Thursday, November 21, 2024
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साईं बाबा की पूजा क्या जबर्दस्ती करवाओगे!

कुछ लोग हिन्दू धर्म की उदारता का गलत फायदा उठाकर हिन्दुओं से साईं बाबा की पूजा जबर्दस्ती करवाना चाहते हैं।

हिन्दू धर्म दुनिया का ऐसा उदार धर्म है जो मिट्टी, पानी, आग और पहाड़ से लेकर कुत्ते, सांप, गधे, साण्ड, उल्लू, गीध, कौए और कंटीली झाड़ी तक की पूजा करने की न केवल अनुमति देता है, अपितु परमात्मा को पाने के लिए इस तरह की पार्थिव पूजाओं को प्रोत्साहित भी करता है।

हम आकाश, वायु, अग्नि, जल, धरती की पूजा पंचमहाभूतों के रूप में करते हैं। आकाश में स्वतः उत्पन्न होने वाली ओंकार ध्वनि को को तो परम-पिता परमेश्वर की ही ध्वनि मानते हैं। आकाश में दिखने वाले नक्षत्रों को देवी-देवता मानकर उनकी पूजा करते हैं।

सदियों से हम सूर्य को विष्णु का साक्षात स्वरूप मानकर और चंद्रमा को चंद्रदेव मानकर अर्घ्य देते हैं। हम विविध नक्षत्रों की प्रसन्नता के लिए ना-ना प्रकार के अनुष्ठान करते हैं, सूर्यग्रहण और चंद्रग्रहण के दिन दान-पुण्य करके सूर्यदेव और चंद्रदेव को कष्ट न हो, इस हेतु भगवान की पूजा करते हैं।

हम भगवान के विराटतम स्वरूप को वैश्वानर का रूप मानते हैं जिसका अर्थ है कि वह चींटी से लेकर हाथी तथा मनुष्य से लेकर देवताओं तक में एक जैसा ही विराजमान है।

हिन्दू जाति अनादि काल से नदी, वृक्ष एवं पर्वतों की पूजा देवी-देवताओं के रूप में करती है। नदी तटों और नदियों के संगम स्थलों को तीर्थों के रूप में पूजते हैं और अपने पूर्वजों के अवशेष नदियों को जाकर समर्पित करते हैं ताकि हमारे पूर्वजों की आत्मा को शांति और मुक्ति मिले।

करोड़ों हिन्दू अपने घर में बनने वाले भोजन का सर्वप्रथम अंश नित्य ही अग्नि को देव मानकर समर्पित करते हैं। उसे पंचयज्ञों में सम्मिलित करते हैं। गेहूँ की पहली बाली होली के दिन अग्नि देव को समर्पित करते हैं।

घर में आने वाली मिठाई का पहला अंश सब जीवों के निमित्त धरती पर गिराया जाता है। यह भी पंचयज्ञों में से एक यज्ञ माना जाता है।

हिन्दू जाति ने भगवान विष्णु का मत्स्यावतर मानकर मछली के रूप में पूजा, कूर्म अवतार मानकर कछुए के रूप में पूजा, वराह अवतार मानकर सूअर के रूप में पूजा, नृसिंह अवतार मानकर आधे सिंह के रूप में पूजा। पुराणों में भगवान विष्णु के हयग्रीव अवतार का उल्लेख है जो वेदों की रक्षा के लिए हुआ था। हयग्रीव का अर्थ होता है घोड़े की गर्दन वाला भगवान। हम बंदर में हनुमानजी के दर्शन करते हैं।

हिन्दू जाति नाग को देवता कहकर पूजती है। शेषनाग को विष्णु का सबसे बड़ा सेवक और छत्र मानती है जिसके फन पर धरती टिकी हुई है। शिवजी के गले में सांप झूलते हैं। इससे अधिक और क्या आदर सांप जैसे प्राणी को दिया जा सकता है!

