गोस्वामी तुलसीदास द्वारा रचित विशाल साहित्य न केवल भारतीय सभ्यता की, अपितु सम्पूर्ण मानव सभ्यता की अमूल्य धरोहर है। यह हिन्दी भाषा में लिखा गया भक्तिकाव्य है जो भारतीय वेदांत के विभिन्न दर्शनों पर आधारित है तथा मनुष्य को भक्तियोग, कर्मयोग एवं ज्ञानयोग का सम्यक अनुशीलन करने का मार्ग दिखाता है।
सोलहवीं शताब्दी ईस्वी में जिस समय गोस्वामी तुलसीदास ने जन्म लिया, उस समय भारत भूमि पर मुसलमानों को शासन करते हुए लगभग चार शताब्दियां होने जा रही थीं और हिन्दुआ तेज अत्यंत निर्बल हो चुका था। तुलसी के साहित्य ने हिन्दुओं के गौरवमयी सूर्य को फिर से निराशा के कुहासे से बाहर निकाला और उसे पूरे तेज के साथ विश्व सभ्यता के माथे पर भूषित कर दिया।
हिन्दुओं का उत्थान किसी जाति, पंथ या देश का उत्थान नहीं है। हिन्दुओं का उत्थान वस्तुतः सम्पूर्ण मानव जाति का उत्थान है।
हिन्दुओं के उत्थान का अर्थ है सम्पूर्ण जीव-जगत को हिंसा के खड्ड से बाहर निकालकर अभय प्रदान करना। हिन्दू संस्कृति के उत्थान का अर्थ है सम्पूर्ण जगत में शांति, सद्भावना और प्रेम की स्थापना करना।
हिन्दू जाति को फिर से तेज प्रदान करके गोस्वामी तुलसीदास ने प्रत्यक्ष एवं परोक्ष दोनों प्रकार से सम्पूर्ण मानव जाति पर उपकार किया है।
इस लेख में हिन्दू परम्परा के अनुसार विक्रम संवत् की तिथियां प्रयुक्त की गई हैं तथा कहीं-कहीं विक्रम संवत् के साथ शक संवत् (शकारि संवत) भी दिया गया है। विक्रम संवत् में से प्रायः 57 घटाने पर ईस्वी सन् प्राप्त हो जाता है। कुछ मामलों में यह अंतर 57 के स्थान पर 56 होता है।
भ्रांतियाँ, भ्रांतियाँ और भ्रांतियाँ
भारत राष्ट्र ही नहीं, सम्पूर्ण मानव सभ्यता के इतने महत्वपूर्ण कवि एवं दार्शनिक होने पर भी गोस्वामी तुलसीदास के जीवनवृत्त के सम्बन्ध में अनेक भ्रान्तियां प्रचलित हैं, यथा-
1. उनकी जन्म एवं मृत्यु की तिथि श्रावण शुक्ला सप्तमी है या श्रावण कृष्णा तीज शनि है?
2. गोस्वामी तुलसीदास का जन्म विक्रम संवत् 1554, 1560, 1568, 1583, 1587 और 1600 में से कौन-सा है?
3. उनकी जन्मभूमि सोरों है या राजापुर?
4. वे सनाढ्य थे या कान्यकुब्ज अथवा सरयूपारीय?
5. उनका आस्पद दुबे था, शुक्ल था या मिश्र?
6. उनके पिता का नाम आत्माराम दुबे था, मुरारी मिश्र था या अनूप शर्मा?
7. गोस्वामी तुलसीदास के बचपन का नाम रामबोला था, या तुलाराम?
8. उनके गुरु के रूप में पांच व्यक्तियों के नाम सामने आते है- राघवानंद, जगन्नाथ दास, शेष सनातन, नरसिंह और नरहरिदास, सही नाम कौनसा है?
9. तुलसीदासजी का एक विवाह हुआ था या तीन विवाह हुए थे?
और भी न जाने कितने विवाद और कितनी भ्रान्तियां उनके साथ जोड़ दिए गए हैं!
