आधी रात के बाद सीकरी में हा-हाकार मच गया। जहाँ देखो वहीं लंगूर। महलों, छतों और कंगूरों पर उत्पात मचाते हुए हजारों लंगूर अचानक ही जाने कहाँ से आ गये थे। सैंकड़ों वानर लाल-लाल मुँह के थे तो हजारों काले मुँह के। उनकी लम्बी पूंछों और विकराल दाँतों ने बच्चों और स्त्रियों को ही नहीं हट्टे-कट्टे पुरुषों को भी भय से त्रस्त कर दिया।
देखते ही देखते यह वानर सेना अत्यंत कुपित होकर महलों का सामान इधर से उधर फैंकने लगी। जो कोई साहस करके वानरों को भगाने का प्रयास करता था, वानर सेना उसी को घेर लेती और घूंसों और चपतों से उसकी हालत खराब कर डालती। किसी की कुछ समझ में नहीं आता था कि इन वानरों से कैसे छुटकारा पाया जाये।
निद्रा में खलल पड़ने से बादशाह भी उठ कर बैठ गया। उसने अपनी बंदूक निकाली और वानरों पर गोलियां दागने लगा किंतु यह देाख्कर उसके आश्चर्य का पार नहीं रहा कि बहुत गोलियां चलाने के बाद भी, एक भी वानर को गोली नहीं लगी।
जाने कितनी देर तक यह उत्पात चलता रहा। आखिर एक वानर बादशाह के हाथ से बंदूक छीनकर ले गया। बादशाह बेबस आदमियों की तरह देखता ही रह गया। थोड़ी देर बाद उसने देखा कि खानखाना दौड़ता हुआ आ रहा है। उसने कहा- ‘ इन वानरों को रोकना बहुत आवश्यक है जिल्ले इलाही।’
– ‘मगर कैसे? ये तो बन्दूक से भी नहीं मरते!’
– ‘ये बंदूक से नहीं मरेंगे शहंशाहे आलम! इन वानरों का उत्पात रोकने का एक ही उपाय है।’
– ‘तो उपाय करते क्यों नहीं?’
– ‘वह उपाय मेरे वश में नहीं।’
– ‘तो किसके वश में है?’
– ‘वह तो आपके ही वश में है।’
– ‘मैंने उपाय करके देख लिया। इन पर तो बारूद का भी असर नहीं होता।’
– ‘ये क्रुद्ध-विरुद्ध वानर हैं, बारूद से डरने वाले नहीं। ये तो अपने स्वामी के आदेश पर गुसांईजी को मुक्त करवाने आये हैं।’
– ‘कौन गुसांई?’
– ‘वही काशी के बाबा, जिन्हें शहजादे मुराद आपके आदेश से बंदी बना लाये हैं।’
– ‘सच कहते हो?’
– ‘जो आँखों से दिखता है, क्या वह भी सच नहीं है?’
– ‘ठीक है, हम भी उस बाबा को देखेंगे, अभी।’
अकबर उठ कर कारागार को चल पड़ा। खानखाना ने भी बादशाह का अनुसरण किया। थोड़ी ही देर में वे दोनों गुसाईंजी के समक्ष थे।
आगे-आगे अकबर और उसके पीछे-पीछे खानखाना ने कोठरी में प्रवेश किया। एक अद्भुत दृश्य उनके सामने था। अकबर ने देखा, उन्नत भाल पर प्रबल तेजपुंज धारण किये हुए एक गौर वर्ण ब्राह्मण आकाश की ओर हाथ उठाकर गा रहा था-
संकट कटै मिटै सब पीरा, जो सुमिरै हनुमत बल बीरा।
जै जै हनुमान गुसाईं, कृपा करहु गुरुदेव की नाईं।
जाने कैसा आलोक था जो ब्राह्मण के मुखमण्डल से निकल कर पूरी कोठरी में फैल रहा था!
आगंतुकों को देखकर गुसाईंजी ने पाठ रोक दिया।
अकबर ने कहा- ‘ब्राह्मण! जा मैं तुझे स्वतंत्र करता हूँ।’
अकबर का आदेश सुनकर गुसांईजी ने कहा-
‘जो सत बार पाठ करि कोई, छूटहि बंदि महासुख होईं
जो यह पढ़ै हनुमान चालीसा, होय सिद्धि साखी गौरीसा।’[1]
– ‘मैंने सुना है कि तू बड़ा चमत्कारी है और घमण्डी भी।’
– ‘चमत्कारी तो इस सृष्टि को बनाने वाला है सम्राट। हम सब तो उसके संकेत मात्र पर नृत्य करने वाली कठपुतलियाँ हैं। हम अपनी इच्छा से न तो किसी को मनसबदार बना सकते हैं और न कारावास दे सकते हैं।’ एक क्षण रुककर, ‘उमा दारू जोसित की नाईं। सबहि नचावत राम गुसाईं।’
गुसांईजी ने शांत स्वर से कहा और कारा से बाहर प्रस्थान कर गये। मंत्रमुग्ध सा अकबर उनके पीछे-पीछे आया। कारा से बाहर निकल कर अकबर ने कहा- ‘आप धन्य हैं महात्मा!’
गुसांईजी ने आकाश की ओर देखकर कहा-
‘हौं तो असवार रहौ खर कौ, तेरो ही नाम मोहि गयंद चढ़ायो।’
अकबर ने महल में लौट कर देखा, समस्त वानर महल त्याग कर जा चुके थे।
[1] मान्यता है कि गोस्वामी तुलसीदास ने अकबर की जेल से रिहाई के लिये हनुमान चालीसा की रचना की थी।