Tuesday, December 3, 2024
spot_img

11. अभिसार

शुक्ल पक्ष की प्रथमा का क्षीण चंद्र अल्प समय आकाश में उपस्थित रह कर प्रस्थान कर चुका है। नक्षत्रों का मंद प्रकाश मोहेन-जो-दड़ो को थपकियाँ देता हुआ निद्रा के वशीभूत किये हुए है। केवल नगर प्रहरियों ने ही निद्रा का अनुशासन स्वीकार नहीं किया है फिर भी उनके अंग विश्रांति के कारण शिथिल हो चले हैं जिससे वे उतने सजग नहीं रहे हैं जितना कि उन्हें होना चाहिये। पशुपति महालय के पृष्ठभाग में स्थित संकुचित वीथी में इस समय निविड़ अंधकार छाया हुआ है। इसी अंधकार की ओट लेकर दो काली छायाऐं प्रहरियों की दृष्टि से अपने आप को बचाती हुई तीव्र कदमों से अपने लक्ष्य की ओर बढ़ी चली जा रही हैं।

पक्की ईंटों से निर्मित एक बड़े भवन के समक्ष रुककर दासी वश्ती ने धीरे से अर्गला [1] बजाई। शिल्पी प्रतनु ने द्वार खोला और बिना कुछ बोले पीछे हट गया। असमय आये इन अतिथियों की प्रतीक्षा वह पर्याप्त व्यग्रता से कर रहा था किंतु अतिथियों की अभ्यर्थना में उसने एक भी शब्द नहीं कहा। दासी वश्ती भवन के बाहर ही बनी एक लघु चैकी पर बैठ गयी और नृत्यांगना रोमा ने भवन में प्रवेश किया।

कक्ष में दीपक प्रज्वलित था जिसकी वर्तिका अत्यंत क्षुद्र हो जाने के कारण दीपक से निःसृत आलोक दीपक के आस-पास ही सिमट कर रह गया था। रोमा के कक्ष में आ जाने से जैसे उसे बल मिला। उसका आलोक स्वतः तीव्र हो उठा।

  – ‘कुछ बोलोगे नहीं शिल्पी!’ अपने ऊपर से श्याम अंशुक हटाते हुए रोमा ने प्रश्न किया।

  – ‘क्या बोलूँ ? कुछ शेष रह गया है क्या अब भी ?’

  – ‘यह तो पूछो कि अतिथि के आगमन का प्रयोजन क्या है ?’

  – ‘सामथ्र्यवान अतिथियों के आगमन का कारण नहीं पूछा जाता।’

  – ‘क्रोधित हो ?’

  – ‘क्रोधित हो सकूं , अकिंचन की इतनी सामथ्र्य नहीं।’

  – ‘मैं समझ सकती हूँ , आपका रोष अकारण नहीं है किंतु सत्य मानो शिल्पी मेरा आशय यह कदापि नहीं था कि आपको राजधानी से निष्कासित कर दिया जाये।’

  – ‘जो भी रहा हो आपका आशय किंतु परिणाम सामने है, उसे तो नहीं नकारा जा सकता।’

  – ‘यही तो, यही तो चिंता का विषय है शिल्पी।’

  – ‘पशुपति महालय की प्रधान नृत्यांगना, सैंधव सभ्यता की अनिंद्य-अप्रतिम सुंदरी, सर्व-भावेन सामथ्र्यवान महादेवी रोमा को चिंतित होना शोभा नहीं देता।’

  – ‘देखो शिल्पी समय बहुत अल्प है। मुझे बहुत सी बातें कहनी और सुननी हैं। मेरी प्रार्थना है कि आप अपना रोष त्याग दें।’

  – ‘आपकी इच्छा ही सर्वोपरि है देवी। यही क्या कम गौरव है मेरे लिये कि इस सघन अंधकार से युक्त रात्रि में पुरवासियों की दृष्टि से छिपकर केवल मेरे लिये आपने यहां आने का कष्ट किया है। कहिये क्या आज्ञा है ?’

