गोप सुरथ ने सभा में अपना मंतव्य प्रस्तुत किया- ‘जिस प्रकार समस्त आर्य प्रजा परिवार में, परिवार कुल में, कुल ग्राम में, ग्राम विश में तथा विश जन में संगठित हैं उसी प्रकार जन, जनपद में संगठित हों और जनपद महाजनपद में संगठित हों। संगठित जनपद एवं महाजनपद एक दूसरे को रक्षण एवं सहयोग देते हुए असुरों, यातुधानों, दैत्यों, दानवों तथा द्रविड़ों का प्रतिरोध करें। उनकी अनाचार प्रवृत्तियों को प्रसारित होने से रोकें। उनका बल क्षीण करें। उन्हें कुमार्ग छोड़कर सद्मार्ग पर चलने के लिये प्रेरित करें।’
– ‘और यदि वे सद्मार्ग पर चलने के लिये प्रेरित न हों तो ?’ आर्य पूषण ने प्रश्न किया।
– ‘तो जनपदों और महाजनपदों की संगठित शक्ति उन्हें सद्मार्ग पर चलने के लिये विवश करे।’ गोप सुरथ के स्वर में किंचित् उत्तेजना थी।
– ‘और यदि विवश न कर सकें तो ?’ ये आर्य सुनील हैं जो आर्य सुरथ के सबसे बड़े प्रशंसक और अनुयायी हैं। उन्हें आर्य सुरथ की योजनायें विस्मयकारी एवं व्यवस्थायें अनुकरणीय लगती हैं किंतु आर्य सुनील का स्वभाव है कि जब तक उन्हें किसी योजना अथवा व्यवस्था का सम्पूर्ण आशय समझ में नहीं आ जाता वे उसे स्वीकार नहीं करते।
– ‘तो बलपूर्वक उनका शिरोच्छेद करें।’ गोप सुरथ ने बिना किसी संशय के समाधान किया।
– ‘हाँ, यही उपाय उचित है।’ आर्य अतिरथ ने आर्य सुरथ की योजना का स्वागत किया।
– ‘किंतु यह तो हिंसा हुई। जिसके लिये ऋषिजन एवं आप स्वयं भी सदैव वर्जना करते रहते हैं।’ आर्य सुनील ने शंका व्यक्त की।
– ‘बड़ी हिंसा को रोकने के लिये यदि छोटी हिंसा आवश्यक हो जाये तो छोटी हिंसा करके बड़ी हिंसा रोक लेनी चाहिये। हिंसा को प्रत्येक स्थिति में त्याज्य मानकर हिंस्रक व्यक्तियों अथवा हिंस्रक पशुओं को निर्भय घूमने देना उचित नहीं है। ऐसा करके तो हम छोटी हिंसा से बचकर बड़ी हिंसा को आमंत्रित कर रहे हैं।’
– ‘क्या किसी बड़ी हिंसा की आशंका निकट है।’ ऋषि पर्जन्य ने चिंता व्यक्त की।
– ‘यदि निकट नहीं है तो दूर भी नहीं है।’
– ‘इसका क्या अर्थ हुआ आर्य सुरथ।’ आर्या पूषा ने प्रश्न किया। यातुधानों के चंगुल से छूटने के बाद आर्या पूषा कई दिनों तक रुग्ण रही हैं किंतु इधर कुछ दिनों से वे पुनः स्वस्थ होकर सभा-समिति में भाग लेने लगी हैं।
– ‘आप सब देख रहे हैं कि चारों ओर असुर, यातुधान, दैत्य और दानव तेजी से फैलते जा रहे हैं। असुरों ने सोम को नष्ट कर दिया है। असुरों के प्रभाव में व्रात्य, द्रविड़, यक्ष, गंधर्व, विद्याधर, किरात, निषाद तथा अन्य संस्कृतियाँ भी दूषित होती जा रही हैं। उनमें माँस भक्षण, गौ वध, सुरापान और वामाचार तेजी से पनप रहा है। यहाँ तक कि नाग और गरुड़ आदि आर्य प्रजायें भी आसुरी संस्कृति के प्रभाव में आकर अग्निहोत्र का परित्याग कर रही हैं। बहुत सी प्रजाओं में नग्न नारी प्रतिमाओं के पूजन का प्रचलन बढ़ता जा रहा है। यहाँ तक कि कतिपय आर्य जन भी आसुरी प्रलोभनों में घिर कर अग्निहोत्र की अवहेलना कर रहे हैं। यदि आसुरि प्रवृत्तियों का प्रसार निरंतर होता रहा तो आर्यों के लिये हल भर भी भूमि नहीं बचेगी। जिस अग्निहोत्र को वैवस्वत मनु ने अपने प्रबल प्रताप और उद्योग से बचाया था वह नष्ट हो जायेगा। अग्निहोत्र के अभाव में देवताओं का बल क्षीण होगा। आप सब विचार करें कि तब यह पृथ्वी कैसी होगी! ‘
