जब अकबर ने सुना कि बैरामखाँ अपनी सेना लेकर जालंधर तक आ पहुँचा है तो भी वह शिकार खेलने में व्यस्त रहा और उसने कोई कार्यवाही नहीं की। अकबर की यह उदासीनता देखकर माहम अनगा ने अपने समस्त विश्वस्त अमीरों के नेतृत्व में विशाल सेना भेजकर बैरामखाँ पर आक्रमण करवाया। बैरामखाँ ने बादशाह की सेना को मारकर दूर तक भगा दिया। जब बैरामखाँ अकबर की सेना को खदेड़ कर लौट रहा था तो एक स्थान पर उसका हाथी दलदल में फंस गया। उसी समय माहम अनगा के आदमियों ने जो कि चुपचाप बैरामखाँ का पीछा कर रहे थे, बैरामखाँ पर आक्रमण कर दिया।
बैरामखाँ का बड़ा भारी नुक्सान हुआ और उसे सवालक की पहाड़ियों में भाग जाना पड़ा। नादोन के हिन्दू नरेश गणेश ने उसे शरण दी और अकबर के विरुद्ध खम ठोककर खड़ा हो गया। इस पर माहम अनगा ने अकबर को खूब उल्टी-सीधी बातें समझाईं। अकबर को भी लगने लगा कि जब तक मैं बैरामखाँ को नहीं कुचल देता तब तक मैं चैन से दिल्ली में शासन नहीं कर सकता।
इस बार सेना की कमान स्वयं अकबर ने संभाली। जिस मुगल सेना को बैरामखाँ ने अपने धन-बल और बुद्धि चातुर्य से खड़ा किया था वही मुगल सेना विशाल अजगर की तरह फूत्कार करती हुई बैरामखाँ को ही निगलने के लिये दिल्ली से निकल पड़ी।
जब मनुष्य का समय विपरीत हो जाता है तब हितैषी, बंधु, मित्र और सेवक तक उसके शत्रु हो जाते हैं। राजा, योगी, अग्नि और जल की मित्रता तो वैसे भी अल्पकालिक ही होती है। फिर यहाँ तो मामला चंगेज खाँ और तैमूर लंगड़े के खूनी वारिस अकबर का था, जिसका अनुकूल होना, न होना कोई अंतर नहीं रखता था। जाने क्यों बैरामखाँ कभी भी यह समझ नहीं पाया था कि जिस अकबर को हिन्दुस्थान का बादशाह बनाने के लिये वह हिन्दुओं पर ना-ना तरह के अत्याचार कर रहा है और रक्त की नदियाँ बहाता हुआ चला जा रहा है, वही अकबर एक दिन अपने स्वार्थ के लिये बैरामखाँ के विरुद्ध सेना लेकर निकल पड़ने में किंचित् मात्र भी संकोच नहीं करेगा!
अकबर को बैरामखाँ पर चढ़कर आया देखकर पहाड़ों के कई सारे शरणागत वत्सल हिन्दू नरेश, कृतघ्न अकबर का रास्ता रोकने के लिये आगे आये। पहाड़ों में घमासान मच गया। जिन हरित शृंगों से नीलाभ जल की निर्मल धारायें फूट-फूट कर वंसुधरा को धानी चूनर ओढ़ाया करती हैं, उन्हीं शृंगों से रक्त के झरने फूट पड़े। पहाड़ों की शांति घोड़ों की टापों, तलवारों की झंकारों और हाथियों के चीत्कारों से भंग हो गयी। मौत के मुँह में जाते निर्दोष सैनिकों की डकराहटों से पहाड़ों का कठोर हृदय भी पिघल कर रो पड़ा। मनुष्य के हृदय की कठोरता के आगे पहाड़ों की कठोरता भी फीकी पड़ गयी। कटे अंगों से रक्त बहाते हुए सैनिक एक हाथ से अपनी आंतों को पकड़े रहते और दूसरे हाथ से तलवार घुमाते रहते थे। उनके प्राण पंखेरू उड़ जाते थे किंतु मन से लड़ने की अभिलाषा नहीं जाती थी।