हिन्दू जाति साण्ड को नंदी बाबा कहकर धोकती है। धरती पर रहने वाले करोड़ों करोड़ हिन्दू गाय को न केवल इंसानों की अपितु देवताओं तक की माता मानते हैं। कृष्णजी को प्रसन्न करने के लिए बछड़ों की पूजा करते हैं।

हम बैल को भगवान भोले नाथ की सवारी मानते हैं और शेर को दुर्गाजी का वाहन मानकर पूजते हैं। कुत्ते को भैंरूजी का वाहन मानकर पुए खिलाते हैं। भैंसे को यमराज का वाहन मानकर आदर देते हैं।

शीतला सप्तमी के दिन हम गधे पर सवार शीतला माता की पूजा करते हैं। चींटियों के लिए कीड़ी नगरा सींचते हैं। पक्षियों के लिए नित्य ही धान उछालते हैं।

मोर को कार्तिकेय का वाहन मानकर मूंग चुगाते हैं। हंस को सरस्वती का वाहन मानकर नमस्कार करते हैं। गरुड़जी को न केवल भगवान विष्णु का वाहन मानकर अपितु भगवान विष्णु का सबसे बड़ा सेवक मानकर धोकते हैं। उल्लू तक को माता लक्ष्मी का वाहन मानकर आदर देते हैं।

करणीमाता के मंदिर में चूहों को देवी के भक्त मानकर आदर दिया जाता है।

हम पीपल के पेड़ को साक्षात् वासुदेव मानकर सींचते हैं। बड़ मावस के दिन वटवृक्ष को पूजते हैं और उसे पकवान समर्पित करते हैं। हम किसी भी पत्थर में भगवान की कल्पना करके पत्रं, पुष्पं, फलं, तोयं से उसकी पूजा करते हैं। किसी भी पत्थर पर सिंदूर चढ़ाकर उसे हनुमानजी और दुर्गाजी के रूप में पूजते हैं।

अपने हर देवालय में हमने पत्थर की मूर्ति रख रखी है और उसके समक्ष दण्डवत् होकर परमात्मा की शरण में जाते हैं।

पीली कनेर में दुर्गाजी का, लाल कनेर में लक्ष्मीजी का और सफेद कनेर में माँ सरस्वती का वास मानते हैं। केले के पेड़ को साक्षात् विष्णु मानकर पूजते हैं, यहाँ तक कि खेजड़ी के कंटीले पेड़ और बेर की कंटीली झाड़ियों तक की पूजा करते हैं।

हम वेदों को भी भगवान की वाणी मानते हैं, वेदों को साक्षात् भगवान मानते हैं, रामायण और गीता को भी देवियों की तरह मानकर उनका अभिनंदन करते हैं।

इन उदाहरणों के अतिरिक्त और जो कुछ भी आपको प्रकृति में दिखाई देने वाला जीव-जंतु, पेड़-पौधा और झाड़ी से लेकर किसी भी प्रकार की प्राकृतिक रचना दिखाई दे जाए, हिन्दू उस सबकी पूजा करता आया है और यही उसके हृदय की विशालता, चित्त की उदारता और मस्तिष्क का वैराट्य है।

हिन्दू धर्म में इतनी व्यापकता मौजूद होते हुए भी, हम किसी अहिन्दू फकीर अर्थात् साईं बाबा को भगवान की तरह नहीं पूज सकते! हमने अपने मंदिरों में पत्थरों को भगवान माना किंतु हाड़-मांस से बने किसी आदमी को भगवान नहीं माना। हमने शिव, विष्णु और दुर्गा के अवतारों को तो भगवान माना किंतु किसी फकीर, उपदेशक को भगवान नहीं माना।

राम चरित मानस में कहा गया है कि ईश्वर की आराधना के लिए स्मरण करते ही सरस्वती विधाता का घर छोड़कर दौड़ पड़ती है-

भगति हेतु बिधि भवन बिहाई। सुमिरत सारद आवत धाई।

किंतु यदि सरस्वती देखती है कि मनुष्य ईश्वर को छोड़कर प्रकृति में उत्पन्न सामान्य मनुष्य का गुणगान कर रहा है तो वह सिर धुन कर पश्चाताप करने लगती है-

कीन्हें प्राकृत जन गुन गाना, सिर धुनि गिरा लगत पछताना।

हिन्दू धर्म में बड़े-बड़े साधु-संतों की कमी नहीं है। हमने कपिल मुनि और वेदव्यास से लेकर शंकराचार्य, कबीर, मीरा, तुलसी, तुकाराम, ज्ञानेश्वर, एकनाथ और सूरदास आदि संतों को भगवान की तरह आदर दिया।

हमने रहीमदास, रसखान, चांदबीबी और ताज बीबी जैसे मुसलमान संतों पर कोटिन्ह हिन्दू वारिए कहकर उनके चरण पकड़े किंतु उन्हें मंदिरों में लाकर नहीं पूजा। ऐसे हजारों उदाहरण दिए जा सकते हैं।

