जहाँ एक ओर भाग्यलक्ष्मी बैरामखाँ पर मेहरबान हुई वहीं दूसरी ओर हुमायूँ के उन पुण्यकर्मों के नष्ट होने का समय आ गया था, जिनके कारण वह बादशाह बना था। इसलिये प्रारब्ध ने उसे कर्मनासा नदी की ओर खींचना आरंभ किया।
जिन दिनों हुमायूँ चांपानेर के दुर्ग में रंगरेलियां मनाने में व्यस्त था, उन्हीं दिनों खबर आई कि बादशाह को गुजरात में व्यस्त जानकर बंगाल और बिहार में शेरखा नामका पठान उत्पात मचा रहा है। उसने सहसराम, रोहतास और चुनार के दुर्ग हथिया लिये हैं। हुमायूँ ने इन समाचारों की कोई परवाह नहीं की और वह राजधानी आगरा के लिये रवाना हो गया। राजधानी में सरदारों ने हुमायूँ को मजबूर किया कि वह शेरखा को दण्डित करने के लिये बंगाल पर आक्रमण करे।
हुमायूँ को रंगरेलियां मनाने, दावतें करने और सरदारों को खिलअतें बांटने के अलावा कुछ सूझता नहीं था फिर भी कर्मनासा नदी उसे खींच रही थी अतः अमीरों के दबाव में उसने बंगाल की ओर प्रस्थान किया। बादशाह को आया जानकर शेरखा अपने बेटे जलालखाँ को चुनार दुर्ग में छोड़कर बंगाल भाग गया। हुमायूँ ने बैरामखाँ को चुनार दुर्ग पर चढ़ाई करने भेजा।
चुनार दुर्ग की प्राकृतिक बनावट ऐसी है कि इस दुर्ग को शेरखा जैसे प्रबल बैरी से हस्तगत करना सरल न था। छः माह तक भी जब कोई बात नहीं बनी तो बैरामखाँ ने एक चाल चली। उसने अपने एक अफ्रीकी गुलाम लड़के को खूब सारा धन देकर उसका विश्वास अर्जित किया। अफ्रीकी गुलाम बैरामखाँ की योजना पर काम करने को तैयार हो गया। बैरामखाँ ने अफ्रीकी गुलाम को कोड़ों से इतना पीटा कि उसकी खाल उधड़ गयी। इसके बाद अफ्रीकी गुलाम को चुनार के किले की ओर धकेल दिया।
जलालखाँ के सिपाहियों को अफ्रीकी गुलाम की हालत पर दया आ गयी। उन्होंने उसे किले में प्रवेश दे दिया। अफ्रीकी गुलाम कुछ दिन किले में रहकर और किले का सारा नक्शा और हाल-चाल जानकर किले से भाग आया। उसने बैरामखाँ को बताया कि नदी की ओर से किले में घुसना आसान है। बैरामखाँ ने अपने तोपखाने को नावों में रखवाया और एक रात अचानकर हमला बोल दिया। जलालखाँ की सेना घुटने टेकने पर मजबूर हो गयी। बैरामखाँ ने शेरखा के तोपचियों के हाथ काट लिये।
चुनार पर अधिकार होने के बाद हुमायूँ फिर से विलासिता में डूब गया। अवसर पाकर शेरखा ने बंगाल में अपनी स्थिति मजबूत कर ली। इधर हुमायूँ अपनी रंगरलियों में व्यस्त हो गया और उधर उसके भाई मिर्जा हिन्दाल ने जिसे हुमायूँ ने बिहार में तैनात किया था, उत्तरी बिहार शेरखा को सौंप दिया और चुपके से आगरा पहुँच कर अपने आप को बादशाह घोषित कर दिया। यह समाचार पाकर हुमायूँ आगरा की ओर लौटा। उसने अपने पाँच हजार सैनिक बंगाल की सुरक्षा के लिये छोड़ दिये और जल्दी से जल्दी आगरा पहुँचने की उतावली में मुख्य मार्ग[1] से आगरा की ओर चला।
अमीरों ने हुमायूँ को मना किया कि वह इस मार्ग से न जाये क्योंकि इस मार्ग पर शत्रु सेना उसे आसानी से घेर लेगी किंतु प्रारब्ध अपना खेल खेल रहा था। कर्मनासा नदी उसे अपनी ओर खींच रही थी। कहा जाता है कि इस नदी में नहाने वाले के समस्त पुण्यकर्म नष्ट हो जाते हैं, इसीलिये इसे कर्मनासा कहा जाता है। हालांकि कुदरत ने मध्य एशियाई मंगोलों का भाग्य उनके पुण्यकर्मों से नहीं उनकी खूनी ताकत से लिखा था किंतु हुमायूँ की आधी खूनी ताकत तो हिन्दुस्तान की आबोहवा ने खत्म कर दी थी और बची-खुची ताकत कर्मनासा ने नष्ट कर दी।