भ्रांतियों का निवारण
अनेक देशी-विदेशी विद्वानों ने तुलसीदासजी के जीवनवृत्त से सम्बन्धित भ्रान्तियों का निवारण करने के प्रयास किए हैं। उनमें हनुमान प्रसाद पोद्दार एवं आचार्य वेदव्रत शास्त्री प्रमुख हैं।
पोद्दारजी द्वारा तैयार किया गया तुलसीदासजी का जीवन वृत्त गीताप्रेस गोरखपुर से प्रकाशित रामचरित मानस के विभिन्न संस्करणों में मिलता है। यह जीवनवृत्त विभिन्न ग्रंथों एवं लोककिंवदन्तियों के आधार पर तैयार किया गया है।
आचार्य वेदव्रत शास्त्री ने तुलसीदासजी के जीवनवृत्त को भ्रांतियों के कुहासे से बाहर निकालने के लिए 60 वर्ष तक निरंतर शोध किया। इस दौरान उन्होंने वसीयतनामों, रत्नावली चरित, अष्टसखामृत, तुलसी प्रकाश, दोहा रत्नावली, शूकरक्षेत्र माहात्म्य, ब्रिटिश गजेटियर्स एवं विभिन्न अभिलेखों आदि का अध्ययन किया।
वेदव्रत शास्त्री ने इस शोधकार्य को अपने ग्रंथ ‘तुलसी जीवनवृत्त-तर्क और तथ्य’ में प्रस्तुत किया है। उनके द्वारा दिए गए प्रमाण एवं तर्क अत्यंत प्रभावशाली जान पड़ते हैं।
गोस्वामी तुलसीदास की जन्मतिथि
जॉर्ज ग्रियर्सन, डॉ. माताप्रसाद गुप्त, डॉ. चन्द्रबली पाण्डेय आदि अनेक विद्वानों ने गोस्वामीजी का जन्म संवत् 1589 में होना बताया है। वेणीमाधव दास और मानस मयंककार ने तुलसी का जन्मवर्ष संवत् 1554 माना है।
जगमोहन वर्मा ने तुलसी का जन्मवर्ष संवत् 1560 और शिवसिंह सेंगर ने तुलसीदासजी का जन्मवर्ष संवत् 1583 माना है। डॉ. विल्सन, गौतम चन्द्रा और चौधरी छुन्नी सिंह ने तुलसी का जन्मवर्ष संवत् 1600 माना है।
पं. वेदव्रत शास्त्री ने इन समस्त जन्मवर्षों को भ्रामक बताया है तथा तुलसीदासजी का जन्म शक संवत् 1433, तदनुसार श्रावण शुक्ला सप्तमी, शुक्रवार, संवत् 1568 विक्रम (ई.1511) को विशाखा नक्षत्र के द्वितीय चरण में होना स्वीकार किया है।
पं. वेदव्रत शास्त्री अपनी मान्यता के समर्थन में दो प्रमाण देते हैं-
(1) संवत् 1667 में अविनाश राय लिखित ग्रंथ ‘तुलसी प्रकाश’ में तुलसी का जन्म संवत् 1568 श्रावण शुक्ला सप्तमी, शुक्रवार विशाखा नक्षत्र (शक संवत् 1433) बताया गया है, जो ज्योतिष की गणना के अनुसार सर्वथा शुद्ध है।
अविनाश राय तुलसीदासजी के समकालीन थे और उनके अच्छे मित्र थे। ग्रंथ के अन्त में स्वयं कवि ने लिखा है कि वे तुलसी से कई बार मिले थे।
(2) माताप्रसाद गुप्त जो कि तुलसीदासजी की जन्मतिथि दूसरी मानते हैं, अविनाश राय के ग्रंथ को प्रामाणिक मानते हैं। वेदव्रत शास्त्री लिखते हैं कि किसी प्रामाणिक ग्रंथ की एक बात प्रामाणिक और दूसरी बात अप्रामाणिक कैसे हो सकती है?
