सैयद वंश
तुगलक वंश के अन्तिम सुल्तान महमूद की 1413 ई. में मृत्यु हो गई। इसके बाद दिल्ली में खिज्र खाँ ने एक नये राजवंश की स्थापना की जो सैयद वंश के नाम से प्रसिद्ध है। सैयद स्वयं को पैगम्बर का वंशज बताते हैं। कहा जाता है कि बुखारा के सैयद जलाल नामक फकीर ने खिज्र खाँ को सैयद कहकर पुकारा था, तभी से वह सैयद कहलाने लगा। ख्रिज खाँ के सैयद कहलाये जाने का एक और कारण है। कहा जाता है कि उसके चरित्र में सैयदों की समस्त विशेषताएँ विद्यमान थीं। वह दयालु, साहसी, विनम्र, वचन पालक तथा धार्मिक व्यक्ति था। ये सब गुण पैगम्बर तथा उनके वंशजों में पाये जाते हैं। चूंकि इस नये राजवंश की स्थापना खिज्र खाँ ने की, इसलिये इस वंश का नाम सैयद वंश पड़ गया।
खिज्र खाँ (1414-1421 ई.)
खिज्र खाँ एक सैयद था। बचपन में मुल्तान के गवर्नर मलिक नसीरूल्मुल्क दौलत ने उसका पालन पोषण किया था। नसीरूल्मुल्क की मृत्यु के उपरान्त खिज्र खाँ बंगाल का गवर्नर हो गया। 1398 ई. में सरग खाँ ने मुल्तान पर आक्रमण करके खिज्र खाँ को कैद कर लिया परन्तु खिज्र खाँ कैद से निकल भागा और 1398 ई. में उसने तैमूर लंग की नौकरी कर ली। जब तैमूर दिल्ली को नष्ट-भ्रष्ट करने के उपरान्त भारत से जाने लगा तो वह खिज्र खाँ को अपना प्रतिनिधि बना गया। दिल्ली की दशा उत्तरोत्तर बिगड़ती ही जा रही थी। खिज्र खाँ ने अवसर पाकर दौलत खाँ लोदी को परास्त किया तथा 23 मई 1414 को दिल्ली के तख्त पर बैठ गया। उसने स्वयं को स्वतंत्र शासक घोषित नहीं किया। वह समरकंद के सुल्तान की अधीनता में दिल्ली पर शासन करता रहा।
सल्तनत की दशा
खिज्र खाँ के दिल्ली के तख्त पर बैठते समय सल्तनत की स्थिति डावाँडोल थी। सल्तनत की शान समाप्त हो चुकी थी। प्रान्तपति एक-एक करके स्वतंत्र हो रहे थे। राजधानी दिल्ली की दशा भी अस्त-व्यस्त थी। प्रबल सुल्तान के अभाव में अमीरों के दल परस्पर लड़ रहे थे। दोआब में विद्रोह की आग भड़क रही थी और हिन्दू-सरदार कर देना बन्द कर रहे थे। मालवा, गुजरात तथा जौनपुर के राज्य स्वतन्त्र होकर अपने पड़ौसियों के साथ संघर्ष कर रहे थे। वे प्रायः दिल्ली राज्य पर भी धावा बोल देते थे। मेवातियों में भी बड़ा असन्तोष था। उन्होंने भी दिल्ली को कर देना बन्द कर दिया था। उत्तरी सीमा पर खोखर जाति मुल्तान तथा लौहार में लूटमार कर रही थी। सरहिन्द में भी उपद्रव मचा हुआ था। इस प्रकार साम्राज्य पूरी तरह डांवाडोल एवं छिन्न-भिन्न था। इन्हीं परिस्थितियों में खिज्र खाँ ने दिल्ली सल्तनत का शासन अपने हाथों में लिया।
विद्रोहों का दमन
खिज्र खाँ ने सल्तनत में शान्ति तथा सुव्यवस्था स्थापित करने का प्रयत्न किया। उसने पंजाब को दिल्ली से मिलाकर सल्तनत को फिर से संगठित करने का कार्य आरम्भ किया। वह पंजाब तथा दोआब के विद्रोहों को दबाने में भी सफल रहा। दोआब में कटेहर का विद्रोह बड़ा भयानक था। इस विद्रोह को दबाने के लिए चार बार सेनाएँ भेजनी पड़ीं। 1414 ई. में खोर, कम्पिला तथा साकित के विद्रोह का बड़ी कठोरता के साथ दमन किया गया। इसके पाँच वर्ष बाद कटेहर में फिर उपद्रव आरम्भ हो गया परन्तु यह विद्रोह भी शान्त कर दिया गया। इसके बाद खिज्र खाँ को इटावा की ओर ध्यान देना पड़ा। यहाँ पर एक राजपूत सरदार ने विद्रोह का झण्डा खड़ा कर दिया। विद्रोहियों को चारों ओर से घेर लिया गया और उन्हें दिल्ली सल्तनत के आधिपत्य को स्वीकार करने के लिए बाध्य किया गया। दोआब में शान्ति स्थापित करने के लिए कई बार सेनाएँ भेजनी पड़ीं। पंजाब में स्थायी शांति स्थापित नहीं की जा सकी। 1417 ई. में मलिक तुर्कान ने सरहिन्द को घेर लिया परन्तु उसे परास्त करके दिल्ली के अधीन किया गया। इसके दो वर्ष बाद 1419 ई. में सरंग खाँ ने विद्रोह का झण्डा खड़ा किया परन्तु अन्त में वह भी परास्त कर दिया गया।
खिज्र खाँ की मृत्यु
1421 ई. में खिज्र खाँ मेवात गया। वहाँ उसने विद्रोहियों के एक दल को नष्ट किया। इसके बाद वह ग्वालियर की ओर गया। वहाँ के राजा ने कर देने का वचन दिया। जब खिज्र खाँ दिल्ली लौट रहा था तब वह रास्ते में ही बीमार पड़ा और 20 मई 1421 ई. को उसकी मृत्यु हो गई।
मुबारकशाह (1421-1433 ई.)