  – ‘यह सब औपचारिकतायें त्यागनी होंगी शिल्पी। मेरा दुर्भाग्य है कि मेरा परिचय आपसे इन परिस्थितियों में हुआ। यदि आपने पूर्व में ही मुझसे सम्पर्क कर लिया होता तो आज यह प्रसंग उत्पन्न न हुआ होता।’

  – ‘मेरी त्रुटि यही है कि मैंने कौतुक के उद्देश्य से यह सब किया और महालय की महिमा को उपेक्षित कर दिया। उसी की परिणति इन परिस्थितियों में हुई।’

  – ‘जो हुआ, अशोभनीय हुआ। अब आपका क्या विचार है ?’

  – ‘विचार का तो अवकाश ही नहीं रहा! अब तो प्रातः होते ही राजधानी छोड़कर चल देना होगा।’

  – ‘कहाँ जाओगे ? अपने पुर ?’

  – ‘कहाँ जाऊँगा यह तो मुझे भी ज्ञात नहीं किंतु इतना निश्चित है कि अपने पुर नहीं जाऊंगा।’

  – ‘क्यों ?’

  – ‘लोक अपवाद लेकर स्वजनों के बीच नहीं जाया जा सकता।’

  – ‘अपवाद के परिमार्जन का क्या उपाय है ?’

  – ‘मैं नहीं जानता।’

– ‘जब उपाय ही नहीं जानते तो अपवाद का परिमार्जन करोगे कैसे ?’

  – ‘संभवतः न कर पाऊँ।’

  – ‘तो अपने पुर कभी नहीं लौटोगे ?’

  – ‘संभवतः ऐसा ही हो।’

  – ‘यह तो उचित नहीं होगा।’

  – ‘जो अब तक हुआ है उचित तो वह भी नहीं था किंतु वह भी होकर ही रहा।’

  – ‘अभी तक रुष्ट हो।’

  – ‘रुष्ट स्वजनों से हुआ जाता है।’

  – ‘मेरा अनुरोध है कि आप मुझे भी स्वजन समझें।’

  – ‘किस सम्बन्ध से ?’

  – ‘आत्मीयता के सम्बन्ध से।’

  – ‘मैं तो किंचित भी आत्मीयता अनुभव नहीं कर रहा।’ अत्यंत रूखा हो आया प्रतनु। उसे नृत्यांगना का सारा व्यवहार बड़ा विचित्र जान पड़ रहा था।

  – ‘आज आत्मीयता अनुभव नहीं कर रहे हो। कल करोगे।’

  – ‘तो कल ही आपको स्वजन भी समझूंगा किंतु आत्मीयता का कारण तो स्पष्ट हो।’

  – ‘आत्मीयता का कोई कारण नहीं होता शिल्पी। आत्मीयता तो स्वयं ही कारण है और स्वयं ही परिणाम।’

  – ‘मेरा हृदय अभी इतना विकसित नहीं हो सका है देवी कि मैं अकारण ही आत्मीयता का अनुभव करने लगूं।’

  – ‘कला साधक होने के सम्बन्ध से भी हमारे बीच आत्मीयता हो सकती है शिल्पी।’

कहने को तो उसने कह दिया किंतु समझ नहीं पा रही थी रोमा। कैसे कहे इस स्वाभिमानी, हठी, रुष्ट और दृढ़ शिल्पी से अपने हृदय की बात। वह किसी भी संवाद को संवेदना के स्तर तक पहुँचने ही नहीं दे रहा। कक्ष में कुछ क्षण इसी तरह नीरवता व्याप्त रही। दोनों में से कोई कुछ नहीं बोला। अचानक ध्यान आया रोमा को। शिल्पी अपना रोष त्यागे भी तो क्योंकर ? रोमा ने अभी तक न तो कोई क्षमा याचना की और न खेद ही प्रकट किया। वह अपने स्थान से उठकर शिल्पी के पैरों पर गिर पड़ी। इस अप्रत्याशित उपक्रम को समझ नहीं पाया प्रतनु। घबरा कर बोला- ‘यह क्या करती हैं देवी ?’