– ‘आर्य सुरथ की चिंता उचित है।’ ऋषिश्रेष्ठ सौम्यश्रवा ने समर्थन किया।
– ‘मैंने तो यह भी सुना है आर्य कि सैंधव जन अश्वत्थ आदि वनस्पतियों के पूजन में अज [1] एवं अरुणोपल [2] आदि पशु-पक्षिओं की भी बलि चढ़ाने लगे हैं। [3] निश्चय ही असुरों के प्रभाव में आकर उन्होंने यह कुमार्ग अपनाया है।’ आर्या समीची ने कहा।
– ‘हमारे पूर्वजों ने उद्घोष किया था- कृण्वन्तो विश्वम् आर्यम्। [4] इसलिये हमारा यह कर्त्तव्य हो जाता है कि हम आर्य तथा आर्येतर प्रजाओं को पापाचार की ओर जाने से रोकें।’ ऋषि अग्निबाहु ने भी आर्य सुरथ का समर्थन किया।’
– ‘आर्य होने का अर्थ श्रेष्ठ हो जाना है। जो विहित कत्र्तव्य का पालन करता है, निषिद्ध एवं निंद्य आचरण नहीं करता, शिष्टाचार का पालन करता है, वह आर्य है।’ [5] ऋषिश्रेष्ठ सौम्यश्रवा ने ‘आर्य’ शब्द को व्याख्यायित किया।
– ‘आर्य प्रजा की अपेक्षा आर्येतर प्रजाओं की संख्या में तेजी से वृद्धि होती है, इसका क्या कारण है ऋषिवर।’ आर्य सुमंगल ने जिज्ञासा व्यक्त की।
– ‘भोग विलास की प्रवृत्ति और काम में आसक्ति।’ ऋषि अग्निबाहु ने आर्य सुमंगल की जिज्ञासा का समाधान किया।
– ‘अत्यंत महत्वपूर्ण चिंता व्यक्त की है आर्य सुमंगल ने और अत्यंत ही समुचित कारण बताया है ऋषिवर अग्निबाहु ने। मैं स्वयं भी इस पर चिंतन करता रहा हूँ। कितना परिश्रम करना पड़ा था आर्यों को जब उन्होंने इन्द्र की सहायता से यतियों को समाप्त कर शृगालों के समक्ष डाल दिया था। सहस्रों की संख्या में यति यमलोक पहुँचाये गये थे किंतु अब ये फिर से इतनी बड़ी संख्या में दिखाई देते हैं जैसे यमलोक का द्वार तोड़कर एक साथ ही धरित्री पर लौट आये हों। ऋषिश्रेष्ठ सौम्यश्रवा ने व्यथित स्वर में कहा।
– ‘प्राणी में दूषित प्रवृत्तियों का प्रादुर्भाव क्यों होता है ऋषिश्रेष्ठ ? क्यों नहीं आर्यों की भांति अन्य प्रजाओं में श्रेष्ठ संस्कार स्वतः उत्पन्न होते ?’ आर्य पूषण ने जिज्ञासा व्यक्त की।
– ‘आर्य पूषण! यह सृष्टि अंधकार से उत्पन्न हुई है, प्रकाश से नहीं। इसलिये अंधकार स्वतः उत्पन्न हो जाता है। प्रकाश के लिये तप करना होता है आर्य।’ ऋषिश्रेष्ठ सौम्यश्रवा ने समाधान किया।
– ‘आर्यों में यदि श्रेष्ठ आचरण प्रकट हुए हैं तो उनके पीछे ऋषियों की तपस्या छिपी है।’ गोप सुरथ ने कहा।
– ‘आर्येतर प्रजाओं ने ऋषि परम्परा का ही विकास नहीं किया तब उनमें तपस्या कहाँ से आती! प्रकाश कहाँ से आता! ‘ ऋषि पत्नी अम्बा अदिति ने अपना विचार कहा। वे बहुत देर से मौन रहकर आज की सभा में हो रहे विचार मंथन को सुन रहीं थीं।
– ‘मद्य, मांस और मैथुन को त्याग पाना उन प्रजाओं के लिये सरल नहीं है आर्ये। इसके लिये उन्हें दीर्घ अभ्यास की आवश्यकता होगी। तभी वे शुभकर्मों की ओर प्रवृत्त होंगे।’ ऋषिश्रेष्ठ सौम्यश्रवा ने कहा।
– ‘कौन करायेगा उन्हें अभ्यास ?’ आर्या स्वधा ने पूछा।
– ‘हम करायेंगे पुत्री। हम उन्हें आर्य बनायेंगे।’ अम्बा अदिति ने स्नेह से आर्या स्वधा के शीश पर हाथ रखकर कहा।
– ‘किंतु कैसे ?’
