खुर्रम ने दाराबखाँ को रोहतास से दक्षिण के मोर्चे पर जाने के आदेश दिये। दाराबखाँ रोहतास से निकल कर लगभग सौ कोस ही आगे गया होगा कि उसे अब्दुर्रहीम के कैदी हो जाने के समाचार मिले।
अब्दुर्रहीम को दुबारा कैदी बनाये जाने पर दाराबखाँ को मुगलों से घृणा हो गयी। उसके फरिश्ते जैसे निर्दोष और पाक दामन बाप को पहले तो खुर्रम ने और अब परवेज ने कैद कर लिया था। दोनों ही बार अब्दुर्रहीम का दोष क्या था?
उस बार खुर्रम ने अब्दुर्रहीम पर दोष धरा था कि अब्दुर्रहीम महावतखाँ से मिल गया है। जबकि महावतखाँ ने अब्दुर्रहीम की ओर से जाली पत्र लिखकर खुर्रम के आदमियों के हाथों पकड़वाया और खुर्रम ने उस पत्र को असली जानकर अब्दुर्रहीम तथा दाराबखाँ को कैद में डाल दिया।
इस बार परवेज ने अब्दुर्रहीम पर दोष धरा कि उसका पुत्र दाराबखाँ खुर्रम की सेवा में है इसलिये अब्दुर्रहीम को खुला छोड़ना मुगलों के हित में नहीं है। अब्दुर्रहीम स्वतंत्र रहे तो इसलिये कि उसमें मुगलों का हित है! अब्दुर्रहीम बंदी रहे तो इसलिये कि उसमें मुगलों का हित है! क्या मुगलों का हित ही सर्वोपरि है? जिस अब्दुर्रहीम के दमखम पर यह मुगलिया सल्तनत खड़ी हुई, उस अब्दुर्रहीम का अपना हित-अनहित कुछ नहीं?
यदि दाराबखाँ खुर्रम की सेवा में था तो इसमें अब्दुर्रहीम का क्या दोष था? जब अब्दुर्रहीम खुर्रम के पक्ष में था तब मनूंचहर भी तो परवेज के पास था! उस समय परवेज ने मनूंचहर को दण्डित क्यों नहीं किया? क्या केवल इसलिये कि तब अब्दुर्रहीम को कमजोर करने के लिये मनूंचहर को अपने पक्ष में रखा जाना मुगलों के हित में था!
खुर्रम ने भी तो जहाँगीर से बगावत की! उसका दण्ड जहाँगीर को तो नहीं दिया जा सकता! उसी तरह दाराबखाँ के बागी हो जाने का दण्ड अब्दुर्रहीम को क्यों?
दाराबखाँ इन्हीं सब बातों पर बारम्बार विचार करता हुआ फिर से अपने कुटुम्ब को एक जगह एकत्र करने और इस बिखराव से बाहर निकलने के उपाय के बारे में सोचता ही था कि खुर्रम का संदेश वाहक उसकी सेवा में उपस्थित हुआ और कहा कि खुर्रम ने उसे गढ़ी में बुलाया है।
दाराबखाँ यह आदेश सुनकर चकरा गया। कहाँ तो उसे रोहतास[1] से खानदेश जाने के आदेश दिये गये थे और कहाँ अब उसे बीच मार्ग से ही उल्टी दिशा में बंगाल बुलाया जा रहा है!
दाराबखाँ को लगा कि जिस प्रकार परवेज ने अब्दुर्रहीम के साथ छल किया, उसी प्रकार खुर्रम भी दाराबखाँ के साथ छल करना चाहता है। अवश्य ही दाल में कुछ काला है। अतः खुर्रम के पास जाना उचित नहीं है।
दाराबखाँ को ज्ञात था कि इस समय परवेज भी बंगाल पर धावा करने की तैयारी में है। इसलिये बेहतर होगा कि दक्षिण को न जाकर बंगाल ही चला जाये ताकि परवेज से मिलकर खानााना को छुड़ाने के प्रयास किये जायें।
दाराबखाँ ने खुर्रम के संदेशवाहक से कहा कि शहजादे को कहना कि शहजादा खुद तो गढ़ी में बैठा है किंतु बंगाल के दूसरे इलाकों में इस समय जमींदारों का विद्रोह हो रहा है, उसे दबाना जरूरी है। इसलिये मैं जमींदारों का विद्रोह दबाने के लिये जाता हूँ जब अवसर होगा तो मैं शहजादे की सेवा में गढ़ी में हाजिर हो जाऊंगा।
खुर्रम ने दाराबखाँ को न आते देखकर दाराबखाँ के बेटे को पकड़ कर अब्दुल्लाहखाँ की देखरेख में रख दिया और स्वयं उड़ीसा के रास्ते दक्षिण को चल दिया।
परवेज ने भी बंगाल पर अधिकार करके महावतखाँ को बंगाल में नियुक्त किया और स्वयं खुर्रम के पीछे दक्षिण को प्रस्थान कर गया।
[1] रोहतास पूर्वी उत्तर प्रदेश में है।