नागों के इस विवर में अघोषित अतिथि के रूप में रहते हुए प्रतनु को कई दिन हो गये हैं। अघोषित अतिथि के रूप में वह विविध प्रकार का आनंद भोग रहा है किंतु रानी मृगमंदा के दर्शन उस भेंट के पश्चात् पुनः नहीं पा सका है। अनन्य सुंदरी और कमनीय मृगमंदा का रूप-लावण्य रह-रह कर उसकी आंखों में कौंध जाता है। इसी कौंध के बीच उसे कभी-कभी नृत्यांगना रोमा का चेहरा भी दिखाई दे जाता है।
प्रतनु को लगता है कि यदि नृत्यांगना रोमा यहाँ होती तो अवश्य ही रानी मृगमंदा के प्रश्न का उत्तर दे चुकी होती। वह स्वयं कई बार जाकर उस प्रतिमा को देख चुका है किंतु प्रतिमा का रहस्य लगातार गहराता ही जा रहा है। किसकी हो सकती है यह प्रतिमा! यही प्रश्न उसे दिन रात उद्विग्न किये रहता है।
किसी सामान्य व्यक्ति के लिये तो यह प्रश्न निःसंदेह कठिन होता किंतु वह तो स्वयं शिल्पी है। सैंधव सभ्यता का सुविख्यात और निष्णात शिल्पी जिसने केवल एक ही प्रतिमा का निर्माण कर सैंधवों की राजधानी मोहेन-जो-दड़ो में कौतूहल उत्पन्न कर दिया था। उसकी बनाई केवल एक प्रतिमा को देखकर पशुपति महालय का प्रधान पुजारी किलात इतना भयभीत हो गया था कि उसने प्रतनु को दो वर्ष के लिये राजधानी से ही निष्कासित कर दिया। उसी एक प्रतिमा को देखकर सर्वांग सुंदरी नृत्यांगना रोमा उस के प्रति आसक्त हो गयी थी। आज उसी अप्रतिम शिल्पी की ऐसी दशा! वह इतना भर बता पाने में समर्थ नहीं कि सामने दिखाई देने वाली प्रतिमा इन तीन यौवनाओं में से किसकी है!
बार-बार सोचता है प्रतनु। ऐसा क्यों है! यह प्रतिमा उसे उन तीनों यौवनाओं की तरह दिखाई देती है किंतु उसे इन तीनों में से किसी की भी प्रतिमा नहीं कहा जा सकता। प्रतनु जब भी प्रतिमा का मिलान उनमें से किसी एक से करना चाहता है तो प्रतिमा उससे साम्य रखते हुए भी उसकी प्रतीत नही होती। कैसी जटिल प्रहेलिका है यह! प्रतनु इस विषय पर जितना-जितना सोचता जाता है, उतना ही अधिक उलझता जाता है।
इसी प्रहेलिका का हल पाने की उधेड़-बुन में लगा प्रतनु अतिथि प्रासाद से बाहर आ गया है। संभवतः उपवन की स्वस्थ वायु उसके मस्तिष्क को चैतन्य करे। इस मायावी विवर की मायावी सृष्टि में हर वस्तु उसके लिये प्रहेलिका का रूप ले लेती है। अपने प्रासाद से निकल कर जब वह आग्नेय कोण में स्थित जल यंत्र तक पंहुचा तो उसने देखा कि मृगमंदा के अनुचर यंत्र को चला रहे हैं। वर्तुलाकार घूमने वाली रज्जुओं से बंधे रिक्त अयस-पात्र कूप के भीतर पहुँच कर जब पुनः लौटकर बाहर आते हैं तो ऊँचाई पर पहुँच कर निर्मल जल की धार छोड़ते हैं। इस क्रम के निरंतर चलने से निर्मित जल की मोटी धारा नालिका में पहुँच कर ईशान कोण के मायावी सरोवर की दिशा में प्रवाहित होने लगती है। जल राशि से उत्पन्न श्वेत फेन जल से पहले ही सरोवर तक पहुँच जाना चाहते हैं।
नालिका में तीव्रता से बहे जा रहे श्वेत फेन का पीछा करता हुआ प्रतनु मायावी सरोवर तक जा पहुँचा। जैसे ही उसने दृष्टि ऊपर उठाई तो आश्चर्य से जड़ हो कर रह गया। उसने देखा कि संसार के समस्त क्रियाकलापों से पूरी तरह निरपेक्ष, पूरी तरह मुक्त और पूरी तरह र्निद्वंद्व रानी मृगमंदा अपनी सखियों के साथ मायावी सरोवर में जलविहार में संलग्न है। रानी मृगमंदा और उसकी सखियाँ जल-कुररियों [1]की भांति सरोवर के एक कोण से दूसरे कोण तक तैरती हुई एक दूसरे से आगे निकल जाने की स्पर्धा कर रही हैं। रानी मृगमंदा की गति असाधारण रूप से तीव्र है। उसकी सखियाँ बार-बार उससे पीछे छूट जाती हैं।
