– ‘रहीम कौन ?’ तरुण बादशाह ने अत्यन्त ही अन्यमनस्कता से पूछा। असमय का व्यवधान उसे अच्छा नहीं लगा। जाने किस बदजा़त ने इस कमअक़्ल गुलाम को यहाँ ला तैनात किया है! चैन से बैठने ही नहीं देता। किसी न किसी बहाने से थोड़ी-थोड़ी देर में आ धमकता है, जल्लाद कहीं का। पिछले कई दिनों से अकबर की अन्यमनस्कता हताशा की सीमा तक उसे बोझिल बनाये हुए है अन्यथा अन्यमनस्कता उसके स्वभाव में नहीं है। उसे यह बार-बार का व्यवधान किंचित् भी नहीं सुहा रहा।
– ‘बैरामखाँ का फरजंद अब्दुर्रहीम, जिल्ले इलाही।’ तातार गुलाम ने भय से काँपते हुए निवेदन किया।
– ‘कौन बैरामखाँ ?’ बादशाह खीझ उठा।
– ‘खानखाना बैरामखाँ हुजूर। उनका बेटा रहीम।’
– ‘खानखाना बैरामखाँ का बेटा रहीम! क्या वह खानखाना के साथ हज करने नहीं गया था?’
क्रोध के कारण बादशाह के शब्द काफी तीखे हो आये थे। गुलाम में साहस नहीं था कि वह तरुण बादशाह के इस प्रश्न का उत्तर दे सके।
– ‘अच्छा जा। काँपना बंद कर और उसे ले आ, यहीं।
तातार गुलाम के प्राण फिर से लौटकर शरीर में आ गये और वह भागता हुआ कक्ष से बाहर हो गया। पसीने की एक लकीर गर्दन से आरंभ होकर ऐढ़ी तक जा पहुँची थी। कितना तो मना किया था कमबख़्त को! किंतु मेरी कोई माने तब न! इधर बादशाह और उधर बैरामखाँ का बेटा। आने की सूचना दो तो मुसीबत और न दो तो मुसीबत। जाने किस बात पर कब सर क़लम हो जाये! खुदा बचाये ऐसी नौकरी से। अपनी उखड़ी हुई सांसों और हिलती हुई दाढ़ी पर काबू पाते हुए उसने अब्दुर्रहीम को अंदर जाने का संकेत किया।
कमरे का पर्दा हटाकर जब अब्दुर्रहीम ने अपनी छोटी-छोटी कोहनियों से बादशाह को कोर्निश बजाई तो सन्न रह गया बादशाह। अल्लाह! चालीस वर्ष के जिस प्रौढ़ बैरामखाँ को बादशाह ने अपने सामने हज के लिये रवाना किया था वह तो पाँच वर्ष का बालक बन कर फिर से लौट आया था! कुदरत भी कई बार कैसे करिश्मे दिखाती है! संभवतः यह उसी का परिणाम था कि प्रौढ़ हो चुका बैरामखाँ पाँच वर्ष का बालक बनकर फिर से उसके सामने खड़ा था। बादशाह के मन में पसरी क्षण भर पहले की अन्यमनस्कता विलुप्त हो गयी।
– ‘खानबाबा!’ बादशाह के मुँह से बरबस निकल गया।
– ‘मैं खानखाना बैरामखाँ का फरजंद अब्दुर्रहीम हूँ जहाँपनाह। अपनी निर्दोष और मासूम आँखों पर नन्ही पलकें झपकाते हुए उसने उत्तर दिया।
– ‘खानखाना कहाँ हैं ?’ अकबर के मन से क्रोध और घृणा का हलाहल जाने कहाँ लुप्त हो गया जो अभी कुछ क्षण पूर्व बैरामखाँ का नाम सुनते ही उसके होठों से छलक पड़ा था।
– ‘इस दुनिया से भी जो ऊपर दुनिया है, अब्बा हुजूर उस दुनिया के बादशाह की खिदमत में चले गये हैं।’ अब्दुर्रहीम ने परिश्रम से याद किया हुआ वाक्य बादशाह के सामने दुहरा दिया।
– ‘क्या कहते हो? कब?? कैसे???’ हैरत में पड़ गया बादशाह। कितनी कच्ची उम्र और कितनी सख्त बात! क्या इस बालक को यह पता भी है कि वह जो कह रहा है, उसका अर्थ क्या है? लेकिन यह हो कैसे सकता है! मुझे तो यह समाचार किसी ने दिया ही नहीं।
– ‘अब्बा हुजूर को गये हुए तो चार महीने बीत गये जहाँपनाह।’
– ‘मग़र ये सब हुआ कैसे ?’