गोस्वामी तुलसीदास का जन्मस्थान
एच. एच. विल्सन और गासा द तासी ने चित्रकूट के निकट हाजीपुर को तुलसी का जन्मस्थान माना है। एफ. एस. गाउज ने हस्तिनापुर को तुलसी की जन्मस्थली बताया। सर जॉर्ज आर्थर ग्रियर्सन तथा सीताराम शरण सोरों क्षेत्रवर्ती तारी गांव को तुलसीदास का जन्मस्थान मानते हैं।
रजनीकान्त शास्त्री ने काशी को गोस्वामी तुलसीदास की जन्मस्थली सिद्ध किया है। डॉ. चन्द्रबली पाण्डेय ने अयोध्या को तुलसी की जन्मभूमि कहा है और आचार्य रामचन्द्र शुक्ल, मिश्रबन्धु तथा शिवसिंह सेंगर ने राजापुर को मान्यता दी है।
पं. वेदव्रत शास्त्री ने तुलसी का जन्मस्थान गंगा के तटवर्ती शूकर क्षेत्र (सोरों) के जिला एटा स्थित रामपुर गांव के जोगमार्ग मोहल्ले में होना स्वीकार किया है। उन्होंने अनेक मतों, तथ्यों, तर्कों एवं प्रमाणों से सोरों को गोस्वामी तुलसीदास की जन्मभूमि सिद्ध किया है।
बहुत से विद्वान सोरों तथा शूकर क्षेत्र को भी अलग-अलग मानते हैं। पं. वेदव्रत ने रामचरित मानस, वाराह पुराण, नारदीय महापुराण, पृथ्वीराज रासो, आइने अकबरी आदि ग्रंथों एवं कुछ शिलालेखों के प्रमाण देकर शूकर क्षेत्र को ही सोरों बताया है।
वेदव्रत शास्त्री ने लिखा है कि ई.1923 से ही गोस्वामी तुलसीदास का जन्मस्थान राजापुर पूरी तरह से मान्य हो गया था किन्तु किसी भी विद्वान ने इस बात पर विचार नहीं किया कि गोस्वामी तुलसीदास का जन्म यदि राजापुर में हुआ तो वे बचपन में ही सोरों कैसे पहुँच गए।
यदि वे विद्याध्ययन के लिए सोरों गए, तो राजापुर की अपेक्षा काशी और अयोध्या समीप थे और कई रामभक्त विद्वान आचार्य एवं सन्त-महात्मा वहाँ शिक्षा देने के लिए उपलब्ध थे?
गोस्वामी तुलसीदास के माता-पिता
बहुत से विद्वान तुलसीदासजी के माता-पिता के बारे में भी अलग-अलग मत रखते हैं किंतु पं. वेदव्रत शास्त्री ने शूकर क्षेत्र (सोरों) के जिला एटा स्थित रामपुर गांव के जोगमार्ग मोहल्ले में रहने वाले सनाढ्य ब्राह्मण पं. आत्माराम शुक्ल को तुलसीदासजी का पिता तथा आत्माराम शुक्ल की भार्या हुलसी को तुलसी की माता माना है।
कुछ विद्वानों के अनुसार तुलसीदासजी के पिता का नाम आत्माराम दुबे थो जो कि सरयूपायी ब्राह्मण थे। तुलसीदासजी ने कवितावली में अपने कुल को मंगन कुल लिखा है जो उनके ब्राह्मण कुल में जन्मने की पुष्टि करता है-
जायो कुल मंगन बधावनों बजायो सुनि
भयो परिताप पाप जननी जनक को।
विनय पत्रिका में उन्होंने अपने कुल को सुकुल अर्थात् अच्छा कुल लिखा है जिसका आशय भी ब्राह्मण कुल से है-
दियो सुकुल जन्म शरीर सुंदर हेतु जो फल चारि को।
जो पाई पण्डित परम पद पावत पुरारि मुरारि को।
गोस्वामी तुलसीदास का बाल्यकाल