हजारों हिन्दू सैनिकों का रक्त बह चुकने के बाद हिन्दू नरेश, अकबर की सेना के मुखिया सुलतान हुसैनखाँ जलायर का सिर काटने में सफल हो गये। हिन्दू नरेशों ने बड़े गाजे-बाजे और ढोल-ढमाकों के साथ जलायर का सिर बैरामखाँ को भेंट किया। बैरामखाँ उस सिर को देखते ही रो पड़ा और छाती पीटते हुए कहने लगा कि मेरे जीवन को धिक्कार है जिसके लिये काफिर की बजाय अल्लाह के बंदे का सिर काटा गया। बैरामखाँ ने उसी समय बादशाह को पत्र लिखा- ‘बादशाह को मालूम होवे कि जलायरखा का कटा हुआ सिर देख कर माहम अनगा का सिर काटने की तमन्ना मेरे दिल से काफूर हो गयी है। अब मैं तुझसे और नहीं लड़ना चाहता। अतः मुनअमखाँ को भेज ताकि वह आकर मुझे यहाँ से ले जावे। मैं तुझे सलाम करके मक्का चला जाऊंगा।
अकबर ने उसी समय मुनअमखाँ, ख्वाजाजहाँ, अशरफखाँ और हाजी मुहम्मदखाँ सीसतानी को सतलज और व्यास नदी के बीच बसे हुए हाजीपुर[1] में भेजा जहाँ बैरामखाँ शरण लिये हुए था। जब अकबर के अमीर उन सुरम्य घाटियों में पहुँचे तो उन्होंने हिन्दू नरेशों और जागीरदारों की भारी भीड़ देखी जो बैरामखाँ की रक्षा के लिये अपनी-अपनी मर्यादा के अनुसार मरने-मारने को तैयार खड़े थे।
मुनअमखाँ उन निष्ठावान हिन्दू नरेशों को देखकर शोक से विलाप करने लगा। जब दूसरे अमीरों ने मुनअमखाँ के रोने का कारण पूछा तो मुनअमखाँ ने कहा- ‘जिन लोगों को बैरामखाँ ने दूध पिला-पिलाकर पाला था, वे तो साँप के बच्चे निकले और बुरा वक्त आने पर बैरामखाँ को छोड़कर बादशाह के पास भाग आये किंतु जिन पहाड़ी नरेशों को बैरामखाँ ने तलवार के बल पर अपने अधीन किया था, उन्हें गुलाम बनाया और हर तरह से अपमानित किया था, वे बैरामखाँ का बुरा वक्त जानकर उसके लिये जान देने और मरने-मारने के लिये खड़े हो गये। दुनिया की ऐसी उल्टी रीति देखकर ही मैं रोता हूँ।’
मुनअमखाँ का यह ताना सुनकर उसके साथ खड़े अमीरों की गर्दन शर्म से नीची हो गयी क्योंकि वे सब के सब नमक हराम थे और एक न एक दिन बैरामखाँ के टुकड़ों पर पले थे। उनमें से किसी ने बैरामखाँ की खैरख्वाही नहीं चाही थी और कभी भी बादशाह को सच्चाई बताने की कोशिश नहीं की थी।
बैरामखाँ उस समय किले में था। हिन्दू सरदार, मुनअमखाँ को उसके पास ले गये। मुनअमखाँ को देखकर बैरामखाँ रोने लगा। एक दिन वह भी था जब बैरामखाँ खानखाना था और मुनअमखाँ उसका खास ताबेदार हुआ करता था लेकिन भाग्य के विधान से आज मुनअमखाँ खानखाना था और बैरामखाँ बादशाह का अपराधी। मुनअमखाँ ने बैरामखाँ को तसल्ली दी और किसी तरह किले से बाहर ले आया।
