अकबर के बेटे शराब पी-पी कर मर गए और अंत में शहजादा सलीम ही अकबर का एक-मात्र घोषित बेटा जीवित बचा। यह इतना कृतघ्न था कि इसने अपने बाप-दादों की सल्तनत पर अधिकार करने के लिए अकबर को जहर दे दिया!
दक्षिण के मोर्चे पर शहजादे मुराद एवं शहजादे दानियाल की मृत्यु हो जाने के बाद अकबर मक्का जाना चाहता था किंतु वह जानता था कि वह मक्का तक जीवित नहीं पहुंच सकता। उसका भी वही हाल होगा जो बैराम खाँ का हुआ था। इसलिए अकबर ने बहुत सोच-विचार के उपरांत तूरान जाने का निश्चय किया जहाँ उसके पूर्वज तैमूर लंग की कब्र बनी हुई थी।
यद्यपि तूरान तक पहुँच पाना भी अत्यंत कठिन था तथापि उतना कठिन नहीं जितना कि मक्का तक पहुँच पाना! तूरान जाकर तैमूर लंगड़े की कब्र तक पहुंचने की योजना को मुगलिया सल्तनत की पूरी शक्ति झौंके बिना कार्यान्वित किया जाना संभव नहीं था।
अतः अकबर ने दक्षिण से खानखाना अब्दुर्रहीम को, बंगाल से राजा मानसिंह को तथा लाहौर से कूलची खाँ को आगरा बुलवाया और आगरा बुलवाने का प्रयोजन भी लिख भेजा।
राजा मानसिंह तथा कूलची खाँ तो बादशाह का आदेश मिलते ही अपनी-अपनी सेनायें लेकर आगरा के लिये रवाना हो गये किंतु खानखाना अब्दुर्रहीम अपने स्थान से एक इंच भी नहीं हिला।
बादशाह अकबर तथा उसके शहजादों के दुर्व्यवहार और छलपूर्ण आचार-विचार को देखकर खानखाना के मन में मुगल साम्राज्य की अभिवृद्धि हेतु पहले जैसा उत्साह नहीं रह गया था।
लम्बे समय से खानखाना यह अनुभव कर रहा था कि मुगल शहजादे यदि राजद्रोह भी करते हैं तो क्षमा कर दिये जाते हैं जबकि दूसरे अमीरों के बारे में मिथ्या शिकायतें मिलने पर भी अकबर अमीरों के साथ कठोरता से व्यवहार करता है।
जब से मुराद के प्रकरण में अकबर ने खानखाना अब्दुर्रहीम की ड्यौढ़ी बंद की थी तभी से खानखाना मन ही मन अकबर से खिन्न था। पुत्री जाना के शोक ने भी उसे तोड़ डाला था। अब वह कोई लड़ाई न तो लड़ना चाहता था और न जीतना चाहता था!
इन सब कारणों से भी बढ़कर, सबसे बड़ा कारण यह था कि तैमूर लंग की कब्र में खानखाना की कोई रुचि नहीं थी। अतः उसने बादशाह को एक लम्बा पत्र भिजवाया जिसमें उसने लिखा कि बादशाह सलामत को जानना चाहिये कि मन की शांति तो तभी मिलेगी जब अशांति के वास्तविक कारण को जानकर उसे दूर करने के उपाय किये जायेंगे।
यदि वह संभव न हो तो निरीह और कमजोर प्राणियों पर दया करने और उनकी सेवा करने से भी मन की शांति प्राप्त की जा सकती है।
बादशाह सलामत को यह भी जानना चाहिये कि आपकी रियाया आपके कुल में पैदा हुए तैमूर बादशाह के बारे में उतनी श्रद्धा नहीं रखती जितनी कि आपमें रखती है क्योंकि रियाया का मानना है कि आपके पूर्वज तैमूर लंग के जमाने में हिंदुस्थान की रियाया पर बहुत अत्याचार हुए हैं।
इससे यदि आप तैमूर बादशाह की कब्र के दर्शनों के लिये तूरान जायेंगे तो आपकी रियाया को आपके बारे में संदेह होगा जिसका खामियाजा आपके उत्तराधिकारियों को भुगतना पड़ेगा।
बेहतर होगा कि आप इस इरादे को त्याग ही दें। मैं इस समय दक्षिण का मोर्चा किसी और के भरोसे छोड़कर आपकी सेवा में उपस्थित नहीं हो सकता हूँ। जब कभी दक्षिण में शांति स्थापित होगी तब आप मुझे जो भी आदेश देंगे, प्राण रहते पूरा करूंगा। मेरा विचार तो यही है, आगे आप बादशाह हैं, जैसा कहेंगे, मैं वही करूंगा।