गोस्वामीजी का बाल्यकाल अत्यंत कठिन था। माँ उन्हें जन्म देने के कुछ समय बाद ही मृत्यु को प्राप्त हुई और पिता की छाया भी जल्दी ही छिन गई। इस पीड़ा को तुलसीदासजी ने इस प्रकार व्यक्त किया है-
मातु पिता जग जाय तज्यो, बिधिहू न लिखी कछु भाल भलाई।
नीच, निरादर-भाजन, कादर, कूकर टूकन लागि ललाई।।
बाल्यकाल में पेट भरने के लिए गुर्सांजी को भीख तक मांगनी पड़ी। अपने जीवन काल की इस व्यथा को गोस्वामीजी ने इस प्रकार व्यक्त किया है-
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टूकनि को घर घर डोलत कंगाल बोलि
बाल ज्यों कृपाल नतपाल पालि पोसो है।
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बालपने सूधे मन राम सनमुख भयो
राम नाम लेत मांगि खात टूक टाक हों।
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असन बसन हीन विषम विषाद लीन
देखि दीन दूबरो करै न हाय-हाय को।
गोस्वामी तुलसीदास के गुरु
जब बालक तुलसीदास केवल आठ वर्ष के थे, तब उनकी भेंट संत नरहरि से हुई। गोस्वामीजी ने अपने गुरु को अपने शिष्य पर कृपा करके उसके अज्ञान रूपी दैत्य का वध करने वाला नरहरि (नृसिंह) बताया है। नरहरि श्रीसम्प्रदाय के संस्थापक श्रीरामानुजाचार्य की शिष्य परम्परा के आचार्य रामानंद के शिष्य थे।
रामानंद के शिष्यों में नरहरि के साथ पीपा, रैदास, कबीर तथा धन्ना जैसे उस युग के अनेक विख्यात विष्णुभक्त संत थे। गुरु नरहरि ने आषाढ़ शुक्ल 15 बुधवार संवत् 1576 विक्रम से तुलसीदासजी का विद्याध्ययन प्रारंभ किया।
गोस्वामी तुलसीदास का विवाह
संवत् 1587 में बदरिया निवासी दीनबन्धु पाठक की कन्या रत्नावली से तुलसीदासजी का विवाह हुआ। चार वर्ष बाद गौना हुआ। गौने के दो वर्ष बाद कार्तिक शुक्ल 10 बुधवार को एक पुत्र का जन्म हुआ, जिसका नाम तारक (तारापति) रखा गया, जो 3 वर्ष 2 माह बाद दिवंगत हो गया।
दाम्पत्य जीवन का त्याग
लोकमान्यता है कि तुलसीदासजी अपनी पत्नी पर अत्यंत अनुरक्त थे। एक बार तुलसीदासजी घर से बाहर गए हुए थे, तब उनकी अनुपस्थिति में रत्नावली अपने भाई शंभुनाथ के साथ अपने मायके (बदरिया) चली गईं जहाँ 11 दिन के लिए भगवत्-कथा का आयोजन था।
पत्नी के विरह में विह्वल तुलसीदास बरसाती नदी पार करके उसी रात ससुराल पहुंच गए। इस घटना के साथ अनेक किम्वदन्तियाँ भी जुड़ गई हैं। ऐसी ही एक किम्वदंति का उल्लेख करते हुए रानी कमलकुंवरी देव ने ‘गोस्वामी तुलसीदासजी का काव्य और जीवन चरित’ में लिखा है-
बनिता से अति प्रेम लगायो। नैहर गई सोच उर छायो।।
सुरसरि पार गए घबराई। एक मुर्दा की नाव बनाई।।
अपने पति को ऐसी स्थिति में, इतनी व्यग्रता के साथ, भीषण वर्षा एवं रात्रिकाल में आया देखकर रत्नावली को बड़ी ग्लानि हुई। उन्होंने रूखे स्वर में तुलसीदासजी को फटकार लगाते हुए स्त्री से प्रेम करने के स्थान पर भगवान से प्रेम करने की बात कही। श्री भक्तमाल सटीक एवं भक्ति सुधास्वाद तिलक में लिखा है-