  – ‘जो मुझे सबसे पहले करना चाहिये था। आपसे क्षमा हेतु अनुनय करती हूँ।’

प्रतनु ने रोमा को बाहुमूल से पकड़ कर उठाया। बाहु के ऊष्ण स्पर्श से प्रतनु के भीतर जैसे कहीं कुछ पिघला। प्रतनु ने अपने शरीर में हल्का कंपन्न अनुभव किया। अपने आप से ही लज्जित हो गया वह। क्यों वह इतनी कठोरता से व्यवहार कर रहा है! क्या प्रस्तर छीलते-छीलते वह स्वयं भी प्रस्तरवत् हो गया है! क्या वह एक रमणीय स्त्री की अनुनय को भी सम्मान नहीं दे सकता। नहीं-नहीं, कलाकार को इतनी शुष्कता शोभा नहीं देती। अतः अपने कण्ठ को भरसक कोमल बनाकर बोला- ‘क्षमा हेतु अनुनय करने की आवश्यकता नहीं। मैं आपसे किंचित मात्र भी रुष्ट नहीं हूँ। यहाँ आने का और कोई प्रयोजन हो तो कहें। रात्रि बहुत हो चली है यदि प्रहरियों ने देख लिया तो एक और अपवाद उत्पन्न हो जायेगा। आप महालय गमन करें।’

  – ‘क्षमा याचना के अतिरिक्त भी यहाँ आने का कारण है। वही निवेदन करना चाहती हूँ, कर सकेंगे मेरे निवेदन की रक्षा ?’

  – ‘शक्ति रहते पीछे नहीं हटूंगा।’

  – ‘मेरा निवेदन यह है कि आप दो वर्ष बाद फिर राजधानी लौट कर आयें।’

  – ‘किस प्रयोजन से ?’

  – ‘अपने अपवाद के परिमार्जन के लिये।’

  – ‘आप जानती हैं अपवाद के परिमार्जन का उपाय ?’

  – ‘अपवाद के परिमार्जन का उपाय तो नहीं जानती किंतु इतना जानती हूँ कि जहाँ रोग उत्पन्न होता है, औषध भी वहीं उपलब्ध होती है। इस अपवाद का आरोपण राजधानी मोहेन-जो-दड़ो में हुआ है अतः परिमार्जन भी यहीं हो सकता है।’

प्रतनु को लगा कि अभी सब कुछ समाप्त नहीं हुआ है। अब भी संसार में प्रतनु के लिये प्रकाश है जो उसका मार्ग प्रशस्त कर सकता है। प्रतनु ने यह भी अनुभव किया कि उसके समक्ष खड़ी स्त्री नितांत दर्शनीय देवदासी अथवा नितांत कमनीय नृत्यांगना अथवा नितांत रमणीय सैंधवी नहीं है। वह असाधारण वैदुष्य की स्वामीनी है। क्यों नहीं सोच सका शिल्पी प्रतनु यह बात पहले कि जहाँ रोग जन्म लेता है वहीं उसकी औषधि भी होती है। प्रकृति का यही नियम है।

प्रतनु ने अपने हृदय में नृत्यांगना के प्रति नवीन भाव के संचरण का अनुभव किया। यह काल्पनिक आकर्षण नहीं था, जो उसके हृदय में मोहेन-जो-दड़ो आने से पहले केवल रोमा के नृत्य और सौंदर्य की ख्याति को सुनकर उपजा था। यह रूप जनित आकर्षण भी नहीं था जो पशुपति उत्सव में रोमा को देखकर उपजा था। यह तो कोई और ही नवीन भाव था। संभवतः यह आत्मीयता का भाव है जो प्रत्युपकार की भावना से उपजता है। प्रतनु ने अनुमान किया।

  – ‘किस सोच में पड़ गये शिल्पी ?’