ठीक इसी तरह चांद खाँ उर्फ साईं बाबा को हम फकीर मानकर आदर तो दे सकते हैं किंतु चांद खाँ को शिव, विष्णु और दुर्गा के समकक्ष बैठाकर पूज नहीं सकते। अपने सनातन धर्म के मंदिरों में स्थापित नहीं कर सकते।

संभवतः अब तक बात स्पष्ट हो गई होगी कि हम चांद खाँ उर्फ साईं बाबा को फकीर मानकर क्यों आदर दे सकते हैं किंतु ईश्वर मानकर क्यों नहीं पूज सकते! इस पर भी यदि किसी को उन्हें र्साईंबाबा मानकर पूजना ही है तो उन्हें कौन रोकता है, वे साईंबाबा के लिए अलग मंदिर बनवाएं।

कबीर पंथियों ने भी तो अपने अलग कबीर द्वारे बना रखे हैं। आर्य समाजियों ने भी तो अपने अलग आर्य समाज बना रखे हैं। सिक्खों ने भी अपने अलग गुरुद्वारे बना रखे हैं, बौद्धों ने बौद्धमंदिर बना रखे हैं। जैनों ने भी जैन मंदिर अलग बना रखे हैं।

अलग पूजा स्थलों के बावजूद हिन्दू जाति कबीर पंथियों, आर्य समाजियों, सिक्खों, बौद्धों, जैनों आदि को हम हिन्दू धर्म के अंदर ही मानते हैं और उन्हें पूरा सम्मान देते हैं।

यह कैसी हठधर्मिता है कि जो लोग किसी फकीर की पूजा नहीं करना चाहते और जिन्होंने सनातन धर्म की मूल अवधारणा के अनुसार देवी-देवताओं के मंदिर बनाए हैं, उन मंदिरों में जबर्दस्ती किसी फकीर की मूर्ति रखकर उसकी पूजा सनातनियों से कराना चाहते हैं।

जब सनातनी भक्त अहिन्दू फकीर की मूर्ति को अपने मंदिर में रखने पर आपत्ति करते हैं तो वे जबर्दस्ती करने लगते हैं।

कबीरपंथी, आर्य समाजी, जैन, बौद्ध, सिक्ख कोई भी अपने मत की मूर्तियों को सनातनियों के मंदिरों में रखने का दुराग्रह नहीं करता।

हिन्दू धर्म के लोग अहिन्दू फकीर की मूर्तियां हटाना चाहते हैं किंतु दो संस्थाएं इसमें बाधक बनती हैं, एक तो भारत की कानून व्यवस्था जो संविधान की कोई न कोई धारा बताकर और  धर्मनिरपेक्षता का कानून दिखाकर, हिन्दूधर्म की उपेक्षा करती है और दूसरी है भारत की राजनीतिक व्यवस्था जो वोटों के लालच में किसी भी ऐसे व्यक्ति को नाराज नहीं करना चाहती जो हिन्दू धर्म का नुक्सान करता है। 

यदि चांद खाँ उर्फ साईं बाबा के भक्तों को सब धर्मों में इतनी ही एकता दिखाई देती है तो ये साईंभक्त मस्जिदों, गिरजाघरों, गुरुद्वारों, कबीरद्वारों आदि में साईं की मूर्ति ले जाकर क्यों नहीं रखते। इनका सारा जोर सनातन मंदिरों का स्वरूप बदलने पर ही क्यों लगा हुआ है। लगता है कि इसके पीछे कोई दुराभिसंधि काम कर रही है!

देश और कानून की परिस्थितियां जो भी हों, सनातन धर्म को अपने मूल सिद्धांत पर दृढ़ रहना चाहिए। सनातन धर्म के मूल उद्घोषों में से एक यह भी है- धर्मो रक्षति रक्षितः। अर्थात् जो अपने धर्म की रक्षा करता है, धर्म उसकी रक्षा करता है।

कहा भी गया है- जो दृढ़ राखे धर्म को तेहि राखे करतार।

हिन्दू धर्म के बड़े रक्षक गुरु गोबिंदसिंह ने भी कहा है- सकल जगत में खालसा पंथ गाजै, जगै हिन्दू धर्म सब भण्ड भाजै।

साईं बाबा की पूजा करने से न तो यह लोक सुधरेगा और न परलोक। अपने धर्म में बने रहिए। गीता में कहा गया है- स्वधर्मे निधनं श्रेयं, परधर्मे मृत्यु भयावहाः।

-डॉ. मोहनलाल गुप्ता

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