काम वाम की प्रीति जग, नित नित होत पुरान।
राम प्रीति नित ही नई, वेद पुरान प्रमान।।
लाज न लागत आपको, दौरे आयहु साथ।
धिक् धिक् ऐसे प्रीति को, कहा कहौं मैं नाथ।।
अस्थि चर्ममय देह मम, तामें ऐसी प्रीति।
तैसी जौ श्रीराम महँ, होति न तौ भवभीति।।
पत्नी की इस फटकार का तुलसी के मन पर गहरा प्रभाव पड़ा। वे मानो गहरी नींद से जागे और उनकी मनोदशा पलट गयी। वे मन ही मन आजीवन प्रभु-भक्ति का व्रत लेकर उलटे पाँव अपने घर लौट आए। वे वैरागी हो गए और उन्होंने दाम्पत्य जीवन तथा घर-गृहस्थी का त्याग करके वैराग्य धारण कर लिया। वेणी माधवदास ने ‘मूल गुसाई चरित’ में और रघुबरदास ने ‘तुलसी चरित’ में इस वृत्तांत का उल्लेख किया है।
तुलसीदासजी के वैरागी होने की घटना संवत् 1604 की बताई जाती है। उस समय रत्नावली की उम्र 27 वर्ष थी। रत्नावली ने तुलसीदासजी को मनाने एवं उनका रोष शांत करने के बहुत प्रयास किए किंतु तुलसी अब रामप्रेम के पथ पर पैर धर चुके थे तथा पीछे नहीं मुड़ना चाहते थे। उन्होंने घर लौटने से मना कर दिया।
वैरागी होने के सम्बन्ध में संभवतः उन्होंने अपने गुरु से मार्गदर्शन भी प्राप्त किया। तुलसी बाबा रामचरित मानस में लिखते हैं-
एहि विधि सब संसय करि दूरी। सिर धरि गुर पंकज धूरी।
रामभक्ति
गोस्वामी तुलसीदास ने दास्यभाव की भक्ति की। उन्होंने भगवान राम को अपना स्वामी तथा स्वयं को उनका सेवक माना-
तुलसी सरनाम गुलामु है राम को।
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राम सों बड़ो है कौन, मो सों कौन छोटो
राम सों खरो है कौन, मो सों कौन खोटो।
सूरदासजी से भेंट
नन्ददास तुलसी के छोटे चचेरे भाई थे, जो अष्टसखा में परिगणित हुए। उनके माध्यम से तुलसीदासजी की मथुरा के निकट पारसौली ग्राम में सूरदासजी से भेंट हुई। यहीं गोस्वामीजी ने ‘कृष्ण गीतावली’ लिखी।
तीर्थयात्रा
तुलसीदासजी ने अनेक तीर्थों की यात्रा की तथा अनेक संतों से भेंट की। मान्यता है कि राजवी अहीर जो बाद में राजा साधु के नाम से विख्यात हुआ, की प्रेरणा से तुलसीदासजी ने राजापुर गांव बसाया।
रामचरित मानस की रचना
संवत् 1620 में तुलसीदासजी ने काशी में जाकर निवास किया। यहाँ वे संवत् 1628 तक रामकथा से सम्बन्धित छन्दों की रचना करते रहे। चैत्र शुक्ला नवमी संवत् 1631 मंगलवार को उन्होंने रामकथा को ‘रामचरितमानस’ के रूप में क्रमबद्ध लिखना आरम्भ किया। रामचरित मानस में गोस्वामीजी ने लिखा है-
संवत सोरह सै एकतीसा। करउं कथा हरि पद धरि सीसा।।
नौमी भौम बार मुधमासा। अवध पुरी यह चरित प्रकासा।।
मान्यता है कि उसी वर्ष ज्येष्ठ कृष्णा 6 को यह ग्रंथ पूर्ण हुआ। रामचरित मानस जैसे विशाल ग्रंथ के लेखन के लिए ढाई-तीन माह की अवधि बहुत कम लगती है, अवश्य ही इस कार्य में अधिक समय लगा होगा।