  – ‘सोच रहा हूँ आपके उपकार से कैसे उऋण हो पाऊंगा ?’

  – ‘अपकार को उपकार न कहें शिल्पी।’

  – ‘कभी-कभी व्यक्ति उपकार को अपकार और अपकार को उपकार मान बैठता है।’

– ‘वस्तुतः आपने मेरा अपकार नहीं उपकार ही किया है। मुझे जीवन जीने का नवीन लक्ष्य प्रदान किया है।’

  – ‘आप बतायें कि कैसे मैं आपका प्रत्युपकार कर सकूंगा ?

  – ‘दो वर्ष की अवधि बीतने पर वह प्रसंग भी उपस्थित हो जायेगा शिल्पी। मैं आपकी प्रतीक्षा करूंगी।’

  – ‘क्या उसके सम्बन्ध में कुछ भी जान सकता हूँ ?’

  – ‘हाँ। वही निवेदन करने तो मैं आयी थी। वस्तुतः मेरे यहाँ आने के स्वार्थ का मन्तव्य भी वही है जो मुझे यहाँ तक खींच लाया है।’

  – ‘आज्ञा करें।’

  – ‘किलात मुझपर कुदृष्टि रखे हुए है। उससे त्राण चाहती हूँ। आप सहायक होंगे ?’

  – ‘यह कैसी बात हुई ?’

  – ‘बात विचित्र है किंतु सत्य भी है कि सम्पूर्ण राजधानी में मुझे किलात से त्राण दिलवा सकने योग्य एक भी प्राणी दिखाई नहीं देता। किलात से विदा होते समय आपके चेहरे की दृढ़ता को देखा तो मुझे लगा कि आप मेरी सहायता कर सकते थे किंतु दुर्विपाक से तब तक परिस्थिति हाथ से निकल चुकी थी।’

  – ‘यदि किलात के हृदय में आपके प्रति अनुराग है तो इसमें बुरा क्या है ? महालय की नृत्यांगनाओं का स्वामी तो पुजारी ही होता है। वही उनका प्रथम और अंतिम भोक्ता है।

  – ‘उसने मेरी माता के साथ भी रमण किया है। उस नाते वह मेरा पिता होता है। मैं उसके समक्ष कैसे प्रस्तुत हो सकती हूँ!’

  – ‘महालय की नृत्यांगनाओं के समस्त पारिवारिक सम्बन्ध उसी क्षण नष्ट हो जाते हैं जिस समय वे पशुपति को अर्पित की जाती हैं। सैंधवों की परम्परा यही है।’

  – ‘सैंधवों की परम्परा कुछ भी क्यों न हो शिल्पी किंतु क्या प्रकृति के बनाये बंधन शिथिल किये जा सकते हैं ? क्या मेरी माता को मेरी माता होने से नकारा जा सकता है ? और यदि ऐसा नहीं किया जा सकता तो किलात के प्रति मेरा समर्पण व्यभिचार के अतिरिक्त कुछ भी नहीं है।’

  – ‘देवार्पित बालाओं पर सामान्य लोक के नियम प्रचलित नहीं होते देवी। जिस प्रकार पवित्र वृषभ बिना किसी सम्बन्ध का बन्धन स्वीकार किये गौओं से सृष्टि करता है, उसी प्रकार पशुपति महालय के पुजारी और देवार्पित देवबालायें भी तुच्छ सम्बन्धों से परे होते हैं। शिश्नदेव की संतुष्टि के लिये ही पुजारी देवबालाओं के साथ रमण करता है। उसमें पुजारी की अपनी कोई कामना नहीं होती।’

  – ‘मिथ्या तर्क है यह। मैं क्या जानती नहीं किलात की वासना को!

