– ‘अब्बा हुजूर, फिर क्या हुआ?’ जाना ने पिता के कंधे पर मुक्का मारा।
– ‘अरे कब क्या हुआ?’ खानखाना ने पूछा।
– ‘अरे कल जो कहानी आप हमें सुना रहे थे, उसमें आगे क्या हुआ?’
– ‘हम कल कौनसी कहानी सुना रहे थे?’
– ‘हम कल कौनसी कहानी सुना रहे थे? इतना भी याद नहीं रहता?’ जाना ने पिता की नकल उतारते हुए कहा।
– ‘हाँ भई! नहीं रहता।’
– ‘अरे वो जंगल के सेर वाली।’
– ‘सेर नहीं शेर।’
– ‘लेकिन आप ही ने तो कल सेर बोला था।’
– ‘अरे वह तो कविता में ऐसे कह सकते हैं, इसका मतलब यह तो नहीं कि शेर हमेशा के लिये सेर हो जायेगा।’
– ‘अच्छा अब्बा हुजूर! अब मैं शेर ही बोलूंगी, सेर नहीं। आप आगे की कहानी तो सुनाइये।’
– ‘हाँ तो कल हम कहाँ थे?’
– ‘हम तो यहीं थे, अपने डेरे में।’
– ‘डेरे में तो थे किंतु कहानी में कहाँ थे?’
– इसे क्या मालूम, ये तो सो गयी थी।’ ऐरेच ने कहा।
– नहीं! मैं सोयी नहीं थी, मुझे सब याद है।
– अच्छा बताओ तो तुम्हें क्या याद है?’
– ‘आप ने कहा था कि जब सियार ने जुलाहे को कंधे पर कपास धुनने का धुना और हाथ में कमानी लेकर जाते हुए देखा तो सियार ने सोचा कि यह कोई शिकारी है और शिकार मारने के लिये जंगल में आ रहा है। सियार ने सोचा कि यह कहीं मुझ पर ही तीर न मार दे इसलिये खुशामद से इसको खुश किया जाये।’
– ‘हाँ-हाँ! मैंने कल यहाँ तक ही कहानी सुनायी थी कि मियाँ फहीम आ गये थे हमें शिकार पर ले जाने के लिये।’
– ‘अब्बा हुजूर! ये खुशामद क्या होता है?’
– ‘जब किसी को प्रसन्न करने के लिये झूठी सच्ची तारीफ की जाती है तो उसे खुशामद कहते हैं। जैसे हम तुम्हारी खुशामद करते रहते हैं।’ खानखाना ने बेटी के गाल पर चपत लगाते हुए कहा।
– ‘अब्बा हुजूर! ये जाना तो बस बोलती ही रहती है। आप कहानी सुनाईये ना।’ दाराब ने मचल कर कहा।
– ‘अब्बा हुजूर! सियार ने जुलाहे की खुशामद कैसे की?’ जाना ने अपनी नन्हीं हथेलियों से खानखाना का सिर अपनी ओर मोड़ते हुए कहा। वह नहीं चाहती थी कि पिता भाई की ओर देखे।
– ‘तू बीच-बीच में सवाल मत पूछ।’ ऐरच ने जाना को धमकाया।
– ‘यदि तुम सब चुप होकर बैठोगे तो ही तो मैं कहानी सुना पाऊंगा ना!’ खानखाना ने कहा।
– ‘अच्छा हम सब चुप होकर बैठते हैं।’ कारन ने सब बच्चों को चुप रहने का संकेत किया।
– ‘सियार ने सोचा कि यदि मैं इस शिकारी को दिल्ली का राजा कहूंगा तो यह मुझसे बड़ा राजी होगा और मुझे नहीं मारेगा। इसलिये उसने बड़ी मीठी आवाज में कहा-
”कांधे धनुष हाथ में बाना।
कहाँ चले दिल्ली पतराना।”
जुलाहा पहली बार जंगल से गुजर रहा था। उसने सुना था कि जंगल में भयानक शेर रहते हैं जो आदमी को खा जाते हैं लेकिन उसने कभी भी शेर को देखा नहीं था। सियार को देखकर उसने सोचा कि हो न हो, यही शेर है। जुलाहा डर गया और उससे बचने का उपाय सोचने लगा। उसने सोचा कि बड़ा आदमी बड़ी बात ही सोचता है। यह खुद राजा है इसलिये मुझे भी राजा ही समझता है। यदि मैं इसे जंगल का राणा कहकर इसकी प्रशंसा करूं तो यह अवश्य ही मुझे छोड़ देगा। इसलिये जुलाहे ने कहा-
”तुम जंगल के सेर बनी के राना।
बड़ेन की चाल बड़ेन पहचाना।”
– ‘फिर क्या हुआ?’
– ‘फिर क्या होना था, दोनों ने एक दूसरे की झूठी तारीफ की, दोनों ही एक दूसरे से डरते रहे और दोनों ही एक दूसरे को क्षमा करके अपने-अपने रास्ते चल दिये।
– ‘फिर क्या हुआ?’
– ‘फिर कुछ नहीं हुआ, खेल खतम, पैसा हजम।’
– ‘अब्बा हुजूर! हमें भी एक दिन शिकार मारने के लिये ले चलिये ना।’ जाना ने कहा।
– ‘तू तो लड़की है। तू कैसे शिकार मारेगी! मैं लड़का हूँ, मैं अब्बा हुजूर के साथ शिकार मारने जाऊंगा।’ ऐरच ने कहा।
– ‘मैं भी तो लड़का हूँ, मैं भी अब्बा हुजूर के साथ शिकार मारने जाऊँगा।’ दाराब ने कहा।
– ‘नहीं लड़की होने से क्या होता है, मैं जरूर ही शिकार मारने जाऊँगी।’ जाना ने कहा।
– ‘अच्छा-अच्छा। झगड़ो मत। तुम सब कल शिकार मारने चलना। तुम्हारी अम्मी को भी ले चलेंगे।’ खानखाना ने बच्चों का फैसला करते हुए कहा।