– ‘महाराज जगन्नाथ!’ खानखाना ने अपने दरबार में उपस्थित कवि जगन्नाथ को सम्बोधित करके कहा।
– ‘जी हुजूर!’
– ‘तनिक इस पर पर विचार कीजिये और बताईये कि ये कैसा है?
अच्युतचरण तरंगिणि शशिशेखर-मौलि-मालती माले।
मन तनु वितरण-समये हरता देया न मे हरिता।। [1]
पूरा दरबार कवियों की वाहवाही से गूंज उठा। अब से पहले गंगा मैया पर रहीम ने कोई कविता नहीं पढ़ी थी।
– ‘खानखाना! जब तक कविवर जगन्नाथ आपके पद पर विचार करें, आप इस पद पर गौर फर्मायें।।’ केशवराय ने खड़े होकर जुहार की।
– ‘सुनाइये कविराय। आप भी सुनाईये। हमें मालूम है कि आप हमारी तारीफ की बजाय अपनी तारीफ सुनना अधिक पसंद करेंगे।’ खानखाना ने मुस्कुराकर केवशराय को अनुमति दी।
केशव ने गाया-
अमित उदार अति पाव विचारि चारु
जहाँ-तहाँ आदरियां गंगाजी के नीर सों
खलन के घालिबे को, खलक के पालिबे को
खानखानां एक रामचन्द्रजी के तीर सों।।[2]
एक बार फिर पूरा दरबार कवियों की वाहवाही से गूंज उठा।
– ‘खानखाना! अनुमति हो तो हम भी कुछ कहें।’ ये कवि गंग थे।
– ‘आप भी कहें कविवर। आपको कौन रोक सकता हैा!’ खानखाना ने हँस कर कहा।
– ‘तो सुनिए खानखाना। कवि गंग आपकी सेवा में अपना नव रचित छंद प्रस्तुत करता है-
चकित भँवर रहि गयो गमन नहिं करत कमलबन
अहि फनि-मनि नहिं लेत तेज नहिं बहत पवन घन।
हँस सरोवर तज्यो, चक्क चक्की न मिले अति
बहु सुंदरि पद्मिनी, पुरुष न चहें न करें रति।
खल भलित सेस कवि गंग भनि अतिम तज रवि रथ खस्यो।
खानखान बैरमसुवन जि दिन कोप करि तंग कस्यो।।[3]
कवि गंग ने इतने मधुर स्वर में यह कविता कही कि सुनने वाले मंत्र मुग्ध से कविता के साथ ही बह गये। खानखाना ने कवित्त के भाव, अर्थ और पद लालित्य पर विचार करते हुए उसी समय अपने कोश में से छत्तीस लाख रुपये कविगंग को प्रदान किये। उस पूरे काल में संभवतः किसी और कवि को इतना बड़ा पुरस्कार नहीं मिला था।
[1] हे गंगा! जब मेरी मृत्यु हो तो तुम्हारे किनारे पर हो। हे माता! मेरी मृत्यु हो तो मुझे विष्णु का सारूप्य न देना, शिव का सारूप्य देना ताकि तुम मेरे सिर और आँखों पर बनी रहो।
[2] यह कविता अब्दुर्रहीम की प्रशंसा में कही गयी है।
[3] हे खानखाना! बैरम के पुत्र! जिस दिन तून क्रोध करके अपना तूणीर कसा। उस दिन भौंरा चकित होकर कमलवन को जाना भूल गया। सर्पराज अपने फण पर मणि रखना भूल गया और घनी वायु ने अपनी गति कम कर ली। हंस ने सरोवर त्याग दिया और चकवे तथा चकवी ने अपना मिलन बिसार दिया। पुरुषों ने पद्मिनी स्त्रियों के साथ रति करने से मुँह मोड़ लिया। शेषनाग भी व्याकुल हो गये। कवि गंग कहता है कि सूर्य देव का रथ भी अपने मार्ग से विचलित हो गया।