राजधानी से निकलने के बाद तीन साल बीत जाने पर भी शहजादा मुराद बादशाह अकबर को एक भी विजय की सूचना नहीं भेज पा रहा था इससे मुराद की बेचैनी बढ़ती जा रही थी। जब खानखाना ने अहमदनगर की सुलताना चाँद बीबी की ओर से प्राप्त प्रस्ताव मुराद के समक्ष रखा कि यदि मुराद अहमदनगर से चला जाये तो चाँद उसे बरार का समस्त क्षेत्र दे सकती है तो मुराद ने अकस्मात् हाथ आये इस विशाल क्षेत्र को लेने से गुरेज नहीं किया और उसने संधि पत्र पर हस्ताक्षर कर दिये।
इस संधि के हो जाने पर सुलताना ने खानखाना का बड़ा आभार व्यक्त किया। संधि हो जाने के बाद जब खानखना जालना के लिये रवाना होने लगा तो चाँद ने उसके सम्मान में बड़ा दरबार किया। अहमदनगर के अमीरों ने खानखाना को नजराने पेश किये और उसके प्रति बड़ा आभार व्यक्त किया।
खानखाना को गये हुए अभी कुछ ही दिन बीते होंगे कि मुराद ने संधि तोड़ दी और बराड़ से आगे बढ़कर पाटड़ी में भी अपना अमल कर लिया। इस पर दक्षिण के राजाओं को अपना भविष्य अंधकारमय दिखायी देने लगा। उन्हें लगा कि इस विपदा से अकेले रहकर मुकाबला नहीं किया जा सकता। इसके लिये उन्हें एकजुट होकर प्रयास करना पड़ेगा।
चाँद सुलताना ने अपने विश्वस्त सेनापति सुहेलखाँ को मुगलों का रास्ता रोकने के लिये लिखाँ आदिलशाह और कुतुबशाह ने भी अपनी-अपनी सेनाएं भेज दीं। उस वक्त मुराद शाहपुर में और खानखाना जालना में था। जब खानखाना को ये सारे समाचार मिले तो वह शहजादे के पास आया और उसे वचन भंग करने के लिये भला बुरा कहा। शहजादा उस समय तो खानखाना से कुछ नहीं बोला किंतु उसने मन ही मन खानखाना से पीछा छुड़ाने का निश्चय कर लिया।
मुराद स्वयं तो शाहपुर में ही बैठा रहा और उसने अपने आदमियों के साथ शहबाजखाँ कंबो, खानदेश के जागीरदार राजा अलीखाँ रूमी तथा खानखाना अब्दुर्रहीम को सुहेलखाँ पर चढ़ाई करने के लिये भेजा। मुराद के आदमियों ने मुराद के कहे अनुसार युद्ध की कपट पूर्ण व्यूह रचना की जिसका भेद बहुत कम आदमियों को मालूम था।
पहर भर दिन चढ़ने के बाद युद्ध शुरू हुआ। मुराद की योजनानुसार खानखाना की सेना को इस प्रकार नियोजित किया गया कि वह शत्रु सेना के तोपखाने की सीधी चपेट में आ जाये। खानखाना के गुप्तचरों को इस बात का पता नहीं चल सका। खानदेश के राजा अलीखाँ रूमी को जब इस बात का ज्ञान हुआ कि मुराद ने खानखाना को तोपखाने की चपेट में रखा है तो उसके होश उड़ गये। उसने अपने विश्वस्त आदमियों से कहा- ‘दोस्तो! मरने का दिन आ गया। आओ! मेरे पीछे आओ।’
अलीखाँ और उसके विश्वस्त आदमी अपना जीवन खतरे में डालकर तोपों की सीधी मार में खड़े खानखाना को बचाने के लिये दौड़ पड़े। उन्हें ऐन वक्त पर अपना स्थान छोड़ दौड़कर जाते हुए देखकर मुराद के आदमी गुस्से से चिल्लाने लगे कि धोखेबाज अलीखाँ शत्रु की शरण में जा रहा है।
राजा अलीखाँ ने उनकी परवाह नहीं की और किसी तरह खानखाना के पास जा पहुँचा। उसने कहा- ‘खानखाना! आपके मित्रों ने आपके साथ दगा की है। आपको जानबूझ कर ऐसी जगह रखा गया है। सारी आतशबाजी आपके बराबर चुनी हुई है। अभी उसमें आग दी जाती है। इस वास्ते जो आप दाहिनी ओर मुड़ जावें तो ठीक होगा।’
खानखाना तो तुरंत अपने आदमियों के सहारे उसी ओर मुड़ गया और राजा अलीखाँ रूमी उसके स्थान पर डट गया। जैसे ही खानखाना वहाँ से हटा, गनीम की तोपों को आग दिखाई गयी और सारा आकाश धुएँ से भर गया। यहाँ तक कि सूर्यदेव भी उस धुएँ से ढंक गये। कुछ पता नहीं चला कि कौन जीवित रहा और कौन मर गया। शत्रु की फौज राजा अलीखाँ को खानखाना समझ कर उस पर चढ़ बैठी। किसी को शत्रु मित्र की पहचान न रही। सब अमीर आपस में कट मरे। राजा अलीखाँ का भी काम तमाम हो गया। मुगलों की बड़ी भारी क्षति हुई। राजा जगन्नाथ अपने चार हजार सिपाहियों सहित मारा गया।
