जब अकबर को ज्ञात हुआ कि बैरामखाँ बागी हो गया है तो उसे माहम अनगा की सारी बातें सही लगने लगीं। अब तक वह जो कुछ भी करता आया था, माहम अनगा के कहने पर ही करता आया था। इसी से उसके मन में हमेशा ग्लानि भाव बना रहता था किंतु जब उसने सुना कि बैरामखाँ ने मक्का जाने का इरादा त्यागकर पंजाब के अमीरों को चिट्ठयां भेजी हैं कि वह अपने शत्रुओं को सबक सिखायेगा तो अकबर ने बैरामखाँ को लम्बा पत्र भिजवाया।
पत्र क्या था! पूरा का पूरा तोपखाना था। इस पत्र ने बारूद को आग दिखाने का काम किया। घृणा और वैमनस्य बढ़ाने का पूरा सामान उसमें मौजूद था। अकबर ने लिखा-
”खानखाना जाने कि तू इस बड़े घराने का पाला हुआ है। हमारे पिता ने तेरी सेवा और भक्ति देखकर तेरी पालना की और हमारी शिक्षा का बड़ा काम तुझे सौंपा। उनके पीछे[1] हमने तेरी[2] पिछली बन्दगी का विचार करके सारे राजकाज तेरे भरोसे पर छोड़ दिये। तूने जो अच्छा बुरा करना चाहा वही किया। यहाँ तक कि इन पाँच वर्षों में कई कुकर्म ऐसे भी किये जिनसे सब लोगों को तुझसे घृणा हो गयी।
तूने शेख गदाई को सारे मौलवियों और सैयदों के ऊपर कर दिया और उसको भी तसलीम[3] करने की माफी दे दी। वह बड़े घमण्ड से घोड़े पर सवार होकर हमसे हाथ मिलाता था। जो अधम सेवक तेरे थे उनको तो तूने खान और सुलतान के खिताब देकर झण्डे, डंके और बड़ी उपज के देश दे दिये और मेरे बाप के अमीरों, खानों और सुलतानों को रोटी का भी मुहताज कर दिया। हमारे दादा के सेवकों को खाने को भी नहीं दिया। जो नौकर हमारी सवारियों और शिकारों में दौड़ते थे उनके प्राणों पर बनी हुई थी। अपने नौकरों को तो तू कुछ भी नहीं कहता था जो भांति-भांति के अपराध करते थे। हमारे नौकरों को मारने और उनके घर लूटने में तू कोई देर नहीं करता था।
हुसैन कुली ने कभी मुर्गे तक से पंजा नहीं लड़ाया था किंतु तूने[4] उसे सबसे अच्छी जागीरें दीं। फिर इन दिनों में तो तूने ऐसे-ऐसे अनाचार किये जिनसे हमको क्लेश ही क्लेश होता जाता था। और तो क्या जो थोड़े से लोग हमारे पास रह गये थे, हमको तू उनसे भी अलग करना चाहता था। इसलिये हम आगरे से दिल्ली चले आये और तुझे लिखा कि कुछ ऐसे पेच पड़ गये हैं कि तू हमसे मिल नहीं सकता। हम तुझसे इतना दुःख पाकर भी तुझको वैसा ही बैरामखाँ जानते हैं और तेरे चित्त की शांति के लिये शपथ करते हैं। तेरे धन और प्राण हरने का हमारा विचार कदापि नहीं है परन्तु हम राजकाज स्वयं ही किया चाहते हैं।
इसके सिवा तेरा और जो मनोरथ हो अरजी में लिख भेज। जिस रीति से हम योग्य समझेंगे हुक्म देंगे। तू हमारे घर में पला है और हमारा हुक्म मानना तेरा धर्म है। तुझे आदेश दिया जाता है कि जो लोग तुझे हमारे विरुद्ध भड़काते हैं उन्हें पकड़ कर हमारे पास भेज दे। यदि तूने हमारी सलाह पर विचार नहीं किया तो हम स्वयं सेना सजा कर आयेंगे और तुझको नष्ट कर देंगे। हमारे उदय का समय है और तेरे नष्ट होने का। हम जीतेंगे और तू हारेगा। पछतावेगा और पकड़ा जावेगा। तुझे सलाह दी जाती है कि तू अपनी वास्तविक स्थिति पर विचार करे। जिन सेवकों को तू पाँच वर्ष तक पालता रहा और भाई-बेटा कहता रहा, वे सब बिना ही किसी कारण के तुझे छोड़कर हमारी सेवा में आ गये हैं। जो रह गये हैं वे भी जल्दी ही चले आयेंगे।”
बैरामखाँ इस पत्र को पढ़कर और भी भड़क गया। उसने अपनी स्त्रियों, बालक अब्दुर्रहीम और सम्पत्ति को भटिण्डा दुर्ग में छोड़ा। भटिण्डा दुर्ग का जागीरदार शेर मुहम्मद दीवान बैरामखाँ का निज सेवक था। जैसे ही बैरामखाँ अपनी सेना लेकर दिल्ली की ओर बढ़ा। शेर मुहम्मद ने दगा करके बैरामखाँ की सम्पत्ति दबा ली तथा उसकी स्त्रियों और बच्चों को पकड़ कर अकबर के पास ले गया।
अब तो पूरी तरह बारूद को आग दिखा दी गयी थी। अपनी मान-मर्यादा को इस तरह धूल में मिलते देखकर सत्ता का चतुर खिलाड़ी बैरामखाँ एक बार फिर से खून की होली खेलने को तैयार हो गया। इस बार उसका निशाना निरपराध लोगों की खोपड़ियाँ न होकर दुष्ट माहम अनगा की शैतान खोपड़ी थी जिसने बैरामखाँ की सरकार को च्युत करके हरम सरकार बनाकर हरामजादगी की सभी हदें पार कर ली थीं।
[1] हुमायूँ के बाद।
[2] खानखाना की।
[3] झुक कर सलाम करना।
[4] बैरामखाँ ने।