– ‘अफगान मुबारक लोहानी ने उन्हें अपने छुरे से हलाक कर दिया।’
– ‘खानाखाना को हलाक कर दिया! क्या इस धरती पर ऐसा कोई आदमी जन्मा था जो खानखाना की तरफ आँख उठाकर भी देख सकता था? खु़दा गवाह है कि लोहा बैरामखाँ को काट नहीं सकता था और आग जला नहीं सकती थी लेकिन तुम कह रहे हो कि उसे एक कमजा़त अफगान ने हलाक कर दिया? उसे देखकर तोपें दहाड़ना छोड़कर बकरियों की तरह मिमियाने लगती थीं। उसके सामने आकर बड़ी से बड़ी तलवार कागज का पुर्जा साबित होती थी और तुम कहते हो कि उस बैरामखाँ को एक छुरे से ज़िबह कर दिया? आवेश से क्षण भर को तरुण बादशाह का चेहरा लाल हुआ किंतु शीघ्र ही वह इतना सफेद हो गया, जैसे किसी ने शरीर में से रक्त निचोड़ लिया हो। वह आगे कुछ भी नहीं बोल सका।
पाँच वर्ष का अब्दुर्रहीम देर तक बादशाह के खुरदेरे चेहरे को ताकता रहा। पिछले चार महीनों के अनुभव ने रहीम को पाँच वर्ष के बालक से एक परिपक्व आदमी बना दिया था। उसके सिर पर पिता का साया न रहा था और वह जान चुका था कि अब दुनिया में उसे अपने बलबूते पर गुजारा करना है। यही कारण था कि वह बालक होने पर भी इतना संतुलित था और निर्विकार भाव से तरुण बादशाह के सामने खड़ा उसके आदेश की प्रतीक्षा कर रहा था।
बहुत देर तक अकबर के मुँह से कुछ नहीं निकला। बैरामखाँ की मौत की सूचना ने उसके समूचे अस्तित्व को झिंझोड़ कर रख दिया था। इस सूचना की चोट बादशाह के भीतर बैठे अनाथ अकबर तक जा पहुँची थी। उस अकबर तक जो बादशाह न था, अनाथ बालक था। जो जहाँपनाह न था, दर-दर का भिखारी था। जो नूरानी चेहरे का रूआबदार तरुण न था, कमज़ोर कलेजे का पितृहीन पुत्र था। जो अपने अमीरों के सामने तनकर नहीं खड़ा था, बैरामखाँ की छाती पर सिर रखकर रो रहा था।
अकबर अन्तर्मन के जिस दड़बे में छिपकर रहता था, उस दड़बे की छत इस सूचना की आंधी ने एक ही झटके में उड़ा दी थी। अकबर ने इस दड़बे में स्मृतियों के जाने कितने क्षण कबूतरों की तरह पाल रखे थे। मन की मुण्डेर पर बैठे ये कबूतर हर क्षण गुटरगू़ँ करते रहते थे। वे सब के सब आज अचानक ही फड़फड़ा कर चीत्कार करने लगे। क्रूर समय बाज की तरह झपट्टा मार कर स्मृतियों के इन निर्दोष कबूतरों को लहू-लुहान कर गया था।
अकबर ने सीने की ज्वाला को गरम साँस में ढालकर बाहर की ओर धकेलते हुए देखा- पाँच वर्ष का अब्दुर्रहीम अब भी चुपचाप उसी की ओर देखे जा रहा था। अकबर ने झपट कर रहीम को अपने सीने से लगा लिया।
– ‘क्या हुआ अब्दुर्रहीम, जो खानबाबा नहीं रहे! हम तो हैं! आज से हम तुम्हारे अब्बा हुजूर हैं और आप हमारे अतालीक[1] हैं। समझ रहे हैं आप, हम क्या कह रहे हैं?’
पाँच वर्ष का अब्दुर्रहीम बादशाह के शब्दों का सही-सही अर्थ तो अनुमानित नहीं कर सका किंतु इतना वह अवश्य जान गया था कि जिस काम के लिये माता ने उसे बादशाह की सेवा में भेजा था, वह काम हो गया है। कुछ क्षण बादशाह उसे अंक में कसे रहा। बालक ने भी अपने आप को वहाँ से हटाने या छूटने का प्रयास नहीं किया।
– ‘तुम्हारे साथ और कौन आया है ?’
– ‘मेरे साथ बाबा जम्बूर और काका मुहम्मद अमीन भी आये हैं, वे बाहर खड़े हैं।’
– ‘और तुम्हारी माँ मेवाती बेगम तथा तुम्हारी छोटी माँ सलीमा बेगम! वे दोनों कहाँ हैं?’ अकबर ने बुरी खबर की आशंका से बेचैन होकर पूछा।
– ‘वे आगरे में एक रिश्तेदार के यहाँ ठहरी हुई हैं। उन्होंने ही बाबा जम्बूर और काका मुहम्मद अमीन के साथ हमें आपकी हाजिरी में भेजा है।’
– ‘बाबा जम्बूर और मुहम्मद अमीन कौन हैं?’
– ‘ये दोनों पहुँचे हुए फकीर हैं और अब्बा हुजूर के नेकदिल दोस्त भी। उन्होंने ही दुश्मनों से मेरी और अम्मी जान की जान बचाई थी।’
– ‘अरे कोई है?’ बादशाह ने बालक को अपनी बाहों से मुक्त करते हुए द्वार की ओर ताक कर कहा। क्षण भर में ही तातार गुलाम प्रकट हो गया।
– ‘बाहर दो फकीर खड़े हैं, उन्हें हाज़िर कर।’ अकबर ने आदेश दिया।
आदेश पाकर गुलाम हाँफता हुआ सा बाहर निकल गया।
[1] शिक्षक।