जिस प्रकार बारहमूला काश्मीर का दरवाजा है और जिस प्रकार गढ़ी बंगाल का दरवाजा है ठीक उसी प्रकार सहवान सिंध का दरवाजा है। सिंधु नद[1] इस देश की जीवन रेखा है। सहवान का विख्यात दुर्ग इसी नदी के तट पर स्थित था। सिंधु नदी इस दुर्ग को तीन तरफ से घेरती थी। दुर्ग एक ऊँचे टीले पर विद्यमान था।
ई. 1590 में अकबर ने खानखाना को कंधार पर आक्रमण करने का आदेश दिया। मुगल साम्राज्य के पैंतालीस बड़े सेनापति उसके साथ भेजे गये। कंधार किसी जमाने में अब्दुर्रहीम के पिता खानखाना बैरामखाँ के अधिकार में था किंतु बाद में ईरान के शाह को प्रदान कर दिया गया था। अब ईरान का बादशाह कमजोर हो चुका था और उसके लिये कंधार पर पकड़ बनाये रखना मुश्किल होता जा रहा था। दूसरी ओर तूरान का बादशाह कंधार पर आँख गढ़ाये हुए था। इन परिस्थितियों को देखकर अकबर ने कंधार को फिर से मुगलिया सल्तनत में शामिल करने का विचार किया और अब्दुर्रहीम को कंधार के लिये रवाना किया।
मार्ग में अब्दुर्रहीम ने विचार किया कि कंधार जैसे निर्धन देश के लिये अपनी शक्ति और श्रम व्यय करना व्यर्थ है। इससे तो ठठ्ठा पर आक्रमण करना अधिक उचित है। ठठ्ठा विजय के पश्चात् सिंध विजय का मार्ग भी सुगम हो जायेगा, जहाँ से कुछ न कुछ धन अवश्य प्राप्त किया जा सकता है। यह सोचकर अब्दुर्रहीम ठठ्ठा की ओर रवाना हुआ किंतु इसी बीच सिंध से खबर आई कि सहवान के दुर्ग में आग लग गयी है और दुर्ग के भीतर रखा धान व चारा जल कर भस्म हो गया है।
इस पर खानखाना ने अपनी एक सेना जलमार्ग से और एक सेना स्थल मार्ग से भेज कर सहवान को घेर लिया। सिंध पर विजय प्राप्त करना आसान कार्य न था। इसलिये उसने जैसलमेर से रावल भीम और बीकानेर से राव दलपत राठौड़ को भी अपनी मदद के लिये बुलवा लिया। जब अपना बल पूरा हो गया तो अब्दुर्रहीम ने अपनी फौज रात के अंधेरे में नावों में बैठाकर सहवान के दुर्ग की ओर रवाना कर दी। बहुत सी पैदल सेना हथियार लेकर नदी में उतर गयी। मुगल सेना ने रात भर में दुर्ग को चारों ओर से अच्छी तरह घेर लिया और बड़े तड़के ही तोपों से जलता हुआ बारूद फैंकने लगी।
सिंधियों ने अपना देश बचाने का भरसक प्रयास किया किंतु वे दुर्ग में सुरक्षित होने के बावजूद मुगल सेना के समक्ष बिल्कुल कमजोर साबित हुए। इसका मुख्य कारण यह था कि सिंधी लोग यद्यपि मुसलमान हो गये थे किंतु अब भी वे प्राचीन आर्य पद्धति से ही युद्ध करते थे तथा युद्ध में भी अपनी नैतिकता को बनाये रखते थे जिसके तहत रात्रि में आक्रमण न करना, छल से वार न करना और पीठ पर हथियार न मारना शामिल था। जबकि मुगल सेना प्राचीन आर्य पद्धति में विश्वास नहीं करती थी, वह रात्रि में आक्रमण करने से नहीं हिचकती थी।
विजय प्राप्त करने के लिये मुगल सेना किसी भी सीमा तक छल कर सकती थी। यहाँ तक कि शरण में आये हुए, निहत्थे, कमजोर, रण छोड़कर भागते हुए तथा अंग-भंग हुए शत्रु पर भी वार करती थी। पीठ पर वार करना तो मुगल सेना का परमधर्म था। इस कारण सिंधी वीर होने के बावजूद विजय प्राप्त नहीं कर सके।
सहवान का दुर्ग गिरते देखकर उसका दुर्गपति मिरजा जानी समय रहते वहाँ से निकल गया और ठठ्ठे जा पहुंचा। अब्दुर्रहीम ने राजा टोडरमल के पुत्र धारू को उसके पीछे भेजा। मिर्जा जानी ने धारू को मार गिराया तथा मुगल सेना को काफी नुक्सान पहुँचाया। यह देखकर अब्दुर्रहीम क्रोधित होकर मिरजा जानी के पीछे लग गया। मिरजा जानी एक किले से दूसरे किले में भागता रहा किंतु खानखाना उसके पीछे लगा रहा। अंत में मिरजा जानी ने विस्तान का किला, सहवान का किला, बीस जंगी नाव और अपनी बेटी अब्दुर्रहीम को समर्पित कर दी। जब मिरजा जानी अब्दुर्रहीम की सेवा में उपस्थित हुआ तो बड़े भारी दरबार का आयोजन किया गया। इस दरबार में अब्दुर्रहीम के दरबारी मुल्ला शकेबी ने सिंध विजय पर एक कविता पढ़ी जिसमें कहा गया था- ‘जो हुमा[2] आकाश में उड़ा करता था, उसको तूने[3] पकड़ा और जाल से छोड़ दिया।’
इस पर अब्दुर्रहीम ने मुल्ला को एक हजार अशर्फियां इनाम में दीं। मिरजा जानी भी उसी समय एक हजार अशर्फियां निकाल कर मुल्ला को देने लगा। इस पर मुल्ला ने पूछा- ‘खानखाना ने इनाम दिया वह मेरी समझ में आता है किंतु तू क्यों देता है?’
– ‘रहमत खुदा की तुझ पर कि तूने मुझको हुमा कहा। जो गीदड़ कहता तो तेरी जीभ कौन पकड़ लेता? इसीसे इनाम देता हूँ।’
अब्दुर्रहीम ने अपने बेटे एरच का विवाह मिरजा जानी की बेटी से कर दिया और दोनों दुर्ग अपने अधिकार में ले लिये।
[1] जो नदियाँ अत्यधिक चौड़ी होती हैं, उन्हें प्राचीन काल में नद कहा जाता था। इस समय तक सिंधु नदी काफी क्षीण हो चुकी थी।
[2] एक पक्षी।
[3] रहीम ने।