आज से लगभग पचास साल पहले तक ऊंदरिया पंथ, अरावली की पहाड़ियों में स्थित जयसमंद झील के निकट निवास करने वाले आदिवासियों में प्रचलित था। इस समय इस पंथ की क्या स्थिति है, यह ज्ञात नहीं है।
ऊंदरिया पंथ की संगतों का आयोजन किसी एकांत एवं निर्जन स्थान पर किया जाता था। अरावली की पहाड़ियों में स्थित ये स्थान इतने गुप्त होते थे कि कोई साधारण इंसान तो वहाँ पहुंच ही नहीं सकता था। फिर भी इस पंथ की कुछ जानकारी शेष मानव समाज के सामने आ गई।
इस पंथ ने कब जन्म लिया तथा किसने इस पंथ की स्थापना की, यह ज्ञात नहीं है। इस पंथ का दार्शनिक आधार भी ज्ञात नहीं है और यह भी ज्ञात नहीं है कि इस पंथ के साधक किस सिद्धि के प्रयोजन से यह साधना करते थे! इस पंथ की सदस्यता किस प्रकार दी जाती थी, उसकी भी जानकारी इस पंथ के बाहर किसी को नहीं है!
फिर भी यह निश्चित है कि यह एक वाम मार्गी साधना है। चूंकि इस पंथ की साधना में नियंत्रित मैथुन पर सर्वाधिक जोर दिया जाता है इसलिए यह अनुमान लगाना कठिन नहीं है कि इस साधना का उद्देश्य मनुष्य देह में परमानंद का विस्फोट करके कुण्डलिनी जागरण करना अथवा सहस्रदल भेदन करना आदि रहा होगा।
इस पंथ की साधना सभाओं में स्त्री और पुरुष को जोड़े से आना होता था तथा वे पूर्ण निर्वस्त्र होकर एक बड़े समूह में गोलाकर बैठकर साधना करते थे। साधना के समय प्रत्येक साधक को अपने मन एवं शरीर पर नियंत्रण करना होता था तथा संयम का पालन करना होता था।
इस गोले में एक तरफ पुरुष तथा एक तरफ स्त्रियां बैठती थीं। इनके बीच में एक बड़ा थाल रखा जाता था। इस थाल में सिके हुए मोटे आटे में शक्कर मिलाकर तैयार किया गया एक चूरमा रखा जाता था। इस चूरमे को भी साधना स्थल पर तैयार किया जाता था। यह चूरमा माताजी के भोग के लिए बनाया जाता था। इस चूरमे से सटा हुआ एक कच्चा धागा छत से लटकाया जाता था।
साधना स्थल के लिए ऐसे मकान का चयन किया जाता था जिसकी छतें घास-फूस से बनी होती थीं। इस घास-फूस के नीचे लकड़ी की बल्लियां तथा ऊपर केवेलू होते थे। इस धागे को छत की किसी बल्ली से लटकाया जाता था तथा उसके नीचे चूरमे का थाल रखा जाता था।
इसके बाद निर्वस्त्र बैठे हुए स्त्री-पुरुष साधक, देवी के आगमन के लिए प्रार्थना करते थे। जब कोई चुहिया इस धागे के सहारे आकर चूरमा खा लेती थी, तब यह समझा जाता था कि देवी ने उनकी प्रार्थना स्वीकार कर ली है तथा उसने प्रसन्न होकर प्रसाद ग्रहण कर लिया है।
कभी-कभी चुहिया के आने में कई-कई दिन लग जाते थे। तब तक समस्त साधक निर्वस्त्र एवं निराहार रहकर साधना करते थे। चुहिया चहल-पहल युक्त या शोर-शराबे के बीच आने में झिझकती थी इसलिए साधक कम से कम हरकत करते थे तथा पूर्ण रूप से मौन रहते थे।
चुहिया का आह्वान रात्रि के समय ही किया जाता था। दिन के समय साधक निर्वस्त्र एवं निराहार रहकर भजन भाव करते थे और देवी को प्रसन्न करने के लिए एक दूसरे के जनन अंगों को स्पर्श करते हुए नाचते थे।
यदि नृत्य के दौरान किसी साधक में काम-भाव जागृत हो जाता था या वह किसी से छेड़खानी कर बैठता था तो उस साधक की तपस्या भंग समझी जाती थी। उसे अन्य साधक मिलकर दण्डित करते थे। इस दौरान उसकी पिटाई की जाती थी। यहाँ तक कि उसकी हत्या भी कर दी जाती थी। चाहे वह स्त्री हो या पुरुष।
भजन, गायन एवं नृत्य के समस्त उपक्रम देवी को प्रसन्न करने के लिए होते थे जो रात्रि में चुहिया के रूप में आने वाली होती थी। रात्रि के समय समस्त साधक भजन एवं नृत्य बंद कर देते तथा फिर से गोल घेरे में बैठकर चुहिया के आगमन की प्रतीक्षा में टकटकी लगाकर थाल की ओर देखते रहते थे।
वाममार्गी साधना के दौरान स्त्री देह की अनिवार्यता आदिम युग से चले आ रहे विभिन्न समाजों में थी। यहां तक कि उनका प्रसार अन्य रूपों में मध्यकालीन पंथों में भी हो गया था। गौड़ीय वैष्णव सम्प्रदाय की एक शाखा में भजन एवं साधना के लिये एक युवा सुंदर एवं परकीया स्त्री की आवश्यकता होती थी।
ऊंदरिया पंथ की अब क्या स्थिति है तथा इस पंथ के कितने साधक बचे हैं और वे कहाँ निवास करते हैं, इसके बारे में आधुनिक समाज के लोगों को कुछ भी पता नहीं है। शाक्त मत की वाम साधना में खड़े होने वाले पंथों में ऊंदरिया पंथ सबसे अलग माना जा सकता है जिसमें कामातुर होने वाले साथी की हत्या तक कर दी जाती थी। ऐसा उल्लेख अन्य पंथों के साधना इतिहास में नहीं मिला है।
-डॉ. मोहनलाल गुप्ता
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