प्रतनु को लगा कि जिस प्रकार रात्रि के समय स्वच्छ नील आकाश में तैरता हुआ चंद्रमा अन्य नक्षत्रों को पीछे छोड़ता हुआ चला जाता है उसी प्रकार रानी मृगमंदा अपनी सखियों को लगातार पीछे छोड़कर सरोवर के एक कोण से दूसरे कोण तक पहुँच जाती है। निऋति, हिन्तालिका और अन्य सखियाँ पराजय स्वीकार नहीं करना चाहतीं। वे रानी मृगमंदा पर नियम भंग करने का आरोप लगाती हैं। रानी मृगमंदा फिर से उन्हें ललकारती है और फिर से वही स्पर्धा आरंभ हो जाती है। फिर रानी मृगमंदा आगे निकल जाती है।
जल किल्लोल में संलग्न इन नागकन्याओं को देखकर प्रतनु को स्फटिक पर उत्कीर्ण प्रतिमा का स्मरण हो आया। कुछ-कुछ इसी तरह का दृश्य तो है वह। अचानक जैसे प्रतनु के मस्तिष्क रूपी आकाश में चेतना की विद्युत कौंधी। इस कौंध से उत्पन्न नवीन आलोक में प्रतनु ने जो कुछ देखा वही तो, ठीक वही तो वह इतने दिन से खोज रहा था।
हुआ यह कि सरोवर के कोण पर फिर से सर्वप्रथम पहुँचने के उल्लास में रानी मृगमंदा ने अंजुरि में जल भर कर अपनी दोनों बाहुएं ऊँची कीं और ढेर सारा जल आकाश में उछाल दिया। नीलमणि जल के सहस्रों बिंदु आकाश में छितरा गये। मानो किसी वृक्ष से सहस्रों पक्षी एक साथ आकाश में उड़ गये हों। प्रतनु को प्रतीत हुआ कि आकाश में छितरा गये जलबिन्दु रूपी पक्षियों की फड़फड़हट सुनकर आकाश में उठी दोनों बाहुओं के मध्य स्थित सुवलय रूपी पक्षी भी अचानक कसमसा कर नींद से जाग पड़े और भयभीत हो अपने चंचु उठाकर आकाश में ताकने लगे। नीचे गिरते जल बिंदुओं को देख रहे निर्ऋति के नेत्र इस प्रकार स्थित हो गये मानो दो मत्स्य आकाश से गिरने वाले स्वाति जल को ग्रहण करने के लिये प्रस्तुत हों। गिरते हुए जल बिन्दुओं को अंजुरि में भर लेने के प्रयास में हिन्तालिका की देह कटि प्रदेश तक जल से बाहर निकल आई। उसके क्षीण कटि प्रदेश पर सुशोभित नाभि के तीनों वलय जल के झीने आवरण को त्याग कर स्पष्ट दिखाई देने लगे।
यही तो, ठीक यही रहस्य तो प्राप्त करने का प्रयास कर रहा है प्रतनु इतने दिनों से। प्रतनु के मुख पर स्मित मुस्कान दिखाई देने लगी। श्वेत स्फटिक पर उत्कीर्ण प्रतिमा का रहस्य खुल चुका है। प्रतनु रानी मृगमंदा के तीसरे प्रश्न का उत्तर पा चुका है। वह दबे पांव अपने प्रासाद में लौट आया।
उसी रात प्रतनु रानी मृगमंदा की सेवा में उपस्थित हुआ। उसने मृगमंदा को बताया कि श्वेत स्फटिक प्रतिमा पर उत्कीर्ण प्रतिमा का मुख रानी मृगमंदा का है किंतु नेत्र निर्ऋति के हैं। दोनों बाहुएं हिन्तालिका की हैं किंतु उनके मध्य स्थित सुवलय रानी मृगमंदा के हैं। क्षीण कटि प्रदेश निऋ्र्रति का है किंतु उस पर उत्कीर्ण त्रिवलीय नाभि हिन्तालिका की है। प्रतनु का उत्तर सुनकर रानी मृगमंदा आश्चर्य से जड़ रह गयी। जाने कितने पुरुष अब तक इस प्रश्न का उत्तर न दे पाने के कारण अनुचर बनकर रानी मृगमंदा की सेवा में संलग्न हैं किंतु यह पहला पुरुष है जिसने प्रतिमा के रहस्य को तोड़ा है। निश्चय ही प्रतनु प्रतिबंध [2] जीत चुका है। रानी मृगमंदा ने उसी क्षण प्रतनु को अपना अतिथि घोषित किया और स्वयं अनुचरी के रूप में प्रतनु की सेवा में प्रस्तुत हो पूछने लगी कि वह अपने विलक्षण अतिथि को किस सेवा से संतुष्ट कर सकती है!
[1] मादा क्रौंच, एक जलचर पक्षी।
[2] शर्त।