डिसमिस दावा तोर है सुन उर्दू बदमास (2)
जब दिल्ली स्थित तुर्कों की सल्तनत का भारत के अन्य क्षेत्रों में विकास हो रहा था, तब ई.1000 के लगभग दिल्ली एवं उसके आसपास के क्षेत्रों में प्रयुक्त होने वाली बोलियों ने विदेशों से आई तुर्की भाषा के कुछ शब्द ग्रहण करके एक नवीन भाषा को जन्म देना आरम्भ किया। हिन्दुओं ने इसे अपनी भाषा बताया तथा इसे हिन्दी कहा। तुर्कों ने इसे हिंदुल, हिंदुवी, हिंदी, जबाने दिल्ली, जबाने हिंदुस्तान तथा हिंदुस्तानी आदि नामों से अभिहित किया। कुछ लोग इसे खड़ी बोली कहते थे।
जब बारहवीं शताब्दी ईस्वी के अंत में तुर्क भारत में आए तो वे अपने साथ तुर्की भाषा लेकर आए जिसे अरबी लिपि में लिखा जाता था। जब सोलहवीं शताब्दी ईस्वी में मुगल भारत आए तो वे अपने साथ फारसी एवं चगताई भाषाओं को लेकर आए जिन्हें फारसी लिपि में लिखा जाता था।
अरबी और फारसी भाषाएं अलग-अलग हैं किंतु अरबी और फारसी लिपि में अधिक अंतर नहीं है। अरबी लिपि ही ईरान में आकर थोड़ा-बहुत रूप बदलकर फारसी कहलाने लगी। तुर्की, अरबी, फारसी एवं चगताई ये सारी भाषाएँ मध्य एशियाई देशों में व्यवहृत होती थीं और इन सबकी लिपियाँ मूलतः अरबी लिपि से बनी थीं।
तुर्कों, मंगोलों, अफगानियों एवं मुगलों की सेनाएं सैंकड़ों साल तक भारत में युद्ध के मैदानों में पड़ी रहीं। ये सैनिक अरबी, फारसी, तुर्की एवं चगताई आदि भाषाएं बोलते थे। पराजित हिन्दू राज्यों के सैनिक भी रोजगार पाने के लिए मुसलमानी सेनाओं में भर्ती होने लगे। ये सैनिक अपने-अपने प्रांतों की बोलियां बोलते थे यथा हिन्दी, मराठी, ब्रज, अवधी, डिंगल इत्यादि।
जब हिन्दू और मुसलमान सैनिक सैंकड़ों साल तक युद्ध शिविरों में साथ-साथ रहे तो उनकी भाषाएं आपस में घुलने-मिलने लगीं। इस सम्मिश्रिण से एक नई बोली ने जन्म लिया जिसे उर्दू कहते थे। उर्दू शब्द का अर्थ होता है- भीड़। चूंकि इस बोली में बहुत सी भाषाओं के शब्दों की भीड़ थी, इसलिए इसे उर्दू कहा गया। विभिन्न भाषाओं के शब्दों की इसी भीड़ के कारण उर्दू को खिचड़ी बोली भी कहा जा सकता है।
इस खिचड़ी भाषा का सबसे पहला कवि अमीर खुसरो (ई.1253-1325) को कहा जा सकता है। उसने अरबी, फारसी, हिन्दी तथा दिल्ली की क्षेत्रीय बोलियों का उपयोग करके अपनी रचनाएं लिखीं। उर्दू बोली की अपनी कोई लिपि नहीं थी।
मुगलों के काल में उर्दू को फारसी लिपि में लिखा जाने लगा जो अरबी लिपि जैसी ही थी। इसे ‘रेख्ता’ भी कहा जाता था। यह एक अरबी-फारसी शब्द था जिसका उपयोग बहुत सी चीजों से मिलकर बनी नई चीज के लिए होता है। शासकों की भाषा होने के कारण तथा रोजगार देने में सक्षम होने के कारण भारत में धीरे-धीरे उर्दू बोलने वालों की संख्या बढ़ने लगी जिनमें मुसलमानों की संख्या अधिक थी।
इस काल में जिस प्रकार उर्दू भाषा आकार ले रही थी, उसी प्रकार ब्रज एवं अवध से लगते हुए क्षेत्रों में हिन्दी भाषा भी आकार ले रही थी जिसे खड़ी बोली कहा जाता था। मेरठ, दिल्ली तथा उसके आसपास का क्षेत्र खड़ी बोली का मुख्य केन्द्र था। इस भाषा को हिन्दू एवं मुसलमान दोनों ही व्यवहार में लाते थे।
एक समय ऐसा भी था जब हिन्दी और उर्दू भाषाएं इतनी निकट थीं कि उन्हें एक ही भाषा के दो रूप माना जाने लगा। खड़ी बोली हिन्दी में अरबी-फारसी के शब्दों की भरमार थी तथा उर्दू में भारत की देशज भाषाओं के शब्द भरे पड़े थे। इस कारण सैंकड़ों सालों तक भारत के हिन्दू और मुसलमान उर्दू एवं हिन्दी भाषाओं में व्यवहार करते रहे।
ई.1858 में जिस समय मुगलों को दिल्ली के लाल किले से निकाल कर फैंका गया, तब तक अंग्रेजों को भारत में शासन आरम्भ किए पूरे एक सौ साल बीत चुके थे। उस समय तक, मध्यकाल में भारत में बाहर से आए मुसलमानों के वंशज तुर्की, अरबी, फारसी एवं चगताई आदि भाषाएं भूल चुके थे एवं विगत सैंकड़ों साल से व्यवहार में लाए जाने के कारण उर्दू को ही अपनी मातृभाषा मानने लगे थे। इस काल में हिन्दू समुदाय का एक बड़ा हिस्सा भी उर्दू को मुसलमानों की भाषा मानने लगा था और इस कारण उर्दू से परहेज करने लगा था।
डॉ. मोहनलाल गुप्ता