जब बैरामखाँ हिन्दुओं का संरक्षण त्याग कर अकबर की शरण में जाने लगा तो बाबा जम्बूर और शाहकुलीखाँ महरम बैरामखाँ का पल्लू पकड़कर रोने लगे। बैरामखाँ ने उन दोनों हितैषियों से पूछा- ‘मैं तो अपने स्वामी की शरण में जाता हूँ। तुम दोनों क्यों रोते हो? तो उन्होंने जवाब दिया- ‘दगा है, मत जाओ।’
– ‘यदि मेरा शिष्य[2] ही मुझसे दगा करे तो धरती पर मेरा जीवित रहना बेकार है। इसका मतलब यह होगा कि मैंने उसे सही तालीम नहीं दी।’ बैरामखाँ ने उन दोनों को दिलासा दी।
– ‘लेकिन बादशाह इस समय अपनी बुद्धि के अधीन नहीं है, वह तो माहम अनगा के कहे अनुसार चलता है। उसने माहम अनगा का दूध पिया है।’ बाबा जम्बूर ने चेतावनी दी।
– ‘बाबा! जो कुदरत ने मेरे भाग्य में दगा ही लिखी है तो दगा ही सही। तुम दोनों ने मेरा बहुत साथ निभाया है। एक अहसान अपने इस भागयहीन दोस्त पर और करना। यदि मैं मारा जाऊँ तो अब्दुल रहीम को हिन्दुस्थान से बाहर ले जाना और जैसे भी बन पड़े उसकी परवरिश करके उसे अपने पैरों पर खड़ा कर देना। जब वह समझदार हो जाये और दुनियादारी को समझने लगे तो उसे अपने बाप का आखिरी पैगाम कहना ………..।’ गला भर आने से वह आगे नहीं बोल सका।
– ‘कहो खानखाना कहो! अपनी बात पूरी करो। क्या है आपका पैगाम?’ बाबा जम्बूर ने जोर-जोर से बिलखते हुए पूछा।
– ‘रहीम से कहना कि कभी भी सियासत[3] को अपनी जिंदगी में जगह न देना। कहीं भी कुछ भी काम कर लेना, तानपूरा बजाकर भीख मांग लेना किंतु सियासत से दूर रहना। यहाँ चारों ओर दगा ही दगा है। न्याय नहीं है।’
मुनअमखाँ ने खानखाना का कंधा थपथपाया। बैरामखाँ तब तक संतुलित हो चुका था। उसने झुककर अपने खैरख्वाह दोस्तों को अलविदा कहा और मुनअमखाँ के साथ चल दिया। हिन्दू सरदारों ने भीगी आँखों से बैरामखाँ को विदाई दी। हालांकि बादशाह से मिलने के लिये बैरामखाँ की उतावली देखकर उन्हें अच्छा नहीं लगा था।
बादशाही लश्कर पहाड़ के नीचे जमा खड़ा था। ज्यों ही बैरामखाँ आता हुआ दिखायी दिया तो बड़ा कोलाहल मचा। मुगल सेना के विशाल अजगर ने वक्राकार होकर बैरामखाँ को चारों ओर से घेर लिया। अकबर के अमीरों को विश्वास ही नहीं हो रहा था कि बैरामखाँ इतनी आसानी से उनके हत्थे चढ़ जायेगा। वे पूरी तरह चौकस थे। कभी भी कुछ भी हो सकता था। जिस बैरामखाँ ने हिन्दुस्थान का ताज एक बार नहीं दो-दो बार मुगलों के पैरों में डाल दिया था। उस बैरामखाँ की ताकत का क्या अन्दाजा? जाने वह कब क्या करे?