धुआँ छंटने पर खानखाना ने फिर से उसी स्थान पर धावा किया जिस स्थान पर उसने राजा अलीखाँ को छोड़ा था किंतु राजा अलीखाँ नहीं मिला। इसी दौरान रात हो गयी और दोनों ओर की सेनाएं अपनी-अपनी जीत समझ कर सारी रात रणक्षेत्र में खड़ी रहीं। कोई भी घोड़े की पीठ से नहीं उतरा।
दक्खिनी तो यह समझते रहे कि हमने खानखाना को मार डाला है और मुगल सेना यह समझती रही कि शत्रु पराजित हो कर भाग गया है। यह भाग्य अथवा प्रारब्ध का ही यत्न था कि जिस खानखाना को मार डालने के लिये उसके स्वामी ने षड़यंत्र रचा था, उसी खानखाना को बचाने के लिय सेवकों ने अपने प्राण न्यौछावर कर दिये।
सुबह होने पर खानखाना ने अपना नक्कारा बजाया और अपना नरसिंगा फूंका जिसे सुनकर मुगल सेना के जो सिपाही युद्ध से भाग कर इधर-उधर छिपे हुए थे, खानखाना से आ मिले। खानखाना ने किसी तरह राजा अलीखाँ के क्षत-विक्षत शव को ढूंढ निकाला। उस समय खानखाना और उसके आदमियों के पास कुल सात हजार सवार रह गये थे जबकि शत्रु सैन्य में पच्चीस हजार घुड़सवार मौजूद थे। इस पर दौलतखाँ लोदी ने खानखाना से कहा- ‘यदि मैं तोपखाने या हाथियों के सामने चढ़ कर जाऊंगा तो शत्रु तक पहुँचने से पहले ही मारा जाऊंगा इसलिये पीठ पीछे से धावा करता हूँ।’
इस पर खानखाना ने दौलतखाँ लोदी से कहा- ‘जो तू ऐसा करेगा तो दिल्ली का नाम डुबोवेगा।’
– ‘नाम को जीवित रखकर क्या करना है? यदि मैं जीवित रहा तो फिर से सौ दिल्लियाँ बसा लूंगा।’ यह कह कर दौलतखाँ आगे बढ़ गया।
दौलतखाँ लोदी के नौकर सैयद कासिम को खानखाना की नीयत पर शक हो गया। उसने दौलतखाँ के कान में फुसफुसा कर कहा- ‘खानखाना आपको मरवा डालने के लिये ऐसा कह रहा है।’
दौलतखाँ लोदी ने खानखाना की टोह लेने के लिये पूछा- ‘इतना बता दो खानखाना! यदि हार हो जावे और मैं किसी तरह शत्रु के हाथों से बचकर वापिस आऊँ तो आप कहाँ मिलेंगे?’
– ‘लोथों के नीचे।’ खानखाना ने जवाब दिया। इस जवाब से संतुष्ट होकर दौलतखाँ लोदी शत्रुओं पर धावा बोलने के लिये चला गया।
खानखाना समझ गया कि उसकी नीयत पर शक किया जा रहा है। मुगलों का संशय मिटाने के लिये उस दिन खानखाना ने ऐसी लड़ाई की कि मुराद और उसके सलाहकार दांतों तले अंगुली दबाकर देखने के सिवाय कुछ न कर सके। शत्रु पक्ष का सेनापति सुहेलखाँ विशाल सेना का स्वामी होने के बावजूद खानखाना की छोटी सेना से परास्त हो गया। खानखाना यह चमत्कार करने का पुराना जादूगर था। इसी जादू के बल पर वह मुगल सल्तनत का खानखाना बना था।
विजय प्राप्त होने पर खानखाना ने उस दिन पचहत्तर लाख रुपये और अपनी समस्त अन्य सम्पत्ति अपने सैनिकों में लुटा दी। दक्खिनियों के चालीस हाथी और तोपखाना खानखाना के हाथ लगे जो उसने मुराद को सौंप दिये।
उस शाम मुगल सेना में चारों ओर विजय का उत्सव था। सिपाही छक कर शराब पीते थे और रक्कासाओं के साथ नगाड़ों की धुन पर घण्टों नाचते थे किंतु शायद ही कोई जान सका कि विजयी सेनापति खानखाना अब्दुर्रहीमखाँ अपने डेरे में मुँह पर कपड़ा बांध कर जार-जार रो रहा था। उसके पास राजा अलीखाँ रूमी का क्षत-विक्षत शव रखा था। राजा अली खाँ बेर-केर के विपरीत संग के कारण मौत के उस विकराल मुँह में चला गया था, जहाँ से उसे लौटा कर लाना किसी के वश में नहीं था, यहाँ तक कि खानखाना के वश में भी नहीं।