खिज्र खाँ ने मरते समय, शाहजादे मुबारक खाँ को अपना उत्तराधिकारी नियुक्त किया। वह मुबारकशाह के नाम से तख्त पर बैठा। उसने समरकंद से अपना सम्बन्ध विच्छेद कर लिया और स्वतन्त्रापूर्वक दिल्ली में शासन करने लगा। उसने अपने नाम की मुद्राएँ चलवाईं और अपने नाम में खुतबा पढ़वाया। उसने राज्य में अनुशासन लाने के लिये अमीरों की शक्ति को कम करने के उपाय किये। वह प्रायः अमीरों का एक जिले से दूसरे जिले में स्थानांतरण कर देता था। इससे किसी अमीर का किसी एक स्थान में अधिक प्रभाव नहीं बढ़ने पाता था परन्तु इससे अमीरों की शासन पर पकड़ ढीली पड़ने लगी और उनमें सुल्तान के प्रति असन्तोष भी बढ़ने लगा। अपने पिता की भाँति मुबारक का जीवन भी पंजाब तथा दोआब में विद्रोहों का दमन करने में व्यतीत हुआ। पंजाब में सबसे भयानक विद्रोह जसरथ खोखर का था। कटेहर, मेवात, इटावा, ग्वालियर तथा कालवी में भी विद्रोह हुए परन्तु समस्त जगह विद्रोहों को सफलतापूर्वक दबा दिया गया। 1433 ई. में काबुल के शासक शेख अली ने पंजाब पर आक्रमण किया। उसने लाहौर को लूटा और बहुत से स्थानों पर अधिकार कर लिया। आक्रमणकारी शीघ्र ही मुल्तान पहुँच गये। मुबारक स्वयं एक सेना लेकर आक्रमणकारियों का सामना करने के लिए आगे बढ़ा और उन समस्त जिलों पर फिर से अधिकार कर लिया जो विद्रोहियों के अधिकार में चले गये थे। इसी समय मुबारक के प्रधानमन्त्री सरवर-उल-मुल्क ने षड्यन्त्र रच कर 1433 ई. में मुबारक की हत्या करवा दी।
मुहम्मद मीन फरीदी (1433-1445 ई.)
मुबारक की मृत्यु के उपरान्त शाहजादा मुहम्मद मीन फरीदी, मुहम्मदशाह के नाम से दिल्ली के तख्त पर बैठा। इसे मुबारकशाह ने गोद लिया था। प्रधानमन्त्री सरवर-उल-मुल्क ने राज्य की वास्तविक शक्ति अपने हाथों में रखने का प्रयत्न किया। उसने खान-ए-जहाँ की उपाधि धारण की और अपने समर्थकों को राज्य में उच्च पद देने आरम्भ किये। इससे अमीरों में असंतोष बढ़ने लगा। अंत में अमीरों ने कमाल-उल-मुल्क के नेतृत्व में विद्रोह का झण्डा बुलंद किया। सुल्तान पहले से ही सरवर से अप्रसन्न था। उसने सरवर तथा उसके साथियों की हत्या करवा दी और कमाल-उल-मुल्क को अपना प्रधानमन्त्री बना लिया किंतु राज्य में शांति स्थापित नहीं हो सकी। कुछ ही समय बाद इब्राहिम शर्की ने कुछ परगनों पर अधिकार स्थापित करके विद्रोह का झण्डा बुलंद किया। ग्वालियर के राय ने दिल्ली को कर देना बन्द कर दिया। जसरथ खोखर ने लाहौर तथा सरहिन्द के गवर्नर बहलोल खाँ लोदी को दिल्ली का तख्त छीनने के लिए प्रोत्साहित किया। इन कुचक्रों तथा विद्रोहों के फलस्वरूप दिल्ली सल्तनत उत्तरोत्तर पतनोन्मुख होती चली गई। 1445 ई. में मुहम्मद मीन फरीदी की मृत्यु हो गई।
अलाउद्दीन आलमशाह (1445-1451 ई.)
मुहम्मदशाह की मृत्यु के उपरान्त अमीरों ने उसके पुत्र अलाउद्दीन आलमशाह को गद्दी पर बैठाया। नया सुल्तान अयोग्य था। वह शासन के कार्यों की उपेक्षा करता था। 1451 ई. में वह बदायूँ चला गया और वहीं पर रहने लगा। दरबारियों तथा अमीरों ने उसके इस कदम का विरोध किया परन्तु सुल्तान ने उनकी एक नहीं सुनी। सुल्तान ने जब अपने वजीर हमीद खाँ के मरवाने का प्रयत्न किया तब हमीद खाँ ने बहलोल लोदी को दिल्ली के तख्त पर बैठने के लिये आमन्त्रित किया। बहलोल लोदी ने उसका निमंत्रण स्वीकार कर लिया तथा निर्विरोध दिल्ली के तख्त पर बैठ गया। अलाउद्दीन बदायूं में निवास करता रहा। 1478 ई. में वहीं पर उसकी मृत्यु हुई।