बहुत देर तक तरुण बादशाह के खुरदरे चेहरे पर विभिन्न प्रकार की लकीरें बनती-बिगड़ती रहीं। अधिकतर लकीरें ऐसी थीं जिन्हें बाबा जम्बूर किसी भी हालत में नहीं पढ़ सकता था लेकिन बाबा जम्बूर ने हारना नहीं सीखा था। बाबा जम्बूर तो उस समय भी नहीं हारा था जब मुबारक लोहानी ने बैरामखाँ की पीठ में छुरा भौंक दिया था और बैरामखाँ जमीन पर गिरकर छटपटा रहा था। बाबा जम्बूर तो उस समय भी नहीं हारा था जिस समय मुबारक ने बैरामखाँ के डेरे पर पहुँच कर लूटमार व अंधाधुंध हत्याएं करनी आरंभ कर दी थी और बैरामखाँ का समूचा परिवार नाश के कगार पर जा खड़ा हुआ था। मुबारक लोहानी कुचले हुए नाग की तरह फुंफकार रहा था। एक तो अफगानी और तिस पर बैरी। उसके मन में बदले की जाने कैसी भीषण आग जल रही थी!
जब मुबारक लोहानी बैरामखाँ के डेरे की ओर बढ़ा तो बाबा जम्बूर को मुबारक लोहानी के खतरनाक इरादों का पता लग गया। बाबा जम्बूर खून से लथपथ बैरामखाँ के शव को यूँ ही छोड़कर मुबारक लोहानी के पीछे दौड़ पड़ा। मुबारक बैरामखाँ के समूचे वंश को ही नष्ट कर डालना चाहता था। बैरामखाँ के अधिकतर गुलाम मुबारक लोहानी की तलवार की भेंट चढ़ गये। जो जान बचा सकते थे, खानाखाना के परिवार को असुरक्षित छोड़कर भाग छूटे थे। मुबारक लोहानी ने बैरामखाँ की सुंदर और जवान बीवी सलीमा बेगम तथा चार वर्ष के लड़के अब्दुर्रहीम को बहुत ढूंढा किंतु फकीर मुहम्मद अमीन दीवाना ने उस समय बाबा जम्बूर का साथ दिया। इसी से बेगम सलीमा और बालक रहीम मुबारक के हाथ नहीं लगे।
मुबारक लोहानी बाबा जम्बूर के पीछे लग गया किंतु बाबा जम्बूर ने हार नहीं मानी। एक के बाद एक गाँव, खेत, खलिहान और जंगल-जंगल भागता रहा है वह बैरामखाँ के परिवार को लेकर। ऐसी आँख-मिचौनी हुई उन दोनों के बीच कि चूहे-बिल्ली भी शर्मा जायें। अफगानी लुटेरों ने कई बार उन्हें घेर लिया किंतु बाबा जम्बूर हर बार बच निकला। तब से लेकर अब तक बाबा जम्बूर और मुहम्मद अमीन, सलीमा बेगम और अब्दुर्रहमान को लेकर भागते रहे हैं। मुबारक लोहानी और उसके अफगान लुटेरों से आँख-मिचौनी खेलते हुए पाटन से अहमदाबाद, जालोर और आगरा तक आ पहुँचना संभव नहीं था यदि बाबा जम्बूर ने हार मान ली होती।
रहीम की माँ नहीं चाहती थी कि बैरामखाँ का परिवार फिर से अकबर के पास पहुँचे। वह चाहती थी कि उसके पिता के यहाँ अलवर में ही बैरामखाँ का पूरा परिवार बस जाये किंतु सलीमा बेगम और बाबा जम्बूर ने उसकी बात नहीं मानी। चाहती तो सलीमा बेगम भी नहीं थी कि फिर से अकबर से सामना हो किंतु परिस्थितियों के आगे वह विवश थी।
बाबर की बेटी गुलरुख की औलाद होने के कारण सलीमा बेगम भी दिल्ली के तख्त पर अपना उतना ही अधिकार मानती थी जितना अकबर मानता था। खुद बैरामखाँ ने सलीमा बेगम का हाथ हुमायूँ से इसी लिये मांगा था कि यदि हुमायूँ के भाई दगा करके हुमायूँ की किसी औलाद को जिंदा न रहने दें तो बैरामखाँ उन गद्दारों के स्थान पर बाबर की नवासी सलीमा बेगम को हिन्दुस्थान के तख्त पर बैठा सके।
इतनी सारी बातें जानने पर भी अकबर ने सलीमा बेगम का कोई लिहाज नहीं किया था और बैरामखाँ को देश निकाला दे दिया था। मन ही मन घृणा करने लगी थी वह अकबर से किंतु भाग्य की कैसी विडम्बना थी कि अब बैरामखाँ के न रहने पर वह खुद फिर से अकबर के पास ही जा रही थी।
सलीमा बेगम के आदेश पर बाबा जम्बूर उसे और अब्दुर्रहीम को बैरामखाँ के हरम की सारी औरतों के साथ आगरा ले आया था। वह जानती थी कि बैरामखाँ के परिवार को अब यदि कोई सुरक्षित रख सकता है तो केवल अकबर। भले ही अकबर और खानाखाना में अंतिम दिनों में मनमुटाव हो गया हो, भले ही बादशाह ने बैरामखाँ के पीछे अपनी फौज लगा दी हो और भले ही बैरामखाँ बादशाह से विद्रोह पर उतर आया हो किंतु अकबर इतना कृतघ्न कभी नहीं हो सकता कि अपने संरक्षक के असहाय परिवार की रक्षा करने से मना कर दे।
बाबा जम्बूर ने अनुमान लगाया कि बादशाह के खुरदरे चेहरे पर बनती-बिगड़ती लकीरों में उन्हीं सब पुरानी बातों के चित्र बन और बिगड़ रहे हैं। बाबा जम्बूर उन चित्रों को पहचानने की कोशिश कर रहा था जिनमें बैरामखाँ का अतीत और रहीम का भविष्य छिपा हुआ था।