कुछ लोग बैरामखाँ की जय बोल रहे थे तो कुछ लोग उस पर खुदा की मार पड़े कहकर गालियां दे रहे थे। बैरामखाँ गले में रूमाल बांधे हुए अकबर के डेरे में घुसा और अकबर के पैरों में गिर कर फूट-फूट कर रोने लगा।
अकबर ने बैरामखाँ का सिर उठाकर छाती से लगा लिया। रूमाल गले से खोला। आँसू पौंछे और उसे अपने दाहिने हाथ को बैठाया। मुनअमखाँ उसके पास बैठा। अकबर ने ऐसी दया और ममता की बातें कीं जिनसे बैरामखाँ के मुख की मलिनता और मन की ग्लानि जाती रहीं। अकबर ने जो कपड़े पहिने हुए थे, उसी समय उतारकर बैरामखाँ को पहिनाये और उसे बहुत सारा धन दिया। बैरामखाँ का परिवार भी उसे वापिस लौटा दिया। मुनअमखाँ तथा अन्य अमीरों ने भी बैरामखाँ को बहुत सा धन भेंट में दिया।[4]
अकबर की दरियादिली देखकर बैरामखाँ फिर से रोने लगा। अकबर ने कहा- ‘इतने मायूस क्यों होते हैं खानबाबा! आप तो विद्या, भलाई, दान, धर्म और कर्म से युक्त नीति में निपुण, शूरवीर, कार्य कुशल और दृढ़ हृदय के स्वामी हैं। आपने तैमूर के घराने पर कई उपकार किये हैं। आपने तो ऐसे समय में भी धैर्य नहीं खोया था जब बादशाह हुजूर हूमायूँ का राज्य स्थिर नहीं हुआ था और पंजाब के अलावा सारा राज्य हाथ से जाता रहा था। आपने दिल्ली और आगरा जीत कर बादशाह हुजूर के कदमों में डाल दिये। आपने तो उस समय भी धैर्य नहीं खोया जब बादशाह हुजूर के इंतकाल के बाद पठान और अफगान बड़े जोश से दिल्ली की बादशाही का दावा करते थे, चगताई अमीर[5] हिन्दुस्तान में रहना पसंद नहीं करते थे और मुझे काबुल लौट जाने की सलाह देते थे। बदखशां के स्वामी मिरजा सुलेमान ने काबुल में अमल कर लिया था तब भी आपने उद्योग करके अपना राज्य नहीं बनाया, मुझे फिर से राज्य दिलवाया। आपने बड़े हजरत बाबर और अब्बा हुजूर हूमायूँ की बड़ी सेवा की है। आप किसी भी तरह दिल छोटा करने लायक नहीं हैं। आप हमारे अतालीक हैं। आप इस तरह रोकर हमें तकलीफ नहीं पहुंचायें।’
अकबर की बातों से बैरामखाँ को बड़ी तसल्ली पहुँची। उसने अकबर से पूछा- ‘अब मेरे लिये क्या आज्ञा है शहंशाह?
– ‘खानबाबा! अब हम बालिग हो गये हैं और सारा काम खुद ही किया चाहते हैं इसलिये आप मक्का चले जायें। यदि आप यहाँ रहेंगे तो बीच के लोग[6] आपको हमारे विरुद्ध और हमें आपके विरुद्ध भड़काते रहेंगे जिसका परिणाम अच्छा न होगा।’ अकबर ने जवाब दिया
बैरामखाँ ने सिर झुका कर बादशाह की बात मान ली और उसी समय मक्का जाने के लिये तैयार हो गया। जब बैरामखाँ का परिवार बादशाही हरम के डेरे से निकल कर बाहर आया तो अकबर भी हज पर जाने वाले यात्रियों को विदा देने के लिये अपने डेरे से बाहर निकला। बैरामखाँ ने झुककर अकबर का हाथ चूमा और घोड़े पर सवार हो गया। बहुत ही उदास आँखों से अकबर ने हज पर जाने वाले इन यात्रियों को विदाई दी। उसने बार-बार दृष्टि घुमाकर देखा किंतु सलीमा बेगम दिखाई नहीं दी। जाने किस बुर्के में कैद कर लिया था उसने अपने आप को! बैरामखाँ के साथ अकबर ने अनजाने में एक तरह उसे भी हज पर जाने की आज्ञा दे दी थी जबकि वह कतई नहीं चाहता था कि सलीमा बेगम को किसी तरह का कोई कष्ट हो।
[1] इस स्थान का वास्तविक नाम उस समय कुछ और था जो अब ज्ञात नहीं है।
[2] बैरामखाँ अकबर का अतालीक अर्थात् शिक्षक रहा था। हुमायूँ भी बैरामखाँ को अतालीक कहा करता था।
[3] राजनीति
[4] तुर्क लोग इस प्रकार की आर्थिक सहायता को चन्दूग कहते थे। आज हिन्दुस्थान भर में इस तरह की सहायता के लिये चंदा शब्द का प्रयोग होता है।
[5] चंगेजखां का एक बेटा जगताईखां था। चंगेज खां ने तैमूर के परदादा के बाप ”कराचार नोयां” को चगताईखां का अतालीक बनाया था। इसीसे ”कराचार नोयां” के वंशज चगताई कहलाते थे। तैमूरी बादशाह भी चगताई कहलाते थे।
[6] मध्यस्थ