जब शेरखा को यह समाचार मिला कि हुमायूँ आगरा लौट रहा है तो वह हुमायूँ के पीछे लग गया। जब हुमायूँ गंगाजी को पार करके कर्मनासा के किनारे पहुँचा तो शेरखा ने हुमायूँ को घेर लिया। हुमायूँ तीन माह तक सिर पर हाथ धर कर चौसा में बैठा रहा। कर्मनासा में नहाकर उसकी सारी खूनी ताकत खत्म हो चुकी थी। उसके सरदारों ने कहा कि आगे बढ़कर शेरखा पर हमला करे किंतु हुमायूँ की हिम्मत नहीं हुई तब तक वर्षा आरंभ हो गयी जिससे हुमायूँ का तोपखाना किसी काम का न रहा। शेरखा को इसी परिस्थिति की प्रतीक्षा थी।
एक रात जब भारी वर्षा हो रही थी, शेरखा ने अचानक तीन ओर से हुमायूँ पर आक्रमण किया। हुमायूँ के आठ हजार सैनिक मार दिये गये। बाकी के सैनिक जान बचाकर भाग गये। हुमायूँ की बेगमें और लड़कियाँ भी मारी गयीं। कुछ बेगमें शेरखा के हाथ लग गयीं। खूनी ताकत के नष्ट हो जाने से हुमायूँ बुरी तरह परास्त हुआ। जिन तोपों और बंदूकों के बल पर बाबर ने बड़े से बड़े शत्रु को परास्त कर दिया था। हुमायूँ उनमें से एक भी तोप और बंदूक नहीं चला सका।
मारे डर के वह कर्मनासा की ओर न भागकर गंगाजी की ओर भागा और घोड़े सहित नदी में कूद गया। घोड़ा कुछ दूर तक हुमायूँ को लेकर नदी में आगे बढ़ा किंतु अपने स्वामी को मंझधार में छोड़कर डूब गया। एक भिश्ती ने किसी तरह हुमायूँ की जान बचाई। बाबर ने हिन्दुस्थान का जो राज पानीपत, खानवा और चंदेरी के मैदानों में प्राप्त किया था, हुमायूँ ने वह राज कर्मनासा के किनारे खो दिया।
चौसा में परास्त होकर हुमायूँ पीछे फिरा किंतु भोजपुर के भईया गाँव में एक बार फिर उसका सामना शेरखा की सेना से हुआ और वहाँ भी वह परास्त हो गया। हुमायूँ फिर पीछे मुड़ा। कन्नौज के पास एक बार फिर उसने शेरखा से मात खाई। हुमायूँ लगातार हारता रहा और आगरा की तरफ भागता रहा। अपनी इस पलायन यात्रा में उसने अनुभव किया कि यदि बैरामखाँ जैसा स्वामिभक्त सेवक न होता तो वह आगरा कभी न पहुँच पाता।
शेरखा हुमायूँ के पीछे लगा रहा और हुमायूँ को आगरा से लाहौर की तरफ भाग जाना पड़ा। लाहौर में भी वह अपने भाई कामरान के भय से टिक नहीं सका और सिंध की ओर भागने के लिये मजबूर हुआ। सिंध के मरुस्थल में भटकता हुआ वह शेख अली अम्बर जामी का मेहमान हुआ। जब उसकी दृष्टि शेख अली अम्बर की बेटी हमीदा बानू पर पड़ी तो एक बार फिर उसकी खूनी ताकत कसमसाई और वह हमीदा बानू के पीछे लग गया। हमीदाबानू उस समय मात्र चौदह साल की थी और वह हुमायूँ के भाई हिन्दाल की मुँहबोली बहिन था। हमीदा बानू ने कहा कि उसके हाथ मुश्किल से ही हुमायूँ के गले तक पहुंच सकते हैं लेकिन हुमायूँ अपनी जिद पर अड़ा रहा। शेख अली अम्बर ने मजबूर होकर हमीदाबानू का विवाह हुमायूँ के साथ कर दिया। एक साल बाद इसी हमीदाबानू के गर्भ से अकबर का जन्म हुआ।
[1] अब यह मार्ग ग्राण्ड ट्रंक रोड कहलाता है।
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