खानखाना के दक्षिण से हटते ही दक्खिनियों के हौंसले बुलंद हो गये। वे एक जुट होकर खानेजहाँ लोदी में कसकर मार लगाने लगे। सल्तनत का विश्वस्त सेनापति अब्दुल्लाखाँ खानेजहाँ की सहायता के लिये भेजा गया किंतु वह हार कर गुजरात भाग आया। खाने आजम कोका भी बुरी तरह परास्त हुआ। रामदास कच्छवाहा और मानसिंह भी पीट दिये गये। फीरोज जंग भी मोर्चा छोड़कर गुजरात भाग आया। अली मरदानखाँ पकड़ा गया। शहजादा परवेज बुरहानपुर से बाहर ही नहीं निकल सका। मुगल सेनायें हर तरफ आग से घिर गयीं। स्थिति यह हो गयी कि मुगल जहाँ भी जाते थे, अपने आप को दक्खिनियों से घिरा हुआ पाते थे।
यह सब देखकर जहाँगीर की आँखें खुलीं। वह समझ गया कि पिछले अठारह साल से खानखाना दक्षिण में शांति बनाये बैठा था, वह किसी और के वश की बात नहीं। खानखाना के शत्रुओं ने खानखाना के विरुद्ध जो शिकायतें की थीं उनकी वास्तविकता जहाँगीर के सामने आ गयी। उसने खानखाना को प्रसन्न करना आरंभ किया। खानखाना का मनसब बढ़ाकर छः हजारी कर दिया। उसके बेटे एरच को तीन हजारी मनसब तथा शाहनवाजखाँ की उपाधि दी। खानखाना के नौकर फरेन्दूखाँ को ढाई हजारी जात, खानखाना के मित्र राजा बरसिंह को चार हजारी जात तथा रायमनोहर को एक हजारी जात का मनसब दिया।
खानखाना ने दक्षिण में पहुँच कर फिर से अपने मित्रों को एकत्र किया और पुरानी संधियों को पुनर्जीवित कर दिया। धीरे-धीरे आग बुझने लगी और मुगलों के हाथ से निकल गये समस्त पुराने क्षेत्र फिर से अधिकार में आ गये। इन सब दक्खिनियों से खानखाना ने कीमती रत्न प्राप्त करके जहाँगीर को भिजवाये। तीन माणिक, एक सौ तीन मोती, सौ याकूत, दो जड़ाऊ फरसे, मोतियों और याकूतों की जड़ी हुई किलंगी, जड़ाऊ झरझरी, जड़ाऊ तलवार, जड़ाऊ भुजबंद, हीरे की अंगूठी, मखमल की तरकश, पंद्रह हाथी तथा एक ऐसा घोड़ा भी इस भेंट में शामिल था जिसकी गर्दन के बाल धरती तक लटकते थे।
खानखाना के पुत्र शाहनवाजखाँ ने भी अपनी ओर से पाँच हाथी तथा तीन सौ अनुपम वस्त्र बादशाह को भेंट किये। जहाँगीर इस भेंट को पाकर बहुत प्रसन्न हुआ। वह समझ गया कि दक्षिण में आग बुझ चुकी है।