खानखाना का ऐसा ठाठ-बाट, अकूत सम्पदा और उसके दरबार की ऐसी निराली शान देखकर कई दुष्टों की छाती पर साँप लोट गये। कहाँ से लाया खानखाना यह सम्पदा? कहाँ से आये ये सारे साजो-सामान? कहाँ से आये इतने सारे लोग? सब कुछ रहस्यमय था।
ऐसा ठाठ-बाट और ऐसा रूआब तो शहंशाह अकबर के अतिरिक्त और किसी अमीर, उमराव एवं सरदार के पास न था। कजलबाश, चगताई, ईरानी और तूरानी अमीरों की छातियां ईर्श्या से दहकने लगीं। शहजादों की नाक में सलवटें पड़नी आरंभ हो गयीं।
उन्हें सबसे अधिक शिकायत इस बात से थी कि साधारण सिपाही के घर में जन्म लेने वाला रहीम हुमा का पर लगाकर दरबार करता है। भले ही उसका बाप खानखाना के पद तक जा पहुँचा हो किंतु था तो वह मूल रूप से एक साधारण सिपाही ही! इस तरह का दरबार करना तो शहजादों को भी नसीब नहीं था। फिर रहीम की ऐसी क्या हैसियत है?
जब आग जलती है तो धुंआ उसकी सूचना चारों ओर फैला ही देता है। जानने में रुचि न रखने वालों को भी आग की सूचना हो जाती है। रहीम के सम्बंध में भी यही हुआ। लोगों की छातियों में जलने वाली आग का धुंआ भी चारों ओर फैलने लगा और एक दिन बादशाह अकबर के महल तक जा पहुँचा।
बादशाह इन खबरों को सुन-सुन कर मुस्कुराता था। एक दिन बहुत से अमीरों ने एक साथ बादशाह के हुजूर में इकट्ठे होकर रहीम की शिकायत की- ‘बादशाह सलामत यह कमजात रहीम आपकी नेक मेहरबानियों को पाकर अपना दिमाग फेर बैठा है। वह आलीशान तख्त पर बैठकर बादशाहों और शहजादों की भांति दरबार लगाता है। लोगों को सोना, चाँदी, कपड़े, रुपये और धान बांटता है।’
– ‘लोगों को सोना, चाँदी, कपड़े, रुपये और धान बांटना कोई गुनाह है क्या?’ बादशाह ने मुस्कुरा कर पूछा।
बादशाह का जवाब सुनकर अमीरों के चेहरे फक पड़ गये। किसी तरह हिम्मत करके एक दरबारी ने कहा- ‘बेशक यह गुनाह नहीं किंतु रहीम इतना माल-असबाब लाया कहाँ से, यह तो जानना चाहिये।’
– ‘तुम्हें क्या लगता है, रहीम ने कहीं चोरी की होगी या डाका डाला होगा।’
– ‘ऐसा लगता तो नहीं किंतु वह बेशुमार दौलत लुटा रहा है।’
– ‘इसके अलावा उसका कोई और गुनाह?’
– ‘हुजूरे आली! वह शहजादों की तरह सिर पर ताज रखता है और ताज पर हुमा का पर भी!’ एक अमीर ने उत्तेजित होकर कहा।
– ‘और?’
– ‘हुजूर मेरी जान बख्शी जाये किंतु सही बात तो यह है कि वह आपकी तरह तख्त पर बैठकर चंवर ढुलवाता है और छत्र तान कर चलता है।’
– ‘तुम्हारी बात सही है, इसका क्या सबूत है तुम्हारे पास?’
– ‘सुबूत देखना है तो अभी बादशाह सलामत स्वयं जहमत फरमायें और रहीम के डेरे पर चलकर स्वयं अपनी आँखों से देख लें।’
– ‘ठीक है। आज ऐसा ही किया जाये।’
कुछ ही देर में बादशाह की सवारी रहीम के डेरे पर थी। खानखाना को इत्तला मिली तो भागता हुआ ड्यौढ़ी पर हाजिर हुआ और अपने सिर से पगड़ी उतार कर हाथी के नीचे बिछाता हुआ बोला- ‘मेरे धन्य भाग जो बादशाह सलामत की नजर इस ओर हुई।’
– ‘खानखाना! हमने तुम्हारे दरबार की बड़ी तारीफ सुनी है, इसलिये हम बिना बुलाये ही तुम्हारा दरबार देखने चले आये।’ बादशाह ने हाथी से उतर कर पगड़ी के कपड़े पर पैर धरते हुए कहा।
– ‘इस गरीबखाने पर आपके पधारने के अलावा यहाँ और कोई तारीफ की बात नहीं है हुजूर। फिर भी आप ने इनायत की ही है तो कुछ न कुछ खास बात जरूर होगी।’
– ‘हमने सुना है तलवार का हुनर दासों को भी स्वामी बना देता है। क्या यह बात सही है खानखाना?’
– ‘नहीं बादशाह सलामत। यह बात सही नहीं है। स्वामिभ्क्ति और स्वामी की कृपा ही दास को स्वामी बना सकती है।’ खानखाना ने शांति से प्रत्युत्तर दिया। बादशाह को रहीम के जवाब से बड़ी तसल्ली हुई
बादशाह के आदेश से खानखाना ने बादशाह को अपना दरबार दिखाया। उसे देखकर अकबर की आँखें चौंधिया गयीं। वाकई में जगह काबिले तारीफ तो थी ही, रश्क करने लायक भी थी। अकबर खानखाना के तख्त पर जाकर बैठ गया।
रहीम ने उसी क्षण दौड़कर हुमा के पर वाला ताज बादशाह के सिर पर रख दिया और स्वयं बादशाह के ऊपर छत्र तानकर खड़ा हो गया। उसके नौकर भी संकेत पाकर बादशाह पर चंवर ढुलाने लगे और बादशाह सलामत की जय-जयकार करने लगे।
बादशाह ने पूछा- ‘खानखाना! बादशाहों और शहजादों के काम में आने वाली चीजें तुम्हारे यहाँ क्या कर रही हैं?’
– ‘जिल्ले इलाही। मुझे अंदाज था कि एक न एक दिन हजरत यहाँ पधारेंगे। उसी की तैयारी में यह सामान मंगा रखा था। यदि शहजादों और बादशाहों के काम आने वाला यह सामान यहाँ नहीं होता तो मुझे आज अपने मालिक के सामने लज्जित होना पड़ता।
– ‘हम तुम्हारी आवभगत से प्रसन्न हुए खानखाना। आज से यह सब सामान तुम्हें दिया जाता है। हमारे हुक्म से अब तुम ही इसका उपयोग करो।’ यह कहकर बादशाह उठ गया।