– ‘अपने शस्त्रों से।’ अम्बा अदिति कुछ कहें, इससे पूर्व आर्य अतिरथ ने बात पूरी की।
– ‘नहीं। शस्त्रों से किसी भी प्रजा की संस्कृति का परिमार्जन नहीं किया जा सकता। संस्कृति का परिमार्जन होता है शास्त्रों से। संस्कृति का परिमार्जन शीघ्र सम्पादित होने वाली प्रक्रिया नहीं है। शत-शत वर्षों तक हमें इसी प्रयास में संलग्न रहना होगा। ऋतुयें आयेंगी और जायेंगी। पीढ़ियाँ बदलेंगी। परिस्थितियाँ बदलेंगी किंतु हमारा यह यज्ञ चलता रहेगा। हम संसार को आर्य बनाने के लिये अपनी आहुतियाँ देते रहेंगे।’ गोप सुरथ का गहन गंभीर स्वर इस प्रकार जान पड़ता था मानो शताब्दियों के अंतराल से बोल रहे हों।
– ‘जिस प्रकार वैवस्वत मनु ने प्रजापति बनकर प्रजा की रचना की, उसी प्रकार हमें भी प्रजापति बनना होगा। आर्य प्रजा का विस्तार करना होगा। इसके लिये हमें नये प्रजापतियों की आवश्यकता होगी।’ ऋषिश्रेष्ठ सौम्यश्रवा ने गोप सुरथ की योजना को स्पष्ट किया।
– ‘तब तो इतने विशाल यज्ञ को संपादित करने के लिये हमें बहुत बड़ी संख्या में श्रेष्ठ ब्रह्मा, श्रेष्ठ प्रचेता, श्रेष्ठ दक्ष, और श्रेष्ठ मनुओं की आवश्यकता होगी।’ आर्य पूषण ने अनुमान लगाते हुए कहा।’
– ‘नहीं। इस यज्ञ के लिये हमें युगानुकूल मार्ग अपनाना होगा। हर युग में श्रेष्ठ ब्रह्मा, श्रेष्ठ प्रचेता, श्रेष्ठ दक्ष, और श्रेष्ठ मनुओं का उपलब्ध हो पाना कौन जाने संभव हो पाये अथवा नहीं। इतने सारे याज्ञिकों की उपस्थिति आगे चलकर परस्पर वैमनस्य और वर्चस्व के संघर्ष में बदल सकती है। व्यवस्था ऐसी करनी होगी जिसमें कम से कम अपवाद उत्पन्न हों। हम भूत के अनुभव, वर्तमान के संकट और भविष्य की आवश्यकताओं को ध्यान में रखकर विन्यास का निर्माण करेंगे।’ गोप सुरथ ने उसी प्रकार अतल गहराई से आते स्वर में कहा।
अभिभूत हैं आर्य सुनील आर्य सुरथ की इस योजना पर। कितनी दूर तक की विचार लेते हैं वे। निश्चय ही वे ऐसा कर सकने में समर्थ भी हैं। निश्यच ही आर्य सुरथ शीघ्र ही कोई बड़ा अभियान आरंभ करने वाले हैं जिसमें आर्य सुनील को भी महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वहन करना होगा। आर्य सुनील ने अनुमान किया।
आर्य अतिरथ को इस तरह की बातें पसंद नहीं। कैसा परिमार्जन और कैसा यज्ञ! अत्यंत स्पष्ट मार्ग को भी विद्वान जन इतना दुष्कर क्यों बना देते हैं! समस्या है पापाचार को नष्ट करने की। सीधी और स्पष्ट बात है कि पापियों को नष्ट कर दो, पापाचार भी स्वतः नष्ट हो जायेगा किंतु नहीं! आर्य अतिरथ की तो सुनता ही कौन है! हुँह! यज्ञ करेंगे! आर्य अतिरथ मन ही मन झल्लाये किंतु बोले कुछ नहीं।
– ‘अपनी योजना को समिति के समक्ष स्पष्ट करें आर्य।’ ऋषि पर्जन्य ने वार्तालाप को पुनः मूल बिन्दु पर लाते हुए प्रश्न किया।
– ‘मेरी योजना यह है कि जिस प्रकार कुल का मुखिया कुलपति, ग्राम का मुखिया ग्रामणी और विश का मुखिया विशप अथवा विशपति होता है उसी प्रकार जन का भी मुखिया होना चाहिये।’
– ‘जन का मुखिया किस लिये ? आर्य पूषन ने प्रश्न किया।
– ‘सम्पूर्ण जन के सम्बन्ध में निर्णय ले सकने के लिये।’
– ‘सम्पूर्ण जन के सम्बन्ध में निर्णय लेने के लिये समिति की व्यवस्था कर रखी है आर्यों ने। समिति सामूहिक रूप से जो निर्णय लेती है, उसमें समस्त प्रजा की सम्मति होती है। वे निर्णय समस्त आर्यों के हित के लिये गये होते हैं। एक व्यक्ति द्वारा लिये गये निर्णय गलत भी हो सकते हैं।’
– ‘जन का मुखिया बनाने का अर्थ यह नहीं है कि समिति समाप्त कर दी जाये। समिति वर्तमान की ही तरह कार्य करती रहे तथा उसके द्वारा जो नीति निर्धारित की जाये, मुखिया द्वारा उसी नीति के आधार पर जन के हित में त्वरित निर्णय लिये जायें।’
– ‘इसका क्या लाभ होगा ?’
