकारी की भी यही राय होने के अलावा बहुत-से मित्रों ने लिखा और हिन्दूसमाज, आर्यसमाज ने भी ऐसा ही लिख भेजा, लिहाजा हमको स्वीकार करना पड़ा। इसके बाद संधिपत्र तैयार करके मजिस्ट्रेट साहब को दे दिया गया।
सोहन प्रसाद के अनुसार मुसलमानों ने उनसे कहा कि 250 रुपए की पुस्तकें छपी होंगी। उनका मूल्य 300 रुपए हम देते हैं, आप पुस्तकें यहीं मँगा दो, हम उन दोहों को स्याही से काट देंगे। इस पर उन्हें जवाब मिला कि किताबें कहाँ-कहाँ गयीं, पाठक उन्हें लौटाना चाहेंगे या नहीं, यह सब मुझे क्या पता! बहरहाल, सुलहनामा दाखिल हो गया और सबने अपने-अपने घर की राह ली।
सोहन प्रसाद का यह विवरण कुछ अन्य पत्र-पत्रिकाओं में छपे विवरण से मेल नहीं खाता। वर्नाकुलर प्रेस के सम्बन्ध में होने वाली नियमित रिपोर्टिंग में कहा गया कि कोर्ट के बाहर हुए समझौते में सोहन प्रसाद ने यह शर्त कबूल कर ली थी कि वह पहले संस्करण की बाकी बची समस्त प्रतियों को जला देगा और यदि पुस्तक का कोई अगला संस्करण छपता है तो उसमें से आपत्तिजनक दोहों को हटा देगा।
इस समझौते के बाद यह मुकदमा कोर्ट से हटा लिया गया तथा सोहन प्रसाद मुदर्रिस गुमनामी के नेपथ्य में चले गए। यद्यपि सोहन प्रसाद मुदर्रिस के नाटक की भाषा तल्ख थी तथापि इस बात से इन्कार नहीं किया जा सकता कि यह मुकदमा हिन्दी साहित्य की ऐतिहासिक धरोहर है तथा उन्नीसवीं सदी के अंतिम दशकों में उत्तर भारत के हिन्दुओं एवं मुसलमानों की उन मनोदशाओं को व्यक्त करता है जिनसे घबराकर अंग्रेज सरकार ने इण्डियन नेशनल कांग्रेस जैसी राष्ट्रव्यापी संस्था की स्थापना की।
डॉ. मोहनलाल गुप्ता