उस समय समाज में यह धारणा फैली हुई थी कि उत्तम धार्मिक ग्रन्थों की रचना देववाणी अर्थात संस्कृत में ही की जानी चाहिए। तुलसीदासजी ने धारणा को स्वीकार नहीं किया। उनके अनुसार लोकभाषा में लिखी गई रचना ही जन-जन तक पहुंच सकती है, अन्यथा वह शिक्षित वर्ग तक ही सीमित रह जाती है। इस सम्बन्ध में उन्होंने लिखा है-
का भाषा का संस्कृत, प्रेम चाहिए साँच।
काम जु आवै कामरी, का लै करीअ कुमाच।
विनय पत्रिका एवं पार्वती मंगल आदि की रचना
तुलसीदासजी ने अयोध्या, काशी एवं प्रयाग में रहते हुए विनय पत्रिका और पार्वती मंगल आदि ग्रंथों की रचना की।
हनुमान बाहुक की रचना
काशीवास के दिनों में तुलसीदासजी की बांह में बालतोड़ की भयंकर पीड़ा हुई। बाहुपीड़ा की शान्ति के लिए उन्होंने हनुमान बाहुक लिखा। यह घटना संवत् 1664 की है।
रामचरित मानस पर विवाद
रामचरित मानस की लोकप्रियता के कारण परम्परावादी आचार्यों और पण्डितों के मन में तुलसी के प्रति द्वेषभाव उत्पन्न हुआ। वे दल बाँधकर रामचरित मानस की निन्दा करने लगे तथा उसे नष्ट करने का प्रयास करने लगे। अपने कुचक्रों को तुलसी पर सफल न होते देखकर पण्डितों ने सुप्रसिद्ध विद्वान् श्री मधुसूदन सरस्वती से कहा कि तुलसी के रामचरितमानस को पढ़कर उस पर अपनी सम्मति दें।
मधुसूदन सरस्वती ने उस पर अपने हाथों से लिखा-
आनन्दकानने कश्चिज्जंमस्तुलसी तरुः।
कविता मंजरी भाति रामभ्रमर भूषिता।।
अर्थात- रामचरितमानस रूपी आनन्दवन में तुलसी रूपी एक चलने-फिरने वाला पौधा है जिसकी कविता रूपी मंजरी राम रूपी भँवरे से सुशोभित है।
काशिराज महाराज ईश्वरी प्रसाद नारायाणसिंह ने इस श्लोक का हिन्दी अनुवाद इस प्रकार किया है-
तुलसी जंगम तरु लसै, आनंद कानन खेत।
कविता जाकी मंजरी, राम भ्रमर रस लेत।।
आज भी बहुत से क्षुद्र बुद्धि लोग रामचरित मानस के मूल भावों को न समझकर बौद्धिक वितण्डा खड़ा करते हैं तथा अनावश्यक आलोचना करने से नहीं चूकते।
उपेक्षा एवं उपहास
बहुत से समाजकंटक तुलसीदासजी की प्रतिभा एवं प्रसिद्धि को देखकर ईर्ष्या करते थे। इस कारण वे तुलसीदासजी को उपेक्षित और अपमानित करते तथा उनका उपहास करते। गोस्वामीजी उन्हें धैर्यपूर्वक सहन करते थे। इस सम्बन्ध में गोस्वामी तुलसीदास ने लिखा है-
कासों कीजे रोषु, दोषु दीजे काहि, पाहि राम।
जो लोग तुलसीदासजी का उपहास करते थे, उन्हें उत्तर देते हुए वे कवितावली में कहते हैं-
धूत कहौ, अवधूत कहौ, रजपूत कहौ, जोलहा कहौ कोऊ।
काहू की बेटी सों, बेटा न ब्याहब, काहू की जाति बिगार न सोऊ।
तुलसी सरनाम गुलामु है राम को, जाको रुचौ सो कहै कछु ओऊ।
मांगिके खइबो, मसीत को सोइबो। लैबे को एक न दैबे को दोऊ।।