– ‘वर्तमान में आर्य ‘जन’ के रूप में संगठित हैं। एक जन का दूसरे जन से कोई सम्पर्क नहीं है। हमें यह व्यवस्था करनी होगी कि जब असुर किसी एक जन पर आक्रमण करें तो अन्य आर्य जन उसकी सहायता के लिये तत्काल उपलब्ध हों। आर्य जनों के रक्षण के साथ-साथ असुरों के विरुद्ध व्यापक अभियान चलाने के लिये भी आर्यों के समस्त जनों को जनपद के रूप में संगठित किया जाना आवश्यक है। जब जनपद कोई निर्णय लेना चाहेगा तब यह संभव नहीं रह जायेगा कि समस्त जनों की समिति बुलाई जा सके। विभिन्न जन अपने-अपने मुखिया के माध्यम से जनपद में अपनी बात कह सकेंगे।’
– ‘क्या जनपद द्वारा लिये गये निर्णय को सभी जनों द्वारा स्वीकार किया जाना आवश्यक होगा ?’ आर्य पूषन ने प्रश्न किया।
– ‘हाँ जनपद का निर्णय सभी जनों को समान रूप से स्वीकार करना होगा।
– ‘इसका अर्थ यह हुआ कि जनपद बनने के बाद जन अपनी स्वतंत्रता खो देंगे!’
– ‘नहीं, वे अपनी स्वतंत्रता खोयेंगे नहीं। जनपद द्वारा जो निर्णय लिया जायेगा, उसमें समस्त जनों की सम्मति सम्मिलित रहेगी।’
– ‘किंतु यह तो आवश्यक नहीं कि समस्त जन किसी विषय पर एक ही सम्मति रखते हों। उनमें असहमति भी हो सकती है ?’ आर्य पूषन ने आशंका व्यक्त की।
– ‘ऐसी स्थिति में यह देखा जायेगा कि कितने जन उस निर्णय से सहमत हैं। यदि सम्मति रखने वाले जनों की संख्या अधिक हुई तो वह निर्णय असम्मति रखने वाले जन को भी मानना होगा।’ आर्य सुरथ ने जवाब दिया।
– ‘यही तो मैं कह रहा हूँ आर्य कि जनपद के निर्माण से जन अपनी स्वतंत्रता खो देंगे।’ आर्य पूषन ने पुनः आशंका व्यक्त की।
– ‘नहीं, वे अपनी स्वतंत्रता खोयेंगे नहीं, किंतु कुछ मामलों में उनकी स्वतंत्रता सीमित अवश्य हो जायेगी।’
– ‘आर्य जन अपनी स्वतंत्रता सीमित क्यों करना चाहेंगे ?’
– ‘संगठन के निर्माण के लिये व्यक्तिगत स्वातंत्र्य को सीमित करना ही होता है। वर्तमान परिस्थिति को देखते हुए संगठन का निर्माण आवश्यक है। अन्यथा हमें अपनी स्वतंत्रता असुरों के हाथों नष्ट हो जाने के लिये प्रस्तुत रहना चाहिये।’
देर रात्रि तक नवीन संगठन के निर्माण और उसके लिये किये जाने वाले उपायों पर विचार-विमर्श चलता रहा। जब गगन की कृत्तिका [6] पूरी आभा के साथ प्रकाशवान् हो उठी और नीहारिकाओं [7] के महाविशाल चक्रों की दिशायें कुछ मुड़ी हुई सी प्रतीत होने लगीं तो समिति का विसर्जन हुआ।
[1] बकरा।
[2] मुर्गा।
[3] मोहेन-जो-दड़ो से प्राप्त एक मुहर में एक वृक्ष को पशु बलि चढ़ाने का दृश्य है।
[4] सारे संसार को श्रेष्ठ बनाओ।
[5] कर्तव्यमाचरन् कार्यमकर्तव्यमनाचरन्। तिष्ठता प्रकृताचारे स वा आर्य इति स्मृतः।
[6] सत्ताईस नक्षत्रों में से तीसरा नक्षत्र।
[7] आकाशगंगा।