अब्दुर्रहीम खानखाना की इस फटकार भरी चिट्ठी को पढ़कर अकबर के मन का रहा-सहा उत्साह भी भंग हो गया। अकबर को आशा नहीं थी कि बैराम खाँ का बेटा अकबर के ही महल में पलकर बड़ा होने के बाद, अकबर को इतनी कड़ी चिट्ठी लिखेगा! अकबर के मन से तैमूर की कब्र के दर्शनों का उत्साह जाता रहा। उसने तूरान जाने का निश्चय त्याग दिया।
अकबर के तीन शहजादों में से दो छोटे शहजादे मुराद और दानियाल अत्यधिक शराब पीकर मर चुके थे। तीसरा तथा सबसे बड़ा शहजादा सलीम भी अत्यधिक शराब पीकर न केवल खुद मौत के कगार पर जा खड़ा हुआ था अपितु अपने बुरे दोस्तों की सोहबत में अपने बाप अकबर तथा पूरी मुगलिया सल्तनत को मौत के कगार पर खींच कर ले जा रहा था।
अकबर के बाद सलीम ही मुगलिया सल्तनत का उत्तराधिकारी हो सकता था किंतु बुरे आदमियों की संगति के कारण उसका दिमाग विकृत हो चला था। उसे बादशाह बनने की बड़ी शीघ्रता थी। वह अकबर के जीते जी उसकी सारी सम्पत्ति तथा राज्य पर अधिकार करना चाहता था किंतु अकबर इस अयोग्य, धोखेबाज, शराबी और अय्याश शहजादे को बादशाह नहीं बनाना चाहता था।
ई.1591 में जब अकबर गंभीर रूप से बीमार पड़ा तब अवसर पाकर सलीम ने अपने पिता अकबर को जहर दे दिया किंतु किसी तरह अकबर बच गया। जब अकबर मामले की तह तक गया तो उसका सारा संदेह सलीम पर गया। उसने सदैव के लिये सलीम को अपनी दृष्टि से च्युत कर दिया। अकबर विश्वास नहीं कर सका कि जिस बेटे के लिए उसने जीवन भर पापड़ बेले, वही बेटा एक दिन अकबर को जहर दे देगा! सल्तनत तो वैसे भी सलीम की ही थी, क्या फर्क पड़ता है कि अकबर तख्त पर बैठा है!
सलीम की इस दुष्टता से अकबर के जीवन में चारों ओर निराशा छा गयी। उसने हिन्दू नरेशों को अपनी सल्तनत का रक्षक नियुक्त कर कजलबाश, चगताई, ईरानी और तूरानी अमीरों से तो अपने राज्य की रक्षा कर ली थी किंतु घर में ही जन्मा कुपुत्र, अकबर के सीने में जहर बुझी कटारी की तरह गढ़ गया। उससे निजात पाने का कोई उपाय नहीं था।
अंत में अकबर ने सलीम के पुत्र खुसरो को अपना उत्तराधिकारी बनाने का विचार किया। खुसरो के प्रति आसक्ति और अपने प्रति उपेक्षा देखकर शहजादा सलीम अपने पिता अकबर से खुल्लमखुल्ला विद्रोह करने पर उतारू हो गया किंतु हरम की औरतों ने विशेषकर सलीमा बेगम ने किसी तरह अकबर को शांत किया तथा पिता-पुत्र में समझौता करवाया।
जब सलीम को मेवाड़ नरेश अमरसिंह के विरुद्ध अभियान के लिये भेजा गया तो सलीम मेवाड़ न जाकर अजमेर में ही अपना डेरा जमाकर बैठ गया। उन्हीं दिनों अजमेर के सूबेदार शहबाज खाँ कम्बो की मृत्यु हो गयी। सलीम ने अवसर मिलते ही शाही खजाने के एक करोड़ रुपये तथा शहबाज खाँ की निजी सम्पत्ति पर कब्जा कर लिया।
जिस समय अकबर असीरगढ़ के मोर्चे पर था, उस समय सलीम को ज्ञात हुआ कि आगरा के किले में राजकीय कोष के दो करोड़ रुपये रखे हुए हैं। सलीम ने उस कोष को हथियाने के लिये अजमेर से आगरा की ओर प्रयाण किया किंतु किलेदार और कोषाध्यक्ष की सतर्कता के कारण सलीम उस कोष को हाथ नहीं लगा सका। इसके बाद सलीम यमुना पार करके प्रयाग चला गया और उसने अपने आपको स्वतंत्र बादशाह घोषित कर अपना दरबार जमा लिया। कुछ ही दिनों बाद उसे बिहार से भी शाही कोष के तीस लाख रुपये छीनने का अवसर मिल गया। शाही कोष से छीने गये लगभग डेढ़ करोड़ रुपयों के बल पर सलीम ने तीस हजार सिपाही इकट्ठे कर लिये।
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