ईसा की नौवीं-दसवीं शताब्दी में चम्बल नदी के किनारे कूर्मवंशी क्षत्रियों की तीन शाखाएं राज्य करती थीं। इनमें से एक शाखा नरवर पर, दूसरी ग्वालिअर पर तथा तीसरी शाखा दूबकण्ड पर कायम थी। इन तीनों शाखाओं को कच्छवाहा[1] कहा जाता था। ग्यारहवीं शती के आरंभ में नरवर के राजकुमार धौलाराय ने पुराणकालीन मत्स्य क्षेत्र पर आक्रमण किया और इस क्षेत्र में बसने वाले मत्स्यों को परास्त कर अपना शासन स्थापित किया। ये मत्स्य इस काल में मीणे[2] कहलाते थे। इस प्रकार कछुओं ने मछलियों को मार भगाया।
जिस समय बाबर ने भारत की धरती पर पैर रखा उस समय कच्छवाहा वंश का राजा पृथ्वीराज इस क्षेत्र पर शासन करता था जिसकी राजधानी आमेर थी। बाबर का मार्ग रोकने वालों में राजा पृथ्वीराज भी प्रमुख था और वह खानुआ के मैदान में भी बाबर के विरुद्ध लड़ा था लेकिन उसके पुत्र पूर्णमल के काल से आमेर राज्य घनघोर अंतर्कलह में घिर गया और राजाओं की हत्याओं का लम्बा सिलसिला चल पड़ा।
अकबर के शासन काल में आसकरण आमेर का राजा था। एक बार जब आसकरण तीर्थयात्रा के लिये गया तो उसके छोटे भाई भारमल[3] ने आमेर पर कब्जा कर लिया और स्वयं को आमेर का राजा घोषित कर दिया। आसकरण ने अपना राज्य वापिस पाने के लिये पठान हाजीखाँ से मदद मांगी। जब हाजीखाँ सेना लेकर आमेर पर आया तो भारमल ने अपनी पुत्री किसनावती का डोला हाजीखाँ को भिजवा दिया। हाजीखाँ राजकुमारी लेकर वापस चला गया और आमेर पर भारमल का शासन पक्का हो गया। आसकरण देखता रह गया।
भारमल एक स्वार्थी और निम्न विचारों का इंसान था। जब उसने देखा कि पठान हाजीखाँ में इतनी सामर्थ्य नहीं कि उसके राज्य को स्थायित्व दे सके तो उसने दिल्ली के बादशाह अकबर की शरण में जाने का विचार किया। ई.1562 में जब अकबर अजमेर जा रहा था तब भारमल दौसा के निकट उसकी सेवा में उपस्थित हुआ। उसने अपनी पुत्री जोधाबाई तथा पुत्र भगवानदास, अकबर को समर्पित कर दिये।
यह भारत के इतिहास में पहला अवसर था जब किसी प्रबल हिन्दू नरेश ने स्वेच्छा से अपनी पुत्री किसी मुस्लिम राजा को समर्पित की हो। अकबर ने संयोग से हाथ आये इस अवसर के मूल्य को पहचाना तथा जोधाबाई से विवाह कर लिया। राजा भारमल के पुत्र भगवानदास तथा पौत्र मानसिंह को भी अकबर अपने साथ आगरा ले गया और उन्हें मनसब आदि देकर अपना चाकर बना लिया।
मानसिंह तथा अकबर की आयु में कम ही अंतर था इसलिये उन दोनों में अच्छी मित्रता हो गयी। दोनों साथ-साथ शराब पीकर झगड़ते, दासियों का नृत्य देखते, साथ-साथ शिकार खेलते और युद्ध अभियानों पर जाते। कई बार दोनों नशे में चूर होकर किसी दासी के लिये गुत्थमगुत्था हो जाते किंतु नशा उतरते ही सुलह कर लेते। मानसिंह विद्वान, गुणी और प्रबल योद्धा था, उसकी सेवाओं से मुगल साम्राज्य का न केवल विस्तार हुआ अपितु उसमें स्थायित्व भी आ गया।
राजा भारमल, भगवानदास, मानसिंह और टोडरमल जैसे हिन्दू वीरों की सेवाएं प्राप्त कर लेने के बाद अकबर की समझ में आया कि एक ओर तो उसके पिता और दादा के रक्त सम्बंधी, कजलबाश, चगताई, ईरानी और तूरानी सुन्नी अमीर हैं जो अकबर को हटाकर स्वयं बादशाह बनना चाहते हैं और दूसरी ओर हिन्दू नरेश हैं जो एक बार चाकरी स्वीकार कर लेने के बाद प्राण गंवाकर भी अपने स्वामी की रक्षा करते हैं। अतः अकबर ने हिन्दू नरेशों को मुगल साम्राज्य की रक्षा के लिये नियुक्त करने का निर्णय किया।
उधर हिन्दू राजकुमारी से विवाह का अनुभव भी बहुत अच्छा रहा था। अतः अकबर ने समस्त हिन्दू नरेशों को आदेश दिया कि वे अपनी राजकुमारियों के डोले अकबर तथा अकबर के शहजादों और अमीरों के लिये भेजें। इस योजना से भारत वर्ष के हिन्दू नरेशों में हड़कम्प मच गया। कई राजकन्याओं ने आत्मघात कर लिया किंतु बात बात पर मूंछों की लड़ाई लड़ने वाले हिन्दू नरेश इस विपत्ति से अपनी रक्षा नहीं कर सके। न ही उन्होंने अपने जनेऊ, वेद और कन्याओं की रक्षा करने के लिये किसी संगठन का निर्माण किया। फलतः बहुत से राजाओं को अपनी कन्याएं मुगलों से ब्याहनी पड़ीं।
इससे एक ओर तो हिन्दू नरेशों के जातीय गौरव का विगलन हुआ और दूसरी तरफ मुगल साम्राज्य की नींवें भारत में मजबूती से जम गयीं। सम्पूर्ण उत्तरी भारत में केवल मेवाड़ ही उस समय एकमात्र ऐसा हिन्दू नृवंश था जो चट्टान की तरह खड़ा था, जिसने न तो मुगलों की अधीनता स्वीकार की और न उन्हें अपनी कन्याएं सौंपना स्वीकार किया।
[1] कच्छवाहा शब्द कश्यप अथवा कच्छप से बना है। कूर्म तथा कच्छप दोनों ही शब्दों का अर्थ कछुआ होता है।
[2] मीन शब्द से मीणा बना है। मत्स्य और मीन दोनों ही शब्दों का अर्थ मछली होता है।
[3] इसे बिहारीमल भी कहते हैं।