तुलसीदास ने बाल्यकाल में माता-पिता से अलग होकर कष्ट पाया, किशोरावस्था में गुरुकृपा से शिक्षा पाई तथा युवावस्था में गृहस्थी छोड़कर राम गुण गाया। वे अपने जीवन से तथा रामभक्ति के मार्ग से अत्यंत संतुष्ट थे। इस सम्बन्ध में उन्होंने लिखा है-
नामु राम को कलपतरु कलि कल्यान निवासु,
जो सुमिरत भयो भाँग तें तुलसी तुलसीदासु।
गोस्वामी तुलसीदास का निधन
संवत् 1680 (ई.1623) में श्रावण शुक्ल सप्तमी के दिन काशी के असी घाट पर तुलसीदासजी की देह छूटी। यदि उनका जन्मवर्ष संवत् 1568 विक्रम (ई.1511) में स्वीकार किया जाए तो उनकी आयु 112 वर्ष बैठती है किंतु उनकी आयु के सम्बन्ध में यह कहावत भी कही जाती है- ‘पांच बीस अरु बीस।’ अर्थात् गोस्वामीजी ने 120 वर्ष की दीर्घायु प्राप्त की।
केवल कवि नहीं, लोकनायक भी
भारतीय भाषाओं के सुप्रसिद्ध विद्वान जॉर्ज ग्रियर्सन ने तुलसीदास को केवल कवि न मानकर ‘लोकनायक’ माना है। उनकी दृष्टि में तुलसी दर्शनशास्त्र, समाजशास्त्र, मनोविज्ञान, राजनीति और कूटनीति में पूर्ण निष्णात थे। लोकनायक की भूमिका में गोस्वामीजी के योगदान को समझने के लिये उनके युग और तत्कालीन परिस्थितियों पर विचार करना आवश्यक है।
जब किसी काव्य-कृति में कालजयी रचना होने के तत्व दिखाई देते हैं तो लोग कहते हैं ईश्वर करे, इस रचना को रामकथा की उम्र प्राप्त हो। इस कहावत से समझा जा सकता है कि तुलसी का काव्य कालजयी है। समय के सोपान तुलसी की कीर्ति में अवरोध उत्पन्न नहीं कर सकेंगे।
तुलसी एवं उनके काव्य का मूल्यांकन करते हुए बेनी कवि ने लिखा है-
भारी भवसागर उतारतो कवन पार
जो पै यह रामायन तुलसी न गावतो।
रत्नावली की पीड़ा
तुलसीदासजी की पत्नी रत्नावली ने कभी नहीं चाहा होगा कि उनके जीवन में ऐसी घटना घटे कि उन्हें अपने पति से अलग होकर जीवन व्यतीत करना पड़े किंतु उन्हीं के मुख से निकले शब्दों से आहत होकर तुलसीदासजी ने गृहत्याग किया था।
तुलसीदासजी की तरह रत्नावली ने भी अपनी शेष आयु ईश्वरोपासना, काव्य रचना, स्त्री-शिक्षा आदि कामों में व्यतीत की। अपने शब्दों की तीव्रता के लिए रत्नावली को आजीवन दुःख रहा।
संवत् 1651 में 74 वर्ष की आयु पाकर रत्नावली ने साकेत धाम के लिए प्रयाण किया। रत्नावली ने अपने लिखे एक पद में अपने मन की पीड़ा को इस प्रकार व्यक्त किया है-
प्रियतम नाथ बेगि घर आओ।
तव वियोग दावानल तापित मम उर आय सिरावौ ।।
तनक होत दुख कबहुं मोर तन, तुम अति होत दुखारी।
करत विविध उपचार हरत दुख रहे सदा सहचारी।।
केतिक रैनि दिवस अब बीते, हों दुख पावति भारी।
अस कस निठुर भये निरमोही, तुम निज बानि बिसारी।।
छमहु दोष अज्ञात ज्ञात सब, मोहि आपनी जानी।
तजहु रोष उर द्रवहु दया करि, निज पद दासी मानी।।
जीवनधन तुम सरबस मेरे, जग इक आस तिहारी।
मो रत्नावली उभय लोक गति, पति तुम ही दुख हारी।।
-डॉ. मोहनलाल गुप्ता