  – ‘सैंधवों की परम्परा नष्ट करना तो उचित नहीं देवी।’ कहने को तो कह दिया प्रतनु ने किंतु वह स्वयं भी परम्पराओं का कायल केवल इसलिये कभी नहीं रहा कि वे परम्परा हैं। उसकी मान्यता रही है कि परम्पराओं को ग्रहण करने में विवेक का प्रयोग आवश्यक है। समग्र हित हेतु बनी परम्परायें ही अनुकरणीय हैं जबकि स्वार्थ अथवा अज्ञानवश बनायी गयी बुरी परम्परायें सदैव त्याज्य हैं।

  – ‘प्रत्येक परम्परा स्वस्थ ही हो, यह तो आवश्यक नहीं। परम्पराओं का परिमार्जन युग के अनुकूल होते रहना चाहिये। केवल सार्वभौम परम्परायें ही ग्राह्य हैं।’ रोमा के स्वर में उत्तेजना थी।

शिल्पी प्रतनु का मन पिघल कर बहने लगा। उसे लगा सामने रोमा नहीं, प्रतनु के पिता खड़े हैं। उन्हीं को प्रतनु ने जीवन भर साहस के साथ सही और गलत का भेद करते देखा था। पिता ने ही प्रतनु को सिखाया था कि सब कुछ आँख मूंद कर ग्रहण करते जाना कदापि श्रेष्ठ नहीं। उसे विवेक की तुला पर तौला जाना चाहिये। उसे लगा कि नृत्यांगना रोमा जितनी सुंदर है, जितनी कला प्रवीण है उससे कहीं अधिक विदुषी और स्वाभिमानी है। निश्चय ही इस सैंधवी की सहायता करनी चाहिये, किंतु कैसे ?

  – ‘क्या सोचने लगे शिल्पी ?’

  – ‘सोच रहा हूँ कि उपाय क्या है! ‘

  – ‘उपाय है प्रतिरोध। मुझे सामथ्र्य रहते किलात का और उसके बनाये नियमों का प्रतिरोध करना होगा और इस प्रतिरोध में आपको मेरा सहायक बनना होगा।’

  – ‘कैसे कर सकूंगा मैं आपकी सहायता ? मैं तो सूर्योदय से पूर्व ही यहाँ से जा रहा हूँ।’

  – ‘आप दो वर्ष बाद लौटकर आ रहे हैं।’ रोमा ने स्मित हास्य के साथ कहा। क्षण भर पहले की उत्तेजना तिरोहित हो चुकी थी।

  – ‘किंतु दो वर्ष कम तो नहीं होते ? इस बीच आप रक्षण कर सकेंगी अपना ?’ प्रतनु चिंतित दिखाई दिया।

  – ‘प्रश्न मेरे रक्षण का नहीं, प्रश्न किलात के प्रतिरोध का है। वह मैं प्राण देकर भी करूंगी।’

  – ‘किलात से मुक्त होकर किस भाग्यशाली को अपनायेंगी देवी ?’ जाने किस आशा में प्रतनु ने यह प्रश्न कर लिया। वह स्वयं भी इसका कारण ठीक से समझ नहीं पा रहा था।

  – ‘जो सचमुच ही सौभाग्यशाली होगा।’ रोमा ने स्मित वदन होकर कहा।

  – ‘क्या कोई ऐसा सौभाग्यशाली है देवी की दृष्टि में ?’

  – ‘हाँ है। मेरा अनुमान है कि वह सौभाग्यशाली इस समय मेरे समक्ष उपस्थित है।’

अभिभूत होकर रह गया प्रतनु। कैसे! कैसे रोमा ने उसके हृदय से निःसृत मौन प्रार्थना सुन ली! कही यह सहायता के रूप में की जाने वाली सेवा का मूल्य चुकाने का आश्वासन तो नहीं! क्योंकर ? क्योंकर वह प्रतनु के प्रति अनुराग व्यक्त कर रही है ?

अभी तो रोमा ने ठीक से जाना भी नहीं प्रतनु को।

  – ‘क्या मैं जान सकता हूँ कि इस अकिंचन पर यह कृपा क्योंकर की जा रही है ?’   

  – ‘आप अकिंचन नहीं हैं। अद्भुत प्रतिभा, अतुलनीय साहस और आपत्ति में भी नष्ट न होने वाले विवेक के स्वामी हैं।’

  – ‘कैसे अनुमान लगाया आपने ?’

  – ‘मैं अनुमान के आधार पर नहीं, साक्ष्य के आधार पर कह रही हूँ।’

  – ‘साक्ष्य! कैसा साक्ष्य ?’

  – ‘आपके द्वारा बनाई गयी वह प्रतिमा आपकी अद्भुत प्रतिभा, अतुलनीय साहस और कठिन क्षणों में भी नष्ट न होने वाले विवेक का साक्ष्य है। उस एक प्रतिमा को देखकर ही यह अनुमान लगाना सहज हो जाता है कि जो भी आप देखते हैं उसे किस गहराई तक देख सकते हैं………।’ अपना वाक्य अधूरा छोड़कर मुस्कायी वह- ‘………एक बात कहूँ शिल्पी, अपनी प्रतिमा को देखने से पूर्व मैं स्वयं नहीं जानती थी कि मैं इतनी सुंदर हूँ।’

वाक्य पूरा करते-करते श्यामवर्णा सर्वांग सुंदरी के मुख का लावण्य शतगुणित हो गया। शिल्पी प्रतनु औपचारिकता की दूरी को समाप्त कर निकट हो आया रोमा के और अपनी बाँहों में समेटते हुए बोला- ‘अभी भी तुम मेरी बनायी प्रतिमा से कई गुणा अधिक सुंदर हो। इस अगाध सौंदर्य को प्रस्तर खण्ड में उतार पाना किसी शिल्पी के वश की बात नही। यह शिल्प तो अज्ञात शिल्पी ही रच सकता है, जो कभी किसी को दिखाई नहीं देता। जाने कहाँ छिपकर वह सम्पूर्ण सृष्टि के शिल्प में व्यस्त है।’

  – ‘मैंने कहा था ना कि तुम मेरे प्रति आत्मीयता अनुभव करने लगोगे।’

  – ‘हाँ देवी! जो तुमने कहा, सच कहा। यह किंकर आपका अनुगत है।’ भावनाओं के तीव्र प्रवाह में बहा चला जा रहा था प्रतनु।

  – ‘आप किंकर नहीं, मेरे स्वामी हैं।’

  – ‘किस सम्बन्ध से मैं तुम्हारा स्वामी हुआ नृत्यांगना ?’

  – ‘आत्मीयता के सम्बन्ध से आप मेरे स्वामी हुए।’ जैसे दुर्बल लता समर्थ वृक्ष से अनायास ही लिपट जाती है वैसे ही रोमा शिल्पी प्रतनु की देह से लिपट गयी। आत्मीयता की जो यात्रा उन्हें समय के पर्याप्त अंतराल में करनी चाहिये थी, वह यात्रा समय की अत्यल्पता के कारण इतनी शीघ्र इस बिंदु पर पहुँच गयी थी। 

गगन मण्डल में सप्त सिंधुओं का प्रतिनिधत्व कर रहे सप्त नक्षत्र अब अपने पुर को जाने को लालायित थे किंतु यही सोचकर अटके हुए थे कि अभिसार पूर्ण होने से पहले चल देना उचित नहीं होगा।


[1] द्वार पर लगी कुण्डी

Related Articles

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here

Stay Connected

21,585FansLike
2,651FollowersFollow
0SubscribersSubscribe
- Advertisement -spot_img

Latest